दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित Dainik Poojan vidhi mantra Sahit

इस अध्याय में हमने कोशिश की है की आप सभी को सरलतम से सरलतम तरीके (विधि) द्वारा दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित बताया है, एवं उम्मीद करते है की यह दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit आपके लिए अत्यधिक सरल व उपयोगी होगा |

दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित | Dainik Poojan vidhi mantra Sahit

दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit
दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit

 

मंन्त्र –

ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः, ॐ महः ॐ जनः, ॐ तपः ॐ सत्यम्।

ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।

दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit

  • प्रत्येक पूजारंभ के पूर्व निम्नांकित आचार-अवश्य करने चाहिये- आत्मशुद्धि, आसन शुद्धि, पवित्री धारण, पृथ्वी पूजन, संकल्प, दीप पूजन, शंख पूजन, घंटा पूजन, स्वस्तिवाचन आदि.
  • भूमि, वस्त्र आसन आदि स्वच्छ व शुद्ध हों.
  • आवश्यकतानुसार चौक, रंगोली, मंडप बना लिया जाये.
  • मान्यता अनुसार मुहूर्त आदि का विचार किया जा सकता है.
  • यजमान पूर्वाभिमुख बैठे, पुरोहित उत्तराभिमुख.
  • विवाहित यजमान की पत्नी पति के साथ ग्रंथिबन्धन कर पति की वामंगिनी के रूप में बैठे.
  • पूजन के समय आवश्यकतानुसार अंगन्यास, करन्यास, मुद्रा आदि का उपयोग किया जा सकता है.
    औचित्यानुसार विविध देव प्रतीक भी बनाये जा सकते हैं, “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”

जैसे-

33 कोटि देवता

8 वसु= अग्नि,पृथ्बी,वायु,अन्तरिक्ष,आदित्य,द्योहो,चंद्रमा,नक्षत्र

11 रूद्र=प्राण,अपान,व्यान,समान,उदान,नाग,कूर्म,कृकल,देवदत्त,धनञ्जय,जीवात्मा

1 इंद्र= बिजुली

1 प्रजापति =यग्य

12 आदित्य

सरल पूजन विधि मंत्र प्रार्थना सहित Poojan vidhi mantra sahit
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त्रिदेव,
नवदुर्गा
एकादश रुद्र
नवग्रह,
दश दिक्पाल,
षोडश लोकपाल
सप्तमातृका,
दश महाविद्या
बारह यम
आठ वसु
चौदह मनु
सप्त ऋषि
घृतमातृका
दश अवतार
चौबीस अवतार
आदि

ध्यातव्य है कि पूजन के इस प्रकरण के अभ्यास से संकल्प विशेष का परिवर्तन करके विविध पूजा के आयोजन सामान्य रूप से कराये जा सकते हैं।

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गणेशाम्बिका पूजन
(पञ्चाङ्ग पूजा विधि)

आचमन- (आत्म शुद्धि के लिए) MantraKavach.com

ॐ केशवाय नमः,
ॐ नारायणाय नमः,
ॐ माधवाय नमः।
तीन बार आचमन कर आगे दिये मंत्र पढ़कर हाथ धो लें।
ॐ हृषीकेशाय नमः।।
पुनः बायें हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से अपने ऊपर और पूजा सामग्री पर निम्न श्लोक पढ़ते हुए छिड़कें।
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।
ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु, ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु।

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 प्राणायाम

शास्त्रों में प्राणायाम करने के लिए भी कहा गया है। क्योंकि प्रणाम करने से शरीर के आंतरिक पाप सब खत्म हो जाते हैं। इसलिए प्राणायाम अवश्य करना चाहिए।
प्राणायाम करने से पूर्व इस मंत्र का पाठ करना चाहिए।

मंन्त्र – ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः, ॐ महः ॐ जनः, ॐ तपः ॐ सत्यम्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्। 
ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।

अगर किसी कारण इस मंत्र का जप ना कर पाए, तो आप 3 बार गायत्री मंत्र का जप करके फिर प्राणायाम करें। प्राणायाम के तीन भेद होते हैं।

1. पूरक, 2. कुंभक, 3. रेचक

(1) दाहिने हाथ के अंगूठे से नाक के दाहिने छिद्र से श्वास को धीरे-धीरे खींचने को पूरक प्राणायाम कहते हैं। इस प्राणायाम को करते समय भगवान विष्णु का ध्यान करना चाहिए।

(2) जब सांस खींचना रुक जाए, तब अनामिका या कनिष्ठा उंगली से नाक के बाएं छिद्र को दबा दें। मंत्र जपते रहें। यह कुंभक प्राणायाम कहा जाता है। इस प्राणायाम को करते समय ब्रह्मा जी का ध्यान करना चाहिए। “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”

(3) अंगूठे को नाक के दाहिने छिद्र से श्वास को धीरे धीरे छोड़ें। इस प्राणायाम को रेचक प्राणायाम कहा जाता है। इस प्राणायाम को करते समय शंकर जी का ध्यान करना चाहिए।

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आसन शुद्धि-

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नीचे लिखा मंत्र पढ़कर आसन पर जल छिड़के-
ॐ पृथ्वि! त्वया धृता लोका देवि ! त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि ! पवित्रां कुरु चासनम्।।

शिखाबन्धन-
सरल पूजन विधि मंत्र प्रार्थना सहित Poojan vidhi mantra sahit
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ॐ मानस्तोके तनये मानऽआयुषि मानो गोषु मानोऽअश्वेषुरीरिषः।
मानोव्वीरान् रुद्रभामिनो व्वधीर्हविष्मन्तः सदमित्त्वा हवामहे ॐ चिद्रूपिणि महामाये दिव्यतेजः समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखाबद्धे तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे।।

कुश धारण-

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निम्न मंत्र से बायें हाथ में तीन कुश तथा दाहिने हाथ में दो कुश धारण करें।
ॐ पवित्रोस्थो वैष्णव्यौ सवितुर्व्वः प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रोण सूर्यस्य रश्मिभिः।
तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुनेतच्छकेयम्।
पुनः दायें हाथ को पृथ्वी पर उलटा रखकर “ॐ पृथिव्यै नमः” इससे भूमि की पञ्चोपचार पूजा का आसन शुद्धि करें।

यजमान तिलक-

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पुनः ब्राह्मण यजमान के ललाट पर कुंकुम तिलक करें।
ॐ आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः।
तिलकान्ते प्रयच्छन्तु धर्मकामार्थसिद्धये।

स्वत्ययन

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उसके बाद यजमान आचार्य एवं अन्य ऋत्विजों के साथ हाथ में पुष्पाक्षत लेकर स्वस्त्ययन पढ़े।

सरल पूजन विधि मंत्र प्रार्थना सहित Poojan vidhi mantra sahit
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ॐ आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासोऽ परीतास उद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे।।
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना ँ रातिरभि नो निवर्तताम्।
देवाना ँ सख्यमुपसेदिमा व्वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे।।
तान्पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रामदितिं दक्षमश्रिधम्।
अर्यमणं वरुण ँ सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत्।।
तन्नो व्वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः।
तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम्।।
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये।।
स्वस्ति न: इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभं यावानो विदथेषु जग्मयः।
अग्निर्जिह्ना मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह।।
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा ँ सस्तनुभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।।
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्।
पुत्रसो यत्रा पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः।।
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्राः।
विश्वे देवा अदितिः पञ्चजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्।।
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष Ủ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिर्व्वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्मशान्तिः सर्वं Ü शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सामा शान्तिरेधि।।
यतो यतः समीहसे ततो नोऽअभयं कुरू।
शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुब्भ्यः।। सुशान्तिर्भवतु।।

सरल पूजन विधि मंत्र प्रार्थना सहित Poojan vidhi mantra sahit
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हाथ में लिए पुष्प और अक्षत गणेश एवं गौरी पर चढ़ा दें। पुनः हाथ में पुष्प अक्षत आदि लेकर मंगल श्लोक पढ़े।
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः।
लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः।
उमामहेश्वराभ्यां नमः।
वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः।
शचीपुरन्दराभ्यां नमः।
मातापितृचरणकमलेभ्यो नमः।
इष्टदेवताभ्यो नमः।
कुलदेवताभ्यो नमः।
ग्रामदेवताभ्यो नमः।
वास्तुदेवताभ्यो नमः।
स्थानदेवताभ्यो नमः।
सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः।
सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः।
विश्वेशं माधवं ढुण्ढिं दण्डपाणिं च भैरवम् ।
वन्दे काशीं गुहां गङ्गां भवानीं मणिकर्णिकाम् ।। 1।।
वक्रतुण्ड ! महाकाय ! कोटिसूर्यसमप्रभ ! ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव ! सर्वकार्येषु सर्वदा ।। 2।।
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः ।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ।। 3।।
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः ।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ।। 4।।
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा ।
सङ्ग्रामे सङ्कटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ।। 5।।
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ।। 6।।
अभीप्सितार्थ-सिद्धîर्थं पूजितो यः सुराऽसुरैः ।
सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः ।। 7।।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ! ।
शरण्ये त्रयम्बके गौरि नारायणि ! नमोऽस्तु ते ।। 8।।
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम् ।
येषां हृदिस्थो भगवान् मङ्गलायतनो हरिः ।। 9।।
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव ।
विद्यावलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेऽङ्घ्रियुगं स्मरामि।। 10।।
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः ।
येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः ।। 11।।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्र्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।।12।।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। 13।।
स्मृतेः सकलकल्याणं भाजनं यत्र जायते ।
पुरुषं तमजं नित्यं ब्रजामि शरणं हरिम् ।। 14।।
सर्वेष्वारम्भकार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः ।
देवा दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दनाः ।। 15।।
हाथ में लिये अक्षत-पुष्प को गणेशाम्बिका पर चढ़ा दें।

संकल्प

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दाहिने हाथ में जल, अक्षत, पुष्प और द्रव्य लेकर संकल्प करे।

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः ॐ स्वस्ति श्रीमन्मुकन्दसच्चिदानन्दस्याज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे एकपञ्चाशत्तमे वर्षे प्रथममासे प्रथमपक्षे प्रथमदिवसे द्वात्रिंशत्कल्पानां मध्ये अष्टमे श्रीश्वेतबाराहकल्पे स्वायम्भुवादिमन्वतराणां मध्ये सप्तमे वैवस्वतमन्वन्तरे कृत-त्रोता-द्वापर- कलिसंज्ञानां चतुर्युगानां मध्ये वर्तमाने अष्टाविंशतितमे कलियुगे तत्प्रथमचरणे तथा पञ्चाशत्कोटियोजनविस्तीर्ण-भूमण्डलान्तर्गतसप्तद्वीपमध्यवर्तिनि जम्बूद्वीपे तत्रापि श्रीगङ्गादिसरिद्भिः पाविते परम-पवित्रे भारतवर्षे आर्यावर्तान्तर्गतकाशी-कुरुक्षेत्र-पुष्कर-प्रयागादि-नाना-तीर्थयुक्त कर्मभूमौ मध्यरेखाया मध्ये अमुक दिग्भागे अमुकक्षेत्रे ब्रह्मावर्तादमुकदिग्भागा- वस्थितेऽमुकजनपदे तज्जनपदान्तर्गते अमुकग्रामे श्रीगङ्गायमुनयोरमुकदिग्भागे श्रीनर्मदाया अमुकप्रदेशे देवब्राह्माणानां सन्निधौ श्रीमन्नृपतिवीरविक्रमादित्य-समयतोऽमुक संख्यापरिमिते प्रवर्तमानवत्सरे प्रभवादिषष्ठिसम्वत्सराणां मध्ये अमुकनाम सम्वत्सरे, अमुकायने, अमुकगोले, अमुकऋतौ, अमुकमासे, अमुकपक्षे, अमुकतिथौ, अमुकवासरे, यथांशकलग्नमुहूर्तनक्षत्रायोगकरणान्वित.अमुकराशिस्थिते श्रीसूर्ये, अमुकराशिस्थिते चन्द्रे, अमुकराशिस्थे देवगुरौ, शेषेषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थानस्थितेषु, सत्सु एवं ग्रहगुणविशिष्टेऽस्मिन्शुभक्षणे अमुकगोत्रोऽमुकशर्म्मा वर्मा-गुप्त-दास सपत्नीकोऽहं श्रीअमुकदेवताप्रीत्यर्थम् अमुककामनया ब्राह्मणद्वारा कृतस्यामुकमन्त्रपुरश्चरणस्य सङ्गतासिद्धîर्थ- ममुकसंख्यया परिमितजपदशांश-होम-तद्दशांशतर्पण-तद्दशांश-ब्राह्मण-भोजन रूपं कर्म करिष्ये।

अथवा –

ममात्मनः श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्त्यर्थं सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य द्विपदचतुष्पदसहितस्य सर्वारिष्टनिरसनार्थं सर्वदा शुभफलप्राप्तिमनोभि- लषितसिद्धिपूर्वकम् अमुकदेवताप्रीत्यर्थं होमकर्माहं करिष्ये।

अक्षत सहित जल भूमि पर छोड़ें।

पुनः जल आदि लेकर-

तदङ्गत्वेन निर्विध्नतासिद्धîर्थं श्रीगणपत्यादिपूजनम् आचार्यादिवरणञ्च करिष्ये।
तत्रादौ दीपशंखघण्टाद्यर्चनं च करिष्ये।

जलपात्र (कर्मपात्र) का पूजन-
इसके बाद कर्मपात्र में थोड़ा गंगाजल छोड़कर गन्धाक्षत, पुष्प से पूजा कर प्रार्थना करें।
ॐ गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि! सरस्वति!।
नर्म्मदे! सिन्धु कावेरि! जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु।।
अस्मिन् कलशे सर्वाणि तीर्थान्यावाहयामि नमस्करोमि।
कर्मपात्र का पूजन करके उसके जल से सभी पूजा वस्तुओं पर छिड़कें.

घृतदीप-(ज्योति) पूजन-

“वह्निदैवतायै दीपपात्राय नमः” से पात्र की पूजा कर ईशान दिशा में घी का दीपक जलाकर अक्षत के ऊपर रखकर
ॐ अग्निर्ज्ज्योतिज्ज्योतिरग्निः स्वाहा,
सूर्यो ज्ज्योतिज्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।
अग्निर्व्वर्च्चो ज्ज्योतिर्व्वर्च्चः स्वाहा,
सूर्योव्वर्चोज्ज्योतिर्व्वर्च्चः स्वाहा ।।
ज्ज्योतिः सूर्य्यः सूर्य्यो ज्ज्योतिः स्वाहा।
भो दीप देवरूपस्त्वं कर्मसाक्षी ह्यविघ्नकृत्।
यावत्पूजासमाप्तिः स्यात्तावदत्रा स्थिरो भव।।
ॐ भूर्भुवः स्वः दीपस्थदेवतायै नमः आवाहयामि सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि नमस्करोमि। “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”

शंखपूजन

शंख को चन्दन से लेपकर देवता के वायीं ओर पुष्प पर रखकर शंख मुद्रा करें।
ॐ शंखं चन्द्रार्कदैवत्यं वरुणं चाधिदैवतम्।
पृष्ठे प्रजापतिं विद्यादग्रे गङ्गासरस्वती।।
त्रौलोक्ये यानि तीर्थानि वासुदेवस्य चाज्ञया।
शंखे तिष्ठन्ति वै नित्यं तस्माच्छंखं प्रपूजयेत्।।
त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृतः करे।
नमितः सर्वदेवैश्च पाझ्जन्य! नमोऽस्तुते।।
पाञ्चजन्याय विद्महे पावमानाय धीमहि तन्नः शंखः प्रचोदयात्।
ॐ भूर्भवः स्वः शंखस्थदेवतायै नमः
शंखस्थदेवतामावाहयामि सर्वोपचारार्थे गन्धपुष्पाणि समर्पयामि नमस्करोमि। “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”

घण्टा पूजन-

ॐ सर्ववाद्यमयीघण्टायै नमः,
आगमार्थन्तु देवानां गमनार्थन्तु रक्षसाम्।
कुरु घण्टे वरं नादं देवतास्थानसन्निधौ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः घण्टास्थाय गरुडाय नमः गरुडमावाहयामि सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि।
गरुडमुद्रा दिखाकर घण्टा बजाएं। दीपक के दाहिनी ओर स्थापित कर दें।

धूपपात्र की पूजा-

ॐ गन्धर्वदैवत्याय धूपपात्राय नमः इस प्रकार धूपपात्र की पूजा कर स्थापना कर दें।

गणेश गौरी पूजन

हाथ में अक्षत लेकर-भगवान् गणेश का ध्यान-
गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम्।।

गौरी का ध्यान –

नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।।
श्री गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, ध्यानं समर्पयामि।

गणेश का आवाहन-

हाथ में अक्षत लेकर
ॐ गणानां त्वा गणपति ँ हवामहे
प्रियाणां त्वा प्रियपति ँ हवामहे
निधीनां त्वा निधिपति ँ हवामहे
वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्।।
एह्येहि हेरम्ब महेशपुत्र ! समस्तविघ्नौघविनाशदक्ष !।
माङ्गल्यपूजाप्रथमप्रधान गृहाण पूजां भगवन् ! नमस्ते।।
ॐ भूर्भुवः स्वः सिद्धिबुद्धिसहिताय गणपतये नमः, गणपतिमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि च।
हाथ के अक्षत को गणेश जी पर चढ़ा दें।
पुनः अक्षत लेकर गणेशजी की दाहिनी ओर गौरी जी का आवाहन करें।

गौरी का आवाहन –

सरल पूजन विधि मंत्र प्रार्थना सहित Poojan vidhi mantra sahit

ॐ अम्बे अम्बिकेऽम्बालिके न मा नयति कश्चन।
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्।।
हेमाद्रितनयां देवीं वरदां शङ्करप्रियाम्।
लम्बोदरस्य जननीं गौरीमावाहयाम्यहम्।।
ॐभूर्भुवः स्वः गौर्यै नमः, गौरीमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि च। “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”

प्रतिष्ठा-

ॐ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ ँ समिमं दधातु।
विश्वे देवास इह मादयन्तामो 3 म्प्रतिष्ठ।।
अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च।
अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति च कश्चन।।
गणेशाम्बिके ! सुप्रतिष्ठिते वरदे भवेताम्।
प्रतिष्ठापूर्वकम् आसनार्थे अक्षतान् समर्पयामि गणेशाम्बिकाभ्यां नमः।
(आसन के लिए अक्षत समर्पित करे)।
पाद्य, अर्घ्य. आचमनीय, स्नानीय और पुनराचमनीय हेतु जल अर्पण करें.
ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्।।
एतानि पाद्यार्घ्याचमनीयस्नानीयपुनराचमनीयानि समर्पयामि गणेशाम्बिकाभ्यां नमः।

दुग्धस्नान-

ॐ पय: पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः पयस्वतीः।
प्रदिशः सन्तु मह्यम्।।
कामधेनुसमुद्भूतं सर्वेषां जीवनं परम्।
पावनं यज्ञहेतुश्च पयः स्नानार्थमर्पितम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, पयः स्नानं समर्पयामि।

दधिस्नान –

ॐ दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।
सुरभि नो मुखाकरत्प्रण आयू ँ षि तारिषत्।।
पयसस्तु समुद्भूतं मधुराम्लं शशिप्रभम्।
दध्यानीतं मया देव! स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, दधिस्नानं समर्पयामि।
(पुनः जल स्नान करायें।)

घृत स्नान –

ॐ घृतं मिमिक्षे घृतमस्य योनिर्घृते श्रितो घृतम्वस्य धाम।
अनुष्वधमा वह मादयस्व स्वाहाकृतं वृषभ वक्षि हव्यम्।।
नवनीतसमुत्पन्नं सर्वसंतोषकारकम्।
घृतं तुभ्यं प्रदास्यामि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, घृतस्नानं समर्पयामि। “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”
(पुनः जल स्नान करायें।)

मधुस्नान –

ॐ मधुव्वाताऽऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः।
माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव ँ रजः।
मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो व्वनस्पतिर्म्मधुमाँऽ अस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तु नः।।
पुष्परेणुसमुद्भूतं सुस्वादु मधुरं मधु।
तेजः पुष्टिकरं दिव्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, मधुस्नानं समर्पयामि।
(पुनः जल स्नान करायें।)

शर्करास्नान –

ॐ अपा ँ रसमुद्वयस Ü सूर्ये सन्त ँ समाहितम्।
अपा Ủ रसस्य यो रसस्तं वो गृह्णाम्युत्तममुपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा जुष्टं गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम्।।
इक्षुरससमुद्भूतां शर्करां पुष्टिदां शुभाम्।
मलापहारिकां दिव्यां स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, शर्करास्नानं समर्पयामि।
(पुनः जल स्नान करायें।)

पञ्चामृतस्नान –

ॐ पञ्चनद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सश्रोतसः।
सरस्वती तु पञ्चधा सोदेशेऽभवत्सरित्।।
पञ्चामृतं मयानीतं पयो दधि घृतं मधु।
शर्करया समायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, पञ्चामृतस्नानं समर्पयामि।

शुद्धोदकस्नान-

ॐ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो मणिवालस्तऽआश्विनाः श्येतः श्येताक्षोऽरुणस्ते रुद्राय पशुपतये कर्णायामा अवलिप्तारौद्रा नभोरूपाः पार्जन्याः।।
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धुकावेरि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, शुद्धोकस्नानं समर्पयामि। “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”

आचमन –

शुद्धोकदकस्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
(आचमन के लिए जल दें।)

वस्त्र-

ॐ युवा सुवासाः परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः।
तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो3 मनसा देवयन्तः।।
शीतवातोष्णसंत्राणं लज्जाया रक्षणं परम्।
देहालङ्करणं वस्त्रामतः शान्तिं प्रयच्छ मे।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, वस्त्रां समर्पयामि।
वस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
वस्त्र के बाद आचमन के लिए जल दे।

उपवस्त्र-

ॐ सुजातो ज्योतिषा सह शर्म वरूथमाऽसदत्स्वः।
वासो अग्ने विश्वरूप ँ सं व्ययस्व विभावसो।।
यस्याभावेन शास्त्रोक्तं कर्म किञ्चिन्न सिध्यति।
उपवस्त्रं प्रयच्छामि सर्वकर्मापकारकम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, उपवस्त्रं समर्पयामि।
उपवस्त्र न हो तो रक्त सूत्र अर्पित करे।

आचमन – उपवस्त्र के बाद आचमन के लिये जल दें।

यज्ञोपवीत –

ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रां प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीततेनोपनह्यामि।
नवभिस्तन्तुभिर्युक्तं त्रिगुणं देवतामयम्।
उपवीतं मया दत्तं गृहाण परमेश्वर !।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, यज्ञोपवीतं समर्पयामि।

आचमन –

यज्ञोपवीत के बाद आचमन के लिये जल दें।

चन्दन –

ॐ त्वां गन्धर्वा अखनँस्त्वामिन्द्रस्त्वां बृहस्पतिः।
त्वामोषधे सोमो राजा विद्वान् यक्ष्मादमुच्यत।।
श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यं गंधाढ्यं सुमनोहरम्।
विलेपनं सुरश्रेष्ठ ! चन्दनं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, चन्दनानुलेपनं समर्पयामि।

अक्षत –

ॐ अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत।
अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजान्विन्द्र ते हरी।।
अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कुङ्कुमाक्ताः सुशोभिताः।
मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वर।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, अक्षतान् समर्पयामि।

पुष्पमाला –

ॐ ओषधीः प्रति मोदध्वं पुष्पवतीः प्रसूवरीः।
अश्वा इव सजित्वरीर्वीरुधः पारयिष्णवः।।
माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो।
मयाहृतानि पुष्पाणि पूजार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, पुष्पमालां समर्पयामि। “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”

दूर्वा –

ॐ काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि।
एवा नो दूर्वे प्रतनुसहश्रेण शतेन च।।
दूर्वाङ्कुरान् सुहरितानमृतान् मङ्गलप्रदान्।
आनीतांस्तव पूजार्थं गृहाण गणनायक !।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, दूर्वाङ्कुरान् समर्पयामि।

सिन्दूर-

ॐ सिन्धोरिव प्राध्वने शूघनासो वातप्रमियः पतयन्ति यह्वाः।
घृतस्य धारा अरुषो न वाजी काष्ठा भिन्दन्नूर्मिभिः पिन्वमानः।।
सिन्दूरं शोभनं रक्तं सौभाग्यं सुखवर्धनम्।
शुभदं कामदं चैव सिन्दूरं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, सिन्दूरं समर्पयामि।

अबीर गुलाल आदि नाना परिमल द्रव्य-

ॐ अहिरिव भोगैः पर्येति बाहुं ज्याया हेतिं परिबाधमानः।
हस्तघ्नो विश्वा वयुनानि विद्वान् पुमान् पुमा ँ सं परि पातु विश्वतः।।
अबीरं च गुलालं च हरिद्रादिसमन्वितम्।
नाना परिमलं द्रव्यं गृहाण परमेश्वर!।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, नानापरिमलद्रव्याणि समर्पयामि।

सुगन्धिद्रव्य-

ॐ अहिरिव0 इस पूर्वोक्त मंत्र से चढ़ाये
ॐ अहिरिव भोगैः पर्येति बाहुं ज्याया हेतिं परिबाधमानः।
हस्तघ्नो विश्वा वयुनानि विद्वान् पुमान् पुमा ँ सं परि पातु विश्वतः।।
दिव्यगन्धसमायुक्तं महापरिमलाद्भुतम्।
गन्धद्रव्यमिदं भक्त्या दत्तं वै परिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, सुगन्धिद्रव्यं समर्पयामि।

धूप-

ॐ धूरसि धूर्व्व धूर्व्वन्तं धूर्व्वतं योऽस्मान् धूर्व्वति तं धूर्व्वयं वयं धूर्व्वामः।
देवानामसि वद्दितम ँ सस्नितमं पप्रितमं जुष्टतमं देवहूतमम्।।
वनस्पतिरसोद्भूतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः।
आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, धूपमाघ्रापयामि।

दीप-
ॐ अग्निर्ज्योतिज्योतिरग्निः स्वाहा सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।
अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च स्वाहा।।
ज्योर्ति सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।।
साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वद्दिना योजितं मया।
दीपं गृहाण देवेश त्रौलौक्यतिमिरापहम्।।
भक्त्या दीपं प्रयच्छामि देवाय परमात्मने।
त्राहि मां निरयाद् घोराद् दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, दीपं दर्शयामि।

सरल पूजन विधि मंत्र प्रार्थना सहित Poojan vidhi mantra sahit

हस्तप्रक्षालन –

‘ॐ हृषीकेशाय नमः’ कहकर हाथ धो ले।

नैवेद्य-

सरल पूजन विधि मंत्र प्रार्थना सहित Poojan vidhi mantra sahit
सरल पूजन विधि मंत्र प्रार्थना सहित Poojan vidhi mantra sahit

पुष्प चढ़ाकर बायीं हाथ से पूजित घण्टा बजाते हुए।
ॐ नाभ्या आसीदन्तरिक्ष Ủ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्राँत्तथा लोकाँ2 अकल्पयन्।।
ॐ प्राणाय स्वाहा। ॐ अपानाय स्वाहा। ॐ समानाय स्वाहा।
ॐ उदानाय स्वाहा। ॐ व्यानाय स्वाहा।
शर्कराखण्डखाद्यानि दधिक्षीरघृतानि च।
आहारं भक्ष्यभोज्यं च नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, नैवेद्यं निवेदयामि।
नैवेद्यान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

सरल पूजन विधि मंत्र प्रार्थना सहित Poojan vidhi mantra sahit

ऋतुफल –

ॐ याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः।
बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्व ँ हसः।।
इदं फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव।
तेन मे सफलावाप्तिर्भवेज्जन्मनि जन्मनि।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, ऋतुफलानि समर्पयामि। “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”

जल-

फलान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
जल अर्पित करे।
ॐ मध्ये-मध्ये पानीयं समर्पयामि। उत्तरापोशनं समर्पयामि हस्तप्रक्षालनं समर्पयामि मुखप्रक्षालनं समर्पयामि।

करोद्वर्तन-

ॐ अ ँ शुना ते अ ँ शुः पृच्यतां परुषा परुः।
गन्धस्ते सोममवतु मदाय रसो अच्युतः।।
चन्दनं मलयोद्भुतं कस्तूर्यादिसमन्वितम्।
करोद्वर्तनकं देव गृहाण परमेश्वर।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, करोद्वर्तनकं चन्दनं समर्पयामि।

ताम्बूल –

ॐ यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः।।
पूगीफलं महद्दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम्।
एलादिचूर्णसंयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, मुखवासार्थम् एलालवंगपूगीफलसहितं ताम्बूलं समर्पयामि।
(इलायची, लौंग-सुपारी के साथ ताम्बूल अर्पित करे।)

दक्षिणा-

ॐ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।
हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः।
अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, कृतायाः पूजायाः साद्गुण्यार्थे द्रव्यदक्षिणां समर्पयामि। (द्रव्य दक्षिणा समर्पित करे।)

विशेषार्घ्य-

ताम्रपात्र में जल, चन्दन, अक्षत, फल, फूल, दूर्वा और दक्षिणा रखकर अर्घ्यपात्र को हाथ में लेकर निम्नलिखित मन्त्र पढ़ेंः-
ॐ रक्ष रक्ष गणाध्यक्ष रक्ष त्रौलोक्यरक्षक।
भक्तानामभयं कर्ता त्राता भव भवार्णवात्।।
द्वैमातुर कृपासिन्धो षाण्मातुराग्रज प्रभो!।
वरदस्त्वं वरं देहि वाञ्िछतं वाञ्छितार्थद।।
गृहाणाघ्र्यमिमं देव सर्वदेवनमस्कृतम्।
अनेन सफलाघ्र्येण फलदोऽस्तु सदा मम।  “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”

आरती-

ॐ इद ँ हविः प्रजननं मे अस्तु दशवीर ँ सर्वगण ँ स्वस्तये।
आत्मसनि प्रजासनि पशुसनि लोकसन्यभयसनि।
अग्निः प्रजां बहुलां मे करोत्वन्नं पयो रेतो अस्मासु धत्त।।
ॐ आ रात्रि पार्थिव ँ रजः पितुरप्रायि धामभिः।
दिवः सदा ँ सि बृहती वि तिष्ठस आ त्वेषं वर्तते तमः।।
कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं तु प्रदीपितम्।
आरार्तिकमहं कुर्वे पश्य मे वरदो भव।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, अरार्तिकं समर्पयामि।
(कर्पूर की आरती करें, आरती के बाद जल गिरा दें।)

मन्त्र पुष्पांजलि-

अंजली में पुष्प लेकर खड़े हो जायें।
ॐ मालतीमल्लिकाजाती- शतपत्रादिसंयुताम्।
पुष्पांजलिं गृहाणेश तव पादयुगार्पितम्।।
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्रा पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।
नानासुगन्धिपुष्पाणि यथाकालोद्भवानि च।
पुष्पाञ्जलिर्मया दत्तं गृहाण परमेश्वर।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, पुष्पाञ्जलिं समर्पयामि। (पुष्पाञ्जलि अर्पित करे।)

प्रदक्षिणा –

सरल पूजन विधि मंत्र प्रार्थना सहित Poojan vidhi mantra sahit
सरल पूजन विधि मंत्र प्रार्थना सहित Poojan vidhi mantra sahit

ॐ ये तीर्थानि प्रचरन्ति सृकाहस्ता निषङ्गिणः।
तेषा ँ सहस्रयोजनेऽव धन्वानि तन्मसि।
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च।
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, प्रदक्षिणां समर्पयामि।
(प्रदक्षिणा करे।)

प्रार्थना।।

विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय।
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते।।
लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकप्रिय। निर्विविघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।
अनया पूजया सिद्धि-बुद्धि-सहितः श्रीमहागणपतिः साङ्गः परिवारः प्रीयताम्।। श्रीविघ्नराजप्रसादात्कर्तव्यामुककर्मनिर्विघ्नसमाप्तिश्चास्तु।

पूजा पाठ करने वाले दु:खी क्यों होते हैं

ज्यादा पूजा पाठ करने वाला व्यक्ति ही सबसे ज्यादा दुखी क्यों है। इसका उत्तर तो मैं नहीं जानता। लेकिन मेरा मानना है, कि ज्यादा पूजा पाठ करने वाला व्यक्ति अपने दुखों का कारण स्वयं होता है। क्योंकि बिना कर्म किए किए ही फल प्राप्ति की इच्छा रखने लगता है, जो कि कभी मिलने वाला नहीं है। क्योंकि बिना कर्म किए फल प्राप्त नहीं होता है। “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”

इसलिए वह व्यक्ति कर्म तो करता नहीं है लेकिन भगवान की भक्ति में लीन रहने की बात करता है और कहता है कि मैं भगवान कहां बहुत बड़ा भक्त हूं लेकिन असल में वह भक्त नहीं लोभी होता है जो भक्ति की आड़ में अपने स्वार्थ को पूरा करने की लालसा रखें हुए रहता है

इसलिए वह व्यक्ति कर्म करने से भागता है। और बिना कर्म किए हुए, फल प्राप्त हो जाए ऐसा हो नहीं सकता।


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सरल पूजन विधि मंत्र प्रार्थना सहित Poojan vidhi mantra sahit  MantraKavach.com 

श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

 

श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित | Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित 
श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित, Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

सामग्री           मात्रा
रोली 20 ग्राम
पीला सिंदूर 20 ग्राम
पीला अष्टगंध चंदन 20 ग्राम
लाल चन्दन 10 ग्राम
सफेद चंदन 10 ग्राम
लाल सिंदूर 10 ग्राम
हल्दी (पिसी) 50 ग्राम
हल्दी (समूची) 50 ग्राम
सुपाड़ी (समूची बड़ी) 200 ग्राम
लौंग 20 ग्राम
इलायची 20 ग्राम
सर्वौषधि 1 डिब्बी
सप्तमृत्तिका 1 डिब्बी
सप्तधान्य 100 ग्राम
पीली सरसों 100 ग्राम
जनेऊ 21 पीस
इत्र बड़ी 1 शीशी
गरी का गोला (सूखा) 9 पीस
पानी वाला नारियल 1 पीस
अक्षत (चावल) 15 किलो
धूपबत्ती 2 पैकेट
रुई की बत्ती (गोल / लंबी) 2-2 पैकेट
देशी घी 2 किलो
सरसों का तेल 2 किलो
चमेली का तेल 100 ग्राम
कपूर 50 ग्राम
कलावा 10 पीस
चुनरी (लाल / पीली) 1/1 पीस
बताशा 500 ग्राम
लाल रंग 5 ग्राम
पीला रंग 5 ग्राम
काला रंग 5 ग्राम
नारंगी रंग 5 ग्राम
हरा रंग 5 ग्राम
बैंगनी रंग 5 ग्राम
अबीर गुलाल (लाल, पीला, हरा, गुलाबी) अलग-अलग 10-10 ग्राम
बुक्का (अभ्रक) 10 ग्राम
भस्म 100 ग्राम
गंगाजल 1 शीशी
गुलाब जल 1 शीशी
लाल वस्त्र 5 मीटर
पीला वस्त्र 8 मीटर
सफेद वस्त्र 5 मीटर
हरा वस्त्र 2 मीटर
नीला वस्त्र 2 मीटर
झंडा हनुमान जी का 1 पीस
चांदी का सिक्का 2 पीस
कुश (पवित्री) 4 पीस
लकड़ी की चौकी 7 पीस
पाटा 8 पीस
रुद्राक्ष की माला 1 पीस
तुलसी की माला 1 पीस
दोना (छोटा – बड़ा) 1-1 पीस
मिट्टी का कलश (बड़ा) 11 पीस
मिट्टी का प्याला 21 पीस
मिट्टी की दियाली 21 पीस
माचिस 2 पीस
हवन सामग्री 5 किलो
आम की लकड़ी (समिधा) 10 किलो
नवग्रह समिधा 1 पैकेट
तिल 500 ग्राम
जौ 500 ग्राम
गुड़ 500 ग्राम
कमलगट्टा 200 ग्राम
गुग्गुल 100 ग्राम
धूप लकड़ी 100 ग्राम
सुगंध बाला 50 ग्राम
सुगंध कोकिला 50 ग्राम
नागरमोथा 50 ग्राम
जटामांसी 50 ग्राम
अगर-तगर 100 ग्राम
इंद्र जौ 50 ग्राम
बेलगुदा 100 ग्राम
सतावर 50 ग्राम
गुर्च 50 ग्राम
जावित्री 25 ग्राम
भोजपत्र 1 पैकेट
कस्तूरी 1 डिब्बी
केसर 1 डिब्बी
काला उड़द 250 ग्राम
मूंग दाल का पापड़ 1 पैकेट
शहद 100 ग्राम
पंचमेवा 200 ग्राम
पंचरत्न व पंचधातु 1 डिब्बी
धोती (पीली /लाल) 2 पीस
अगोंछा (पीला /लाल) 2 पीस
सुहाग सामग्री – साड़ी, बिंदी, सिंदूर, चूड़ी, आलता, नाक की कील, पायल, इत्यादि
काली मटकी (नजर वाली हाँड़ी)
1 चाँदी की गाय बछड़ा समेत

मिष्ठान 1 किलो

श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित 
श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित

पान के पत्ते (समूचे) 21 पीस
आम के पत्ते 2 डंठल
ऋतु फल 5 प्रकार के
दूब घास 100 ग्राम
शमी की पत्ती 10 ग्राम
कमल का फूल 11 पीस
फूल,हार लड़ी (गुलाब) की 5 मीटर
फूल, हार लड़ी (गेंदे) की 7 मीटर
गुलाब का खुला हुआ फूल 1 किलो
गेंदा का खुला हुआ फूल 1 किलो
तुलसी का पौधा 1 पीस
तुलसी की पत्ती 5 पीस
दूध 1 लीटर
दही 1 किलो

गणेश जी की मूर्ति 1 पीस
लक्ष्मी जी की मूर्ति 1 पीस
राम दरबार की प्रतिमा 1 पीस
कृष्ण दरबार की प्रतिमा 1 पीस
हनुमान जी महाराज की प्रतिमा 1 पीस
दुर्गा माता की प्रतिमा 1 पीस
शिव शंकर भगवान की प्रतिमा 1 पीस || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||

आटा 100 ग्राम
चीनी 500 ग्राम
अखंड दीपक (ढक्कन समेत) 1 पीस
तांबे/पीतल का कलश (ढक्कन समेत) 1 पीस
थाली 7 पीस
लोटे 4 पीस
गिलास 9 पीस
कटोरी 9 पीस
चम्मच 2 पीस
परात 4 पीस
कैंची /चाकू (लड़ी काटने हेतु ) 1 पीस
हनुमंत ध्वजा हेतु बांस (छोटा/ बड़ा) 1 पीस
जल के लिए बाल्टी 2 पीस
जल (पूजन हेतु)
गाय का गोबर
मिट्टी
बिछाने का आसन

चुनरी 1 पीस
अंगोछा 1 पीस
पूजा में रखने हेतु सिंदौरा 1 पीस

नित्य प्रसाद भिन्न-भिन्न

धोती
कुर्ता
अंगोछा
पंच पात्र
माला इत्यादि

वस्त्र की व्यवस्थता पृथक दिन के अनुसार व्यवस्था करें
दो पगड़ी अलग – अलग कलर में एक पगड़ी कृष्ण जन्म में दूसरी रुक्मणि विवाह के लिए
कृष्ण जन्म वाले दिन के लिए लड्डू गोपाल के लिए पोशाक एवं सम्पूर्ण परिधान मुकुट वंशी आदि अगर संभव बन पाये व्यास जी के लिए स्वर्ण मुद्रिका अवश्य लाये |
रुक्मणि के विवाह के लिए सुन्दर वस्त्र चढ़ाये , जैसे धोती- कुर्ता साडी तथा कोई आभूषण अवश्य लाये |
कृष्ण जन्म में दिव्य सजावट एवं भोग में माखन मिश्री तथा पञ्चामृत का निर्माण |
विभिन्न प्रकार के खिलोने , टॉफ़िया , बिस्कुट आदि |
रुक्मणि विवाह में पैर पूजने हेतु परिवार में सभी को शामिल होना चाहिये , वस्त्र -पात्र – आभूषण आदि श्रद्धानुसार अर्पित करे |
इसके अतिरिक्त पाँचवे दिन गोवर्धन पूजा में छप्पन भोग की तैयारी , खीर , हलवा ,पूरी , कढ़ी – चावल आदि घर में निर्माण करवाए ,व अन्य पकवान बाज़ार से मँगवा सकते है | विशेष :- विश्राम दिवस में पोथी पूजन होता है उस दिन विदाई निर्मित जो आपको विशेष दक्षिणा, विशेष वस्त्र, विशेष गिफ्ट, अर्थांत कुछ विशेष भेट करना होता है जो आप अपनी सामर्थ्य और श्रद्धानुसार पंडित जी समर्पण कर सकते हो | || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित || Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

ब्रह्म पूर्णपात्र व्यवस्था

“ब्रह्मपूर्णपात्र ” की व्यवस्था आपकी मनोकामना पूर्ण हेतु की जाती है अत इसलिए :-
“ब्रह्म पूर्णपात्र ” एक बड़ा पात्र दक्कन सहित जिसमे सात किलो चावल भर जाये |
सात किलो चावल जो चावल खंडित बिलकुल न हो ,संभव हो तो बासमती चावल की व्यवस्था करे | Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

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नोट :- अगर छेत्रपाल बलि निकालने की व्यवस्थता हो तो पंडित के निर्देशनुसार सामग्री की व्यवस्थता सुनश्चित करे |
श्रीमद् भागवत महापुराण का महत्व
श्रीमद् भागवत महापुराण हिन्दू धर्म के महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है और इसका महत्व अत्यंत महान् है। यह पुराण महाभारत के महाभागवत ध्यान पर आधारित है और श्रीकृष्ण के अवतार, उनकी लीलाएं, उपदेश और महिमा को संकलित करता है।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
ईश्वर के अवतार की महिमा
यह पुराण भगवान श्रीकृष्ण के अवतार की महिमा, बाललीला, किशोरलीला और महारासलीला आदि का वर्णन करता है। इसके माध्यम से लोग भगवान की महिमा का अनुभव करते हैं और उनके प्रति भक्ति एवं समर्पण विकसित होता है।

भक्ति का मार्ग
श्रीमद् भागवत महापुराण भक्ति और साधना का मार्ग प्रदर्शित करता है। इसके अनुसार, भगवान के नाम का जाप, कीर्तन, सत्संग, श्रवण, स्मरण, वंदन आदि भक्ति के आठ रसों में से अधिक महत्वपूर्ण हैं। || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित || Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

धर्म और नैतिकता

श्रीमद् भागवत महापुराण में जीवन के नैतिक मूल्यों का विस्तारपूर्वक वर्णन होता है। यह ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, त्याग, दया, सेवा, धर्म, अर्पण, सत्कर्म आदि को प्रमाणित करता है। समाज सेवा: इस पुराण में लोगों को समाज सेवा, दान-धर्म, गौसेवा, परमेश्वर की प्रतिमा के प्रति सम्मान आदि के महत्व के बारे में जागरूक किया जाता है।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित 
श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित, Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

मोक्ष का साधना

श्रीमद् भागवत महापुराण में मोक्ष की प्राप्ति के लिए उपायों का वर्णन किया गया है। यह मोक्ष के साधन भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सेवा, समर्पण आदि की महिमा को बताता है और व्यक्ति को उच्चतर आदर्शों की ओर प्रेरित करता है। इस प्रकार, श्रीमद् भागवत महापुराण आपके जीवन में स्वर्ग के दरवाजे खोलने का काम करती है

श्रीमद् भागवत महापुराण का लाभ

श्रीमद् भागवत महापुराण भक्ति और प्रेम के विकास को प्रोत्साहित करता है। इसे पढ़ने और सुनने से मानसिक शांति, आनंद और संतुष्टि की अनुभूति होती है। यह मन को शुद्ध करके उच्च स्तर की आध्यात्मिक अनुभव के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है। || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित || Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

श्रीमद् भागवत महापुराण में विद्या, ज्ञान और दर्शन के महत्वपूर्ण सिद्धांत सम्मिलित होते हैं। इसे पढ़ने से आप अपने पाठकों को आध्यात्मिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ज्ञान का आदान कर सकते हैं। श्रीमद् भागवत महापुराण में धार्मिक तत्त्वों, मौलिक सिद्धांतों, नैतिक मूल्यों, कर्म के सिद्धांतों, धार्मिक नियमों और जीवन के उद्देश्य के बारे में व्यापक ज्ञान मिलता है। इसे अपने ब्लॉग में समाविष्ट करके आप अपने पाठकों को धार्मिकता के महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में समझ सकते हैं। श्रीकृष्ण के चरित्र और उनकी उपासना से इस पुराण में आदर्श व्यक्तित्व के मार्गदर्शन के उदाहरण मिलते हैं। आप अपने ब्लॉग के माध्यम से अपने पाठकों को सच्चे मानवीय गुणों, दया, करुणा, धैर्य, और साधारण जीवन के नियमों के प्रेरणास्रोत प्रदान कर सकते हैं।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

निष्कर्ष

MantraKavach.com से आप घर बैठे श्रीमद् भागवत महापुराण का आयोजन करवाने के लिए हमारी ऑनलाइन पंडित सेवा द्वारा अपना पंडित बुक करवा सकते हो, इसके अतिरिक्त आप रामकथा पाठ, सुन्दरकांड पाठ, ग्रहप्रवेश, आदि धार्मिक अनुष्ठान के आयोजन हेतु भी अपना पंडित ऑनलाइन बुक कर सकते है |  MantraKavach.com द्वारा श्रीमद् भागवत महापुराण पूजन सामग्री हेतु दी गयी जानकारी आपके कथा – पूजन में उपयोगी साबित होगी, ऐसी हम कामना करते है | || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित || Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

Q.भगवान श्रीकृष्ण के जीवन के महत्वपूर्ण पहलू क्या हैं?
A.भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में कई महत्वपूर्ण पहलू हैं। वे योगेश्वर हैं, अर्जुन को भगवद् गीता का उपदेश देने के माध्यम से मानवता के लिए ज्ञान का संदेश देते हैं। उनकी बाललीलाएं और गोपियों के संग वास उनके भक्तों के लिए प्रेम और भक्ति का प्रतीक है। उनकी लीलाएं, मक्के की छोड़ी और वृंदावन में किए गए आनंदमय खेल उनके भक्तों को परम आनंद का अनुभव कराते हैं।

Q.श्रीमद् भागवत पुराण में कितने अध्याय हैं और उनका संक्षेपिक सारांश क्या है?
A.श्रीमद् भागवत पुराण में कुल 12 स्कंध (अध्याय) हैं। यहां उनका संक्षेपिक सारांश दिया जा रहा है:
प्रथम स्कंध: भगवान के अवतारों की कथाएं, सृष्टि का वर्णन
द्वितीय स्कंध: कृष्ण की बाललीलाएं, गोपियों का प्रेम
तृतीय स्कंध: ब्रह्माजी के प्रश्नों का उत्तर, उद्धव गीता
चतुर्थ स्कंध: पृथु राजा का उद्धव से संवाद
पांचवा स्कंध: प्रह्लाद कथा, हिरण्यकशिपु के वध का वर्णन
छठा स्कंध: गजेंद्र मोक्ष, भगवान के महिमा गान का वर्णन
सातवा स्कंध: प्रह्लाद और हिरण्यकशिपु के संवाद
आठवा स्कंध: गोपीयों का प्रेम, रासलीला का वर्णन
नवम स्कंध: कृष्ण के बचपन का वर्णन, वासुदेव और देवकी के जीवन की कथा
दशम स्कंध: कृष्ण और बालराम के युद्ध, भगवान के जीवन की कथा
एकादश स्कंध: कृष्ण के वृंदावन के विहार, गोपियों का प्रेम
द्वादश स्कंध: भगवान के वनवास, शुकदेव जी का प्रवचन
त्रयोदश स्कंध: भगवान का प्रयोग, प्रबुद्ध जीवों का उद्धार || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

Q.श्रीमद् भागवत पुराण में वर्णित भक्ति और धर्म के सिद्धांत क्या हैं?
A.श्रीमद् भागवत पुराण में भक्ति और धर्म के सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन है। इस पुराण में बताया जाता है कि श्रीकृष्ण भगवान को भक्ति और प्रेम की प्राथमिकता देनी चाहिए। धर्म के सिद्धांतों में नैतिकता, सच्चाई, अहिंसा, सेवा, ध्यान, स्वाध्याय, तपस्या, वैराग्य, समर्पण आदि को महत्व दिया जाता है। इसके अलावा, पुराण में ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, कर्म और मोक्ष के मार्ग पर विचार किया जाता है।

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श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित 
श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित, Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

श्रीमद्भागवत पूजन विधि-

वक्ता प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व ही स्नानादि करके संक्षेप से सन्ध्या-वन्दनादि का नियम पूरा कर ले
और कथा में कोई विघ्न न आये, इसके लिये नित्यप्रति गणेशजी का पूजन कर लिया करें ।
सप्ताह के प्रथम दिन यजमान स्नान आदि से शुद्ध हो नित्यकर्म करके आभ्युदयिक श्राद्ध करे ।
आभ्युदयिक श्राद्ध और पहले भी किया जा सकता है ।

यज्ञ में इक्कीस दिन पहले भी आभ्युदयिक श्राद्ध करने का विधान है ।

उसके बाद गणेश, ब्रह्मा आदि देवताओं सहित नवग्रह, षोडश मातृका, सप्त चिरजीवी (अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य तथा परशुरामजी) Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

एवं कलश की स्थापना तथा पूजा करे । एक चौकी पर सर्वतोभद्र-मण्डल बनाकर उसके मध्यभाग में ताम्रकलश स्थापित करे । कलश के ऊपर भगवान् लक्ष्मी-नारायण की स्वर्णमयी प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||

कलश के ही बगल में भगवान् शालिग्राम का सिंहासन विराजमान कर देना चाहिये ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

सर्वतोभद्र-मण्डल में स्थित समस्त देवताओं का पूजन करने के पश्चात् भगवान् नरनारायण, गुरु, वायु, सरस्वती, शेष, सनकादि कुमार, सांख्यायन, पराशर, बृहस्पति, मैत्रेय तथा उद्धव का भी आवाहन, स्थापन एवं पूजन करना चाहिये ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

फिर त्रय्यारुणि आदि छः पौराणिक का भी स्थापन-पूजन करके एक अलग पीठ पर उसे सुन्दर वस्त्र से आवृत करके, श्रीनारदजी की स्थापना एवं अर्चना करनी चाहिये । तदनन्तर आधारपीठ, पुस्तक एवं व्यास (वक्ता आचार्य) का भी यथाप्राप्त उपचारों से पूजन करना चाहिये ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

कथा निर्विघ्न पूर्ण हो इसके लिये गणेश-मन्त्र, द्वादशाक्षर-मन्त्र तथा गायत्री मन्त्र का जप और विष्णुसहस्रनाम एवं गीता का पाठ करने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार सात, पाँच या तीन ब्राह्मणों का वरण करे ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

श्रीमद्भागवत का भी एक पाठ अलग ब्राह्मण द्वारा कराये ।

कथामण्डप में चारों दिशाओं या कोणों में एक-एक कलश और मध्यभाग में एक कलश—इस प्रकार पाँच कलश स्थापित करने चाहिये ।

चारों ओर के चार कलशों में से पूर्व के कलश पर ऋग्वेद की, दक्षिण कलश पर यजुर्वेद की, पश्चिम कलश पर सामवेद की और उत्तर कलश पर अथर्ववेद की स्थापना एवं पूजा करनी चाहिये ।

कोई-कोई मध्य में सर्वतोभद्र-मण्डल के मध्यभाग में एक ही ताम्र-कलश स्थापित करके उसी के चारों दिशाओं में सर्वतोभद्र-मण्डल की चौकी के चारों ओर चारों वेदों को स्थापना का विधान करते हैं । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||

इसी कलश के ऊपर भगवान् लक्ष्मी-नारायण की सुवर्णमयी प्रतिमा स्थापित करे और षोडशोपचार-विधि से उसकी पूजा करे ।

देवपूजा का क्रम प्रारम्भ से इस प्रकार रखना चाहिये —

|| श्रीमद्भागवत पूजन विधि ||

पहले रक्षादीप प्रज्वलित करे । एक पात्र में घी भरकर रूई की फूलबत्ती जलाये और उसे सुरक्षित स्थान पर अक्षत के ऊपर स्थापित कर दे । वह वायु आदि के झोंके से बुझ न जाय, इसकी सावधानी के साथ व्यवस्था करे । पहले भगवत्सम्बन्धी स्तोत्रों एवं पदों के द्वारा मङ्गलाचरण और वन्दना करे। इसके बाद आचमन और प्राणायाम करें।

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिररैरङ्गैस्तुष्टुवा ঌ सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।।

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इत्यादि मन्त्रों से शान्तिपाठ करे। देवताओं की स्थापना और पूजा के पहले स्वस्तिवाचन पूर्वक हाथ में पवित्री, अक्षत, फूल, जल और द्रव्य लेकर एक महासङ्कल्प कर लेना चाहिये । सङ्कल्प इस प्रकार है —

ॐ तत्सद्य श्रीमहाभगवतो विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते विष्णुप्रजापतिक्षेत्रे वैवस्वतमनुभोग्यैकसप्ततियुगचतुष्टयान्तगताष्टाविंशतितमकलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे अमुकसंवत्सरे अमुकायने अमुककर्तौ अमुकराशिस्थिते भगवति सवितरि अमुकामुकराशिस्थितेषु चान्येषु ग्रहेषु महामाङ्गल्यप्रदे मासानामुत्तमे अमुकमासे अमुकपक्ष अमुकवासरे अमुकनक्षत्रे अमुकमुहूर्तकरणादियुतायाम् अमुकतिथौ अमुकगोत्रेः अमुकप्रवरः अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्तः) अहं पूर्वातीतानेकजन्मसंचिताखिलदुष्कृतनिवृत्तिपुरस्सरैहिकाध्यात्मिकादिविविधतापपापापनोदार्थं दशाश्वमेधयज्ञजन्यसम्यगिष्टराजसूययज्ञसहस्रपुण्यसमपुण्यचन्द्रसूर्यग्रहणकालिकबहुब्राह्मणसम्प्रदानकसर्वसस्यपूर्णसर्वरत्नोपशोभितमहींदानपुण्यप्राप्तये श्रीगोविन्दचरणारविन्दयुगले निरन्तरमुत्तरोत्तरमेधमाननिस्सीमप्रेमोपलब्धये तदीयपरमानन्दमयोलोकधाम्नि नित्यनिवासपुर्वकतत्परिचर्यारसास्वादनसौभाग्यसिद्धये च अमुकगोत्रामुकप्रवरामुकशर्मब्राह्मणवदनारविन्दाच्छ्रीकृष्णवाङ्मयमूर्तीभूतं श्रीमद्भागवतमष्टादशपुराणप्रकृतिभूतमनेक श्रोतृश्रवणपूर्वकममुकदिनादारभ्यामुकदिनपर्यन्तं सप्ताह यज्ञरूपतया श्रोष्यामि प्राप्स्यमानेऽस्मिन् सप्ताहयज्ञे विघ्नपूगनिवारणपूर्वकं यज्ञरक्षाकरणार्थं गणपतिब्रह्मादिसहितनवग्रहषोडशमातृकासप्तचिरजीविपुरुषसर्वतोभद्रमण्डलस्थदेवकलशाद्यर्चनपुरस्सरं श्रीलक्ष्मीनारायणप्रतिमाशालग्रामनरनारायणगुरुवायुसरस्वतीशेषसनत्कुमारसांख्यायनपराशरबृहस्पतिमैत्रेयोद्धवत्रय्यारुणिकश्यपरामशिष्याकृतव्रणवैशम्पायनहारीतनारदपूजनमाधारपीठपुस्तकव्यासपूजनं च यथालब्धोपचारैः करिष्ये ।

सङ्कल्प के पश्चात् पूर्वोक्त देवताओं के चित्रपट में अथवा अक्षत-पुंज पर उनका आवाहन-स्थापन करके वैदिक-पूजा-पद्धति (सनातन)के अनुसार उन सबकी पूजा करनी चाहिये । सप्तचिरजीवि पुरुषों तथा सनत्कुमार आदि का पूजन नाम-मन्त्र द्वारा करना चाहिये । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||

उसके बाद एक पात्र में चावल भरकर उस पर मौली में लपेटी हुई एक हल्दी- सुपारी रख दे और उसमें गौरी-गणेशजी का आवाहन करे —

ॐ भूर्भुवः स्वः गौरी-गणपते इहागच्छ इह तिष्ठ मम पूजां गृहाण ।’

इस प्रकार आवाहन करके ‘गणानां त्वा०’ इत्यादि मन्त्रों को पढ़े ।

फिर ‘गजाननं भूत०’ इत्यादि श्लोकों को पढ़ते हुए तद्नुरूप ध्यान करे ।

‘ॐ मनो जूतिः०’ इत्यादि मन्त्र से प्रतिष्ठा करके विभिन्न उपचार-समर्पण सम्बन्धी मन्त्र पढ़ते हुए अथवा

‘श्रीगौर्यै नमः’, ‘श्रीगणपतये नमः’ इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए गौरी-गणेशजी को क्रमशः पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, स्नानीय, पुनराचमनीय, पञ्चामृत-स्नान, शुद्धोदकस्नान, वस्त्र, रक्षासूत्र, यज्ञोपवीत, चन्दन, रोली, सिन्दूर, अबीर-गुलाल, अक्षत, फूल, माला, दूर्वादल, आभूषण, सुगन्ध (इत्र का फाहा), धूप, दीप, नैवेद्य (मिष्टान्न एवं गुड़, मेवा आदि) तथा ऋतुफल अर्पण करे ।

गङ्गाजल से आचमन कराकर मुखशुद्धि के लिये सुपारी, लवंग, इलायची और कपूर सहित ताम्बूल अर्पण करे ।

अन्त में दक्षिणा-द्रव्य एवं विशेषार्घ्य, प्रदक्षिणा एवं साष्टाङ्ग प्रणाम निवेदन करके प्रार्थना करे —

ॐ लम्बोदरं परमसुन्दरमेकदन्तं रक्ताम्बरं त्रिनयनं परमं पवित्रम् ।

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उद्यद्दिवाकरकरोज्ज्वलकायकान्तं विघ्नेश्वरं सकलविघ्नहरं नमामि ।।

त्वां देव विघ्नदलनेति च सुन्दरेति भक्तप्रियेति सुखदेति फलप्रदेति ।

विद्याप्रदेत्यघहरेति च ये स्तुवन्ति तेभ्यो गणेश वरदो भव नित्यमेव ।।

— ‘अनया पूजया गौरी-गणपतिः प्रीयतां न मम ।’

यों कहकर गौरी-गणेशजी को पुष्पाञ्जलि दे ।

इसके बाद

‘ॐ भूर्भुवः स्वः भो ब्रह्मविष्णुशिवसहितसूर्यादिनवग्रहा इहागच्छतेह तिष्ठत मम पूजां गृह्णीत’

इस प्रकार या वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मादिसहित नवग्रहों का आवाहन करे ।

फिर पूर्ववत् उपचार मन्त्रों से अथवा

ॐ ब्रह्मणे नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ शिवाय नमः, ॐ सूर्याय नमः, ॐ चन्द्रमसे नमः, ॐ भौमाय नमः,

ॐ बुधाय नमः, ॐ बृहस्पतये नमः, ॐ भार्गवाय नमः, ॐ शनैश्चराय नमः, ॐ राहवे नमः, ॐ केतवे नमः

— इन नाम-मन्त्रों से पाद्य, अर्घ्य आदि सब उपचार समर्पण करके निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़कर प्रार्थना करे —

ॐ ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च ।

गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः सर्वे ग्रहाः शान्तिकरा भवन्तु ।।

— ‘अनया पूजया ब्रह्मविष्णुशिवसहितसूर्यादिनवग्रहाः प्रीयन्तां न मम ।’

यों कहकर पुष्पाञ्जलि चढ़ाये ।

तत्पश्चात्

‘ॐ भूर्भुवः स्वः भो गौर्यादिषोडशमातर इहागच्छत मम पूजां गृह्णीत’

इस प्रकार आवाहन करके नाम-मन्त्रों द्वारा पाद्य-अर्घ्य आदि षोडशोपचार सहित षोडशमातृका का पूजन करे।

तदनन्तर सप्तचिरजीवियों का पूजन करें-

‘भो अश्वत्थामादिसप्तचिरजीविन इहागत्य मम पूजां गृह्णीत’

इस प्रकार आवाहन करके पूर्ववत् नाममन्त्र से पूजा करे —

१ ॐ अश्वत्थाम्ने नमः । २ ॐ बलये नमः । ३ ॐ व्यासाय नमः । ४ ॐ हनुमते नमः ।

५ ॐ विभीषणाय नमः । ६ ॐ कृपाय नमः । ७ ॐ परशुरामाय नमः ।

पूजा के पश्चात् हाथ में फूल लेकर निम्नाङ्कित रूप से प्रार्थना करे —

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषणः ।

कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ।।

यजमानगृहे नित्यं सुखदाः सिद्धिदाः सदा ।।

— ‘अनया पूजया अश्वत्थामादिसप्तचिरजीविनः प्रीयन्तां न मम ।’

यह कहकर फूल चढ़ा दे । इसके अनन्तर सर्वतोभद्र-मण्डलस्थ देवताओं का आवाहन-पूजन (देवपूजापद्धतियों के अनुसार) करके मध्य में ताम्र-कलश स्थापित करे । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||

फिर उस कलश के

पूर्व भाग में ‘ॐ अग्निमीळे०’ इत्यादि मन्त्र से ऋग्वेद का,

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दक्षिण भाग में ‘ॐ इषे त्वोर्जत्वा०’ इत्यादि मन्त्र से यजुर्वेद का,

पश्चिम भाग में ‘ॐ अग्न आयाहि वीतये०‘ इत्यादि मन्त्र से सामवेद का

तथा ‘ॐ शन्नो देवी०’ इत्यादि मन्त्र से उत्तर भाग में अथर्ववेद का स्थापन करे ।

पाँच कलश हो तो पृथक्-पृथक् कलशों पर वेदों की स्थापना करनी चाहिये ।

इसके अनन्तर कलश में ‘ॐ गणानां त्वा०’ इत्यादि से गणेश का तथा ‘ॐ तत्त्वायामि०’ इत्यादि मन्त्र से वरुणदेवता का आवाहन करके इनका षोडशोपचार से पूजन करे । पूजन के पश्चात् ‘अनया पूजया वरुणाद्यावाहितदेवताः प्रीयन्ताम्’ कहकर फूल छोड़ दे । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||

तदनन्तर कलश के ऊपर सुवर्णमयी लक्ष्मीनारायणप्रतिमा का संस्कार करके स्थापित करे । पुरुषसूक्त के षोड्श मन्त्रों से षोडश-उपचार चढ़ाकर पूजन करे । साथ ही शालिग्रामजी की भी पूजा करे । पूजा के पश्चात् इस प्रकार भगवान् से प्रार्थना करे —

ब्रह्मसूत्रं करिष्यामि तवानुग्रहतो विभो ।

तन्निर्विघ्नं भवेद्देव रमानाथ क्षमस्व मे ।।

— ‘अनया पूजया लक्ष्मीसहितो भगवान्नारायणः प्रीयतां न मम ।’

यों कहकर पुष्पाञ्जलि चढ़ाये ।

ऐसा ही सर्वत्र करे इसके बाद

‘ॐ नरनारायणाभ्यां नमः’ इस मन्त्र से भगवान् नर-नारायण का आवाहन और पूजन करके इस प्रकार प्रार्थना करे —

यो मायया विरचितं निजमात्मनीदं खे रूपभेदमिव तत्प्रतिचक्षणाय ।

एतेन धर्मसदने ऋषिमूर्तिनाद्य प्रादुश्चकार पुरुषाय नमः परस्मै ।।

सोऽयं स्थितिव्यतिकरोपशमाय सृष्टान् सत्त्वेन नः सुरगणाननुमेयतत्त्वः ।

दृश्याददभ्रकरुणेन विलोकनेन यच्छ्रीनिकेतममलं क्षिपतारविन्दम् ।।

— ‘अनया पूजया भगवन्तौ नरनारायणौ प्रीयेतां न मम ।’

तत्पश्चात् वक्ता और श्रोताओं के सब विकारों को दूर करने के लिये वायुदेवता का आवाहन एवं पूजन करे —

‘ॐ वायवे सर्वकल्याणकत्रे नमः।’ इस मन्त्र से पाद्य आदि निवेदन करके निम्नाङ्कित रूप से प्रार्थना करे —

अन्तः प्रविश्य भूतानि यो विभर्त्यात्मकेतुभिः ।

अन्तर्यामीश्वरः साक्षात् पातु नो यद्वशे स्फुटम् ।।

— ‘अनया पूजया सर्वकल्याणकर्ता वायुः प्रीयतां न मम ।’

वायु की पूजा के पश्चात् गुरु का ‘ॐ गुरवे नमः ।

इस मन्त्र से पूजन करके प्रार्थना करे —

ब्रह्मस्थानसरोजमध्यविलसच्छीतांशुपीठस्थितं

स्फूर्जत्सूर्यरुचिं वराभयकरं कर्पूरकुन्दोज्ज्वलम् ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

श्वेतस्रग्वसनानुलेपनयुतं विद्युद्रुचा कान्तया

संश्लिष्टार्धतनुं प्रसन्नवदनं वन्दे गुरुं सादरम् ।।

— ‘अनया पूजया गुरुदेवः प्रीयतां न मम ।’

तदनन्तर श्वेतपुष्प आदि से ‘सरस्वत्यै नमः ।’ इस मन्त्र द्वारा सरस्वती का पूर्ववत् पूजन करके प्रार्थना करे —

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता

या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।

या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता

सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ।।

— ‘अनया पूजया भगवती सरस्वती प्रीयतां न मम ।’

सरस्वतीपूजन के पश्चात्

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‘ॐ शेषाय नमः’, ‘ॐ सनत्कुमाराय नमः’, ‘ॐ सांख्यायनाय नमः, ॐ पराशराय नम:’, Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

‘ॐ बृहस्पतये नमः’ ‘ॐ मैत्रेयाय नमः,’ ‘ॐ उद्धवाय नम:’

—इन मन्त्रों से शेष आदि की पूजा करके प्रार्थना करे —

शेषः सनत्कुमारश्च सारख्यायनपराशरौ ।

बृहस्पतिश्च मैत्रेय उद्धवश्चात्र कर्मणि ।।

प्रत्यूहवृन्दं सततं हरन्तां पूजिता मया ।

— ‘अनया पूजया शेषसनत्कुमारसांख्यायनपराशरबृहस्पतिमैत्रेयोद्धवाः प्रीयन्तां न मम ।’

इसके बाद

‘ॐ त्रय्यारुणये नमः’, ‘ॐ कश्यपाय नमः,’ ‘ॐ रामशिष्याय नमः,

ॐ अकृतव्रणाय नमः, ‘ॐ वैशम्पायनाय नमः’, ‘ॐ हारीताय नमः

— इन मन्त्रों से त्रय्यारुणि आदि छ: पौराणिक की पूर्ववत् पूजा करके प्रार्थना करे—

त्रय्यारुणिः कश्यपश्च रामशिष्योऽकृतव्रणः ।

वैशम्पायनहारीतौ षड् वै पौराणिका इमे ।।

सुखदाः सन्तु मे नित्यमनया पूजयार्चिताः ।

— ‘अनया पूजया त्रय्यारुणिप्रभृतयः षट् पौराणिकाः प्रीयन्तां न मम ।’

तत्पश्चात्

‘ॐ भगवते व्यासाय नम:’

इस मन्त्र से भगवान् व्यासदेव की स्थापना और पूजा करके इस प्रकार प्रार्थना करे —

नमस्तस्मै भगवते व्यासायामिततेजसे ।

पपुर्ज्ञानमयं सौम्या यन्मुखाम्बुरुहासवम् ।।

— अनया पूजया भगवान् व्यासः प्रीयतां न मम ।’

इसके बाद सप्ताहयज्ञ के उपदेशक भगवान् सूर्य की स्थापना करके प्रतिदिन उनकी भी पूजा करे।

उनकी पूजा का मन्त्र ‘ॐ सूर्याय नमः’ हैं ।

पूजन के पश्चात् इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये —

लोकेश त्वं जगच्चक्षुः सत्कर्म तव भाषितम् ।

करोमि तच्च निर्विघ्नं पूर्णमस्तु त्वदर्चनात् ।।

— ‘अनया पूजया सप्ताहयज्ञोपदेष्टा भगवान् सूर्यः प्रीवतां न मम ।’ Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

इसके बाद दशावतारों की तथा शुकदेवजी की भी यथास्थान स्थापना करके पूजा करनी चाहिये । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||

तदनन्तर नारदपीठ और पुस्तकपीठ दोनों की एक ही साथ पूजा करे ।

पहले उन दोनों पीठों का जल से अभिषेक करके उन पर चन्दनादि से अष्टदल कमल बनावे ।

फिर

‘ॐ आधारशक्तये नमः’, ‘ॐ मूलप्रकृतये नमः’, ‘ॐ क्षीरसमुद्राय नमः’, ‘ॐ श्वेतद्वीपाय नमः,

ॐ कल्पवृक्षाय नमः, ॐ रत्नमण्डपाय नमः, ॐ रत्नसिंहासनाय नमः’

— इन मन्त्रों से दोनों पीठों में आधारशक्ति आदि की भावना करके पूजा करे ।

फिर चारों दिशाओं में पूर्वादि के क्रम से

‘ॐ धर्माय नमः’, ‘ॐ ज्ञानाय नमः’, ‘ॐ वैराग्याय नमः’, ‘ॐ ऐश्वर्याय नमः’

— इन मन्त्रों द्वारा धर्मादि की भावना एवं पूजा करे ।

फिर पीठों के मध्यभाग में

‘ॐ अनन्ताय नमः’ से अनन्त की और ‘ॐ महापद्माय नम:’ से महापद्म की पूजा करे ।

फिर यह चिन्तन करे —

उस महापद्म का कन्द (मूलभाग) आनन्दमय है । उसकी नाल संवित्स्वरूप है, उसके दल प्रकृतिमय हैं, उसके केसर विकृतिरूप हैं, उसके बीज पञ्चाशत् वर्णस्वरूप हैं और उन्हीं से उस महापद्म की कर्णिका (गद्दी) विभूषित है । उस कर्णिका मे अर्कमण्डल, सोममण्डल और वह्निमण्डल की स्थिति है । वहीं प्रबोधात्मक सत्व, रज एवं तम भी विराजमान हैं । ऐसी भावना के पश्चात् उन सबकी पञ्चोपचार पूजा करे । मन्त्र इस प्रकार हैं —

‘ॐ आनन्दमयकन्दाय नमः, ॐ संविन्नालाय नमः’, ‘ॐ प्रकृतिमयपत्रेभ्यो नमः,

ॐ विकृतिमयकेसरेभ्यो नमः, ॐ पञ्चाशद्वर्णबीजभूषितायै कर्णिकायै नमः’,

‘ॐ अं अर्कमण्डलाय नमः, ॐ सं सोममण्डलाय नमः, ॐ वं वह्निमण्डलाय नमः’,

‘ॐ सं प्रबोधात्मने सत्त्वाय नमः’, ‘ॐ रं रजसे नमः’, ‘ॐ तं तमसे नमः’ ।

इन सबकी पूजा के पश्चात् कमल के सब ओर पूर्वाद आठों दिशाओं में क्रमशः —

‘ॐ विमलायै नमः, ॐ उत्कर्षिण्यै नमः’, ‘ॐ ज्ञानायै नमः’, ‘ॐ क्रियायै नमः’,

‘ॐ योगायै नमः’, ‘ॐ प्रह्लयै नमः’, ‘ॐ सत्यायै नमः’, ‘ॐ ईशानाये नमः’

— इन मन्त्रों द्वारा विमला आदि आठ शक्तियों की पूजा करे और कमल के मध्यभाग में —

‘ॐ अनुग्रहायै नमः’ से अनुग्रह नाम की शक्ति की पूजा करे । Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

तदनन्तर

“ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मने वासुदेवाय ।

पद्मपीठात्मने नमः’

इस मन्त्र से सम्पूर्ण पद्मपीठ का पुजन करके उस पर सुन्दर वस्त्र डाल दे और उसके ऊपर स्थापित करने के लिये श्रीमद्भागवत की पुस्तक को हाथ में लेकर

‘ॐ ध्रुवा द्योर्ध्रुवा पृथिवी ध्रुवा सा पर्वता इमे ।

ध्रुवं विश्वमिदं जगद् ध्रुवो राजा विशामसि ।।’

इस मन्त्र को पढ़ते हुए उक्त पीठ पर स्थापित करें दें । फिर

‘ॐ मनो जूतिः० ‘ इस मन्त्र से पुस्तक की प्रतिष्ठा करके पुरुषसूक्त के षोडश मन्त्रों द्वारा षोडशोपचार-विधि से पूजा करे।

तदस्तु मित्रावरुणा तदग्ने शंय्योस्मभ्यमिदमस्तु शस्तम् ।

अशीमहि गाधमुत प्रतिष्ठां नमो दिवे बृहते सादनाय ॥

— यह मन्त्र पढ़कर श्रीमद्भागवत की सिंहासन या अन्य किसी आसन पर स्थापना करे । तत्पश्चात् पुरुषसूक्त के एक-एक मन्त्र द्वारा क्रमशः षोडश उपचार अर्पण करते हुए पूजन करे ।
श्रीमद्भागवत पूजन विधि

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श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित 
श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित, Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

॥ पूजन-मन्त्र ॥

आवाहन- सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात् ।

स भूमिं सर्वतस्पृत्वात्यतिष्ठद् दशाङ्गुलम् ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । आवाहयामि ।

— इस मन्त्र से भगवान् के नामस्वरूप भागवत को नमस्कार करके आवाहन करे ।

आसन- ॐ पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् ।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । आसनं समर्पयामि ।

— इस मन्त्र से आसन समर्पित करे ।

पाद्य-ॐ एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । पाद्यं समर्पयामि ।

— इस मन्त्र से पैर पखारने के लिये गंगाजल समर्पित करे ।

अर्घ्य- ॐ त्रिपादूर्ध्व उदैत् पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।

ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशने अभि ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । अर्घ्यं समर्पयामि ।

— इस मन्त्र से अर्घ्य (गन्ध पुष्पादिसहित गंगाजल) निवेदित करे ।

आचमन- ॐ ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।

स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । आचमनं समर्पयामि ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

— इस मन्त्र से आचमन के लिये गंगाजल अर्पित करे ।

स्नान- ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यम् ।

पशून् ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । स्नानं समर्पयामि ।

— इस मन्त्र से स्नान के लिये गंगाजल अथवा शुद्ध जल अर्पित करे ।

वस्त्र- ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।

छन्दांस जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तमादजायत ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । वस्त्रं समर्पयामि ।

— इस मन्त्र से वस्त्र समर्पित करे ।

यज्ञोपवीत- ॐ तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । यज्ञोपवीतं समर्पयामि ।

— इस मन्त्र से यज्ञोपवीत अर्पित करे ।

गन्ध-चन्दन- ॐ तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । गन्धं समर्पयामि ।

— इस मन्त्र से गन्ध-चन्दनादि चढ़ाये ।

तुलसीदल- पुष्प- ॐ यत् पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।

मुख़ं किमस्यासीत् किम्बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः ।

तुलसीदलं च पुष्पाणि समर्पयामि ।

—इस मन्त्र से तुलसीदल एवं पुष्प चढ़ावे ।

धूप- ॐ ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिये भागवताय नमः । धूपमाघ्रापयामि ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

— इस मन्त्र से धूप सुँघाये ।

दीप- ॐ चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । दीपं दर्शयामि ।

इस मन्त्र से घी का दीप जलाकर दिखाये । (उसके बाद हाथ धो लें।)

नैवेद्य- ॐ नाभ्या आसीदन्तरिक्ष ঌ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।

पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । नैवेद्य निवेदयामि ।

— इस मन्त्र से नैवेद्य अर्पित करे ।

नैवेद्य के बाद

“मध्ये पानीयं समर्पयामि” एवम् ‘उत्तरापोशनं समर्पयामि’

कहकर तीन-तीन बार जल छोड़े (प्रसाद) ।

ताम्बूल- ॐ यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः ।

एलालवङ्गपूगीफलकर्पूरसहितं ताम्बूलं समर्पयामि । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||

— इस मन्त्र से ताम्बूल समर्पण करे ।

दक्षिणा- ॐ सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिःसप्त समिधः कृताः ।

देवा यद्-यज्ञं तन्वाना अवध्नन् पुरुषं पशुम् ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । दक्षिणां समर्पयामि ।

— इस मन्त्र से दक्षिणा समर्पित करे ।

नमस्कार – ॐ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्यवर्णं तमसस्तु पारे ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

सर्वाणि भूतानि विचिन्त्य धीरः नामानि कृत्वाभिवदन् यदास्ते ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । नमस्कार समर्पयामि ।

— इस मन्त्र से नमस्कार करे ।

प्रदक्षिणा- ॐ धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार शक्रः प्रविद्वान् प्ररिशश्चतस्त्रः । Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

तमेवं विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था अयनाय विद्यते ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । प्रदक्षिणां समर्पयामि ।

— इस मन्त्र से प्रदक्षिणा समर्पण करे ।

पुष्पाञ्जलि- ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥

श्रीभगवन्नामस्वरूपिणे भागवताय नमः । मन्त्रपुष्पं समर्पयामि ।

— इस मन्त्र से पुष्पांजलि समर्पित करे ।

प्रार्थना- वन्दे श्रीकृष्णदेवं मुरनरकभिदं वेदवेदान्तवेद्यं

लोके भक्तिप्रसिद्धं यदुकुलजलधौ प्रादुरासीदपारे।

यस्यासीद् रूपमेवं त्रिभुवनतरणे भक्तिवच्च स्वतन्त्रं शास्त्रं रूपं च

लोके प्रकटयति मुदा यः स नो भूतिहेतुः।।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

श्रीभागवतरूपं तत् पूजयेद् भक्तिपूर्वकम् ।

अर्चकायाखिलान् कामान् प्रयच्छति न संशयः।।

तत्पश्चात् द्वितीय पीठ को श्वेत वस्त्र से आच्छादित करके उस पर देवर्षि नारद को स्थापित करे और

‘ॐ सुरर्षिवरनारदाय नमः’ इस मन्त्र से उनकी विधिवत् पूजा करके निम्नाङ्कित रूप से प्रार्थना करे —

ॐ नमस्तुभ्यं भगवते ज्ञानवैराग्यशालिने ।

नारदाय सर्वलोकपूजिताय सुरर्षये ।।

— ‘अनया पूजया देवर्षिनारदः प्रीयतां न मम ।’

इस प्रकार पूजन के पश्चात् यजमान पुष्प, चन्दन, ताम्बूल, वस्त्र, दक्षिणा, सुपारी तथा रक्षासूत्र हाथ में लेकर

‘ॐ अद्यामुकगोत्रममुकप्रवरममुकशर्माणं ब्राह्मणमेभिर्वरणद्रव्यैः सर्वेष्टदश्रीमद्भागवतवक्तृत्वेन भवन्तमहं वृणे

— इस प्रकार कहते हुए कथावाचक आचार्य का वरण करे । हाथ में ली हुई सब सामग्री उनको दे दे । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||

वह सब लेकर कथावाचक व्यास ‘वृतोऽस्मि’ यों कहें ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

इसके बाद पुनः उन्हीं सब सामग्रियों को हाथ में लेकर जप और पाठ करनेवाले ब्राह्मणों का वरण करे ।

इसके लिये सङ्कल्प-वाक्य इस प्रकार हैं —

‘अद्याहममुकगोत्रानमुकप्रवरानमुकशर्मणो यथासंख्याकान् ब्राह्मणानेभिर्वरणद्रव्यैर्गाथाविघ्नापनोदार्थं गणेशगायत्रीवासुदेवमन्त्रजपकर्तृत्वेन गीताविष्णुसहस्रनामपाठकर्तृत्वेन च वो विभज्य वृणे ।’

इस प्रकार सङ्कल्प करके प्रत्येक ब्राह्मण को वरण-सामग्री अर्पित करे ।

सामग्री लेकर वे ब्राह्मण कहें ‘वृताः स्मः’।

इसके बाद पहले कथावाचक आचार्य हाथ में दिये हुए रक्षासूत्र को लेकर उन्हीं के हाथ में बाँध दे ।

उस समय आचार्य निम्नाङ्कित मन्त्र का पाठ करें —

‘व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम् ।

दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यसाप्यते ।।’

रक्षा बाँधने के अनन्तर यजमान उनके ललाट में कुङ्कम (रोली) और अक्षत से तिलक करे ।

इसी प्रकार जपकर्ता ब्राह्मणों के हाथों में भी रक्षा बाँधकर तिलक करे । तदनन्तर पीले अक्षत लेकर यजमान चारों दिशाओं में रक्षा के लिये बिखेरे । उस समय निम्नाङ्कित मन्त्रों का पाठ भी करे —

पूर्वे नारायणः पातु वारिजाक्षश्च दक्षिणे ।

पश्चिमे पातु गोविन्द उत्तरे मधुसूदनः ।।

ऐशान्यां वामनः पातु चाग्नेय्यां च जर्नादनः ।

नैर्ऋत्यां पद्मनाभश्च वायव्यां माधवस्तथा ।।

ऊर्ध्वं गोवर्धनधरो ह्यधस्ताच्च त्रिविक्रमः ।

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं तत्सर्व रक्षतां हरिः ।।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

इसके बाद वक्ता आचार्य यजमान के हाथ में —

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः ।

तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ।।

इस मन्त्र को पढ़कर रक्षा बाँधे और —

आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः ।

तिलकं ते प्रयच्छन्तु धर्मकामार्थसिद्धये ।। —

इस मन्त्र से उसके ललाट मे तिलक कर दे । फिर यजमान व्यासासन को चन्दन-पुष्य आदि से पूजा करे । पूजन का मन्त्र इस प्रकार है —

’ॐ व्यासासनाय नमः।’

तदनन्तर कथावाचक आचार्य ब्राह्मणों और वृद्ध पुरुषों की आज्ञा लेकर विप्रवर्ग को नमस्कार और गुरुचरणों का ध्यान करके व्यासासन पर बैठे । मन-ही-मन गणेश और नारदादि का स्मरण एवं पूजन करें ।

इसके बाद यजमान

‘ॐ नमः पुराणपुरुषोत्तमाय’ इस मन्त्र से पुनः पुस्तक की गन्ध, पुष्प, तुलसीदल एवं दक्षिणा आदि के द्वारा पूजा करे । फिर गन्ध, पुष्प आदि से वक्ता का पूजन करते हुए निम्नाङ्कित श्लोक का पाठ करे —

जयति पराशरसूनुः सत्यवतीहृदयनन्दनो व्यासः ।

यस्यास्यकमलगलितं वाङ्यममृतं जगत्पिबति ।।

तत्पश्चात् नीचे लिखे हुए श्लोकों को पढ़कर प्रार्थना करे —

शुकरूप प्रबोधज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

एतत्कथाप्रकाशेन मदज्ञानं विनाशय ।।

संसारसागरे मग्नं दीनं मां करुणानिधे ।

कर्मग्राहगृहीताङ्गं मामुद्धर भवार्णवात् ।।

इस प्रकार प्रार्थना करने के पश्चात् निम्नाङ्कित श्लोक पढ़कर श्रीमद्भागवत पर पुष्प, चन्दन और नारियल आदि चढ़ाये —

श्रीमद्भागवताख्योऽयं प्रत्यक्षः कृष्ण एव हि ।

स्वीकृतोऽसि मया नाथ मुक्त्यर्थं भवसागरे ।।

मनोरथो मदीयोऽयं सफलः सर्वथा त्वया ।

निर्विघ्नेनैव कर्तव्यो दासोऽहं तव केशव ।।

कथा-मण्डप में वायुरूपधारी आतिवाहिक शरीरवाले जीवविशेष के लिये एक सात गाँठ के बाँस को भी स्थापित कर देना चाहिये । तत्पश्चात् वक्ता भगवान् का स्मरण करके उस दिन श्रीमद्भागवतमाहात्म्य की कथा सब श्रोताओं को सुनाये ।

सन्ध्या को कथा की समाप्ति होनेपर भी नित्यप्रति पुस्तक तथा वक्ता की पूजा तथा आरती, प्रसाद एवं तुलसीदल का वितरण, भगवन्नामकीर्तन एवं शङ्खध्वनि करनी चाहिये । कथा के प्रारम्भ में और बीच-बीच में भी जब कथा का विराम हो तो समयानुसार भगवन्नामकीर्तन करना चाहिये । वक्ता को चाहिये कि प्रतिदिन पाठ प्रारम्भ करने से पूर्व एक सौ आठ बार ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादशाक्षर-मन्त्र का अथवा ‘ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा’ इस गोपाल-मन्त्र का जप करे । इसके बाद निम्नाङ्कित वाक्य पढ़कर विनियोग करें —

विनियोग- दाहिने हाथ की अनामिका में कुश की पवित्री पहन ले। फिर हाथ में जल लेकर नीचे लिखे वाक्य को पढ़कर भूमि पर गिरा दे-

ॐ अस्य श्रीमद्भागवताख्यस्तोत्रमन्त्रस्य नारद ऋषिः। बृहती छन्दः। श्रीकृष्णः परमात्मा देवता। ब्रह्म बीजम्। भक्तिः शक्तिः। ज्ञानवैराग्ये कीलकम्। मम श्रीमद्भगवत्प्रसादसिद्धयर्थे पाठे विनियोगः।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

न्यास-विनियोग में आये हुए ऋषि आदि का तथा प्रधान देवता के मन्त्राक्षरों का अपने शरीर के विभिन्न अङ्गों में जो स्थापन किया जाता है, उसे ‘न्यास’ कहते हैं। मन्त्र का एक-एक अक्षर चिन्मय होता है, उसे मूर्तिमान देवता के रूप में देखना चाहिये। इन अक्षरों के स्थापन से साधक स्वयं मन्त्रमय हो जाता है, उसके हृदय में दिव्य चेतना का प्रकाश फैलता है, मन्त्र के देवता उसके स्वरूप होकर उसकी सर्वथा रक्षा करते हैं। ऋषि आदि का न्यास सिर आदि कतिपय अङ्गों में होता है मन्त्र पदों अथवा अक्षरों का न्यास प्रायः हाथ की अँगुलियों और हृदयादि अङ्गों में होता है। || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||

इन्हें क्रमश: करन्यास’ और ‘अङ्गन्यास’ कहते हैं। किन्हीं-किन्हीं मन्त्रों का न्यास सर्वाङ्ग में होता है। न्यास से बाहर-भीतर की शुद्धि, दिव्य बल की प्राप्ति और साधना की निर्विघ्र पूर्ति होती है। यहाँ क्रमशः ऋष्यादिन्यास, करन्यास और अङ्गन्यास दिये जा रहे हैं-

ऋष्यादिन्यासः—

नारदर्षये नमः शिरसि ।

बृहतीछन्दसे नमः मुखे ।

श्रीकृष्णपरमात्मदेवतायै नमः हृदि ।

ब्रह्मबीजाय नमः गुह्ये ।

भक्तिशक्तये नमः पादयोः ।

ज्ञानवैराग्यकीलकाभ्यां नम: नाभौ ।

श्रीमद्भगवत्प्रसादसिद्धयर्थकपाठविनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।

करन्यास- इसमें ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादशाक्षर मन्त्र के एक-एक अक्षर प्रणव से सम्पुटित करके दोनों हाथों की अङ्गलियों में स्थापित करना है।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

करन्यासः—

ॐ क्लां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।

ॐ क्लीं तर्जनीभ्यां नमः ।

ॐ क्लूं मध्यमाभ्यां नमः ।

ॐ क्लैं अनामिकाभ्यां नमः ।

ॐ क्लौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।

ॐ क्लः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।

अङ्गन्यासः—

ॐ क्लां हृदयाय नमः ।

ॐ क्ली शिरसे स्वाहा ।

ॐ क्लूं शिखायै वषट् ।

ॐ क्लैं कवचाय हुम् ।

ॐ क्लौं नेत्रत्रयाय वौषट् ।

ॐ क्लः अस्त्राय फट् ।

इसके बाद निम्नाङ्कित रूप से ध्यान करे —

कस्तूरीतिलक ललाटपटले वक्षःस्थले कौस्तुभं

नासाग्रे वरमौक्तिकं करतले वेणुः करे कङ्कणम् ।

सर्वाङ्ग हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे च मुक्तावली

गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपालचूडामणिः ।।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

अस्ति स्वस्तरुणीकराग्रविगलत्कल्पप्रसूनाप्लुतं

वस्तु प्रस्तुतवेणुनादलहरीनिर्वाणनिर्व्याकुलम् ।

स्रस्तस्रस्तनिबद्धनीविविलसद्गोपीसहस्रावृतं

हस्तन्यस्तनतापवर्गमखिलोदारं किशोराकृतिः ।।

इस प्रकार ध्यान के पश्चात् कथा प्रारम्भ करनी चाहिये । सूर्योदय से आरम्भ करके प्रतिदिन साढ़े तीन प्रहर तक कथा बाँचनी चाहिये । मध्याह्न में दो घड़ी कथा बंद रखनी चाहिये । प्रातःकाल से मध्याह्न तक मूल का पाठ होना चाहिये और मध्याह्न से सन्ध्या तक उसका संक्षिप्त भावार्थ अपनी भाषा में कहना चाहिये । मध्याह्न में विश्राम के समय तथा रात्रि के समय भगवन्नाम-कीर्तन की व्यवस्था होनी चाहिये ।

कथा-समाप्ति के दूसरे दिन वहाँ स्थापित हुए सम्पूर्ण देवताओं का पूजन करके हवन की वेदी पर पञ्चभूसंस्कार, अग्निस्थापन एवं कुशकण्डिका करे । फिर विधिपूर्वक वृत ब्राह्मणों द्वारा हवन, तर्पण एवं मार्जन कराकर श्रीमद्भागवत की शोभायात्रा निकाले और ब्राह्मण-भोजन कराये । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||

मधुमिश्रित खीर और तिल आदि से भागवत के श्लोकों का दशांश (अर्थात् १८००) आहुति देनी चाहिये । खीर के अभाव में तिल, चावल, जौ, मेवा, शुद्ध घी और चीनी को मिलाकर हवनीय पदार्थ तैयार कर लेना चाहिये । इसमें सुगन्धित पदार्थ (कपूर-काचरी, नागरमोथा, छड़छड़ीला, अगर-तगर, चन्दनचूर्ण आदि) भी मिलाने चाहिये । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||

पूर्वोक्त अठारह सौ आहुति गायत्री मन्त्र अथवा दशमस्कन्ध के प्रति श्लोक से देनी चाहिये । हवन के अन्त में दिक्पाल आदि के लिये बलि, क्षेत्रपाल-पूजन, छायापात्रदान, हवन का दशांश तर्पण एवं तर्पण का दशांश मार्जन करना चाहिये । फिर आरती के पश्चात् किसी नदी, सरोवर या कूपादि पर जाकर अवभृथस्नान (यज्ञान्त-स्नान) भी करना चाहिये ।

श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित 
श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित, Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

जो पूर्ण हवन करने में असमर्थ हो, वह यथाशक्ति हवनीय पदार्थ दान करें । अन्त में कम-से-कम बारह ब्राह्मणों को मधुयुक्त खीर का भोजन कराना चाहिये । व्रत की पूर्ति के लिये सुवर्ण-दान और गोदान करना चाहिये । सुवर्ण-सिंहासन पर विराजित सुन्दर अक्षरों में लिखित श्रीमद्भागवत की पूजा करके उसे दक्षिणासहित कथावाचक आचार्य को दान कर देना चाहिये । अन्त में सब प्रकार की त्रुटियों की पूर्ति के लिये विष्णुसहस्रनाम का पाठ कथावाचक आचार्य के द्वारा सुनना चाहिये । विरक्त श्रेताओं को ‘गीता’ सुननी चाहिये ।

|| श्रीमद्भागवतजी की आरती ||

॥ श्रीभागवत भगवान् की आरती ॥

श्री भागवत भगवान की है आरती,

पापियों को पाप से है तारती ।

ये अमर ग्रन्थ ये मुक्ति पन्थ,

ये पंचम वेद निराला,

नव ज्योति जलाने वाला ।

हरि नाम यही हरि धाम यही,

यही जग मंगल की आरती

पापियों को पाप से है तारती ॥

श्री भागवत भगवान की है आरती……

ये शान्ति गीत पावन पुनीत,

पापों को मिटाने वाला,

हरि दरश दिखाने वाला ।

यह सुख करनी, यह दुःख हरिनी,

श्री मधुसूदन की आरती,

पापियों को पाप से है तारती ॥

श्री भागवत भगवान की है आरती……

ये मधुर बोल, जग फन्द खोल,

सन्मार्ग दिखाने वाला,

बिगड़ी को बनानेवाला ।

श्री राम यही, घनश्याम यही,

यही प्रभु की महिमा की आरती

पापियों को पाप से है तारती ॥

श्री भागवत भगवान की है आरती…….

श्री भागवत भगवान की है आरती,

पापियों को पाप से है तारती ।

॥ श्रीमद्भागवत पुराण की आरती ॥Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

आरती अतिपावन पुराण की ।

धर्म-भक्ति-विज्ञान-खान की ॥

महापुराण भागवत निर्मल ।

शुक-मुख-विगलित निगम-कल्प-फल ॥

परमानन्द सुधा-रसमय कल ।

लीला-रति-रस रसनिधान की ॥

॥ आरती अतिपावन पुराण की… ॥

कलिमथ-मथनि त्रिताप-निवारिणि ।

जन्म-मृत्यु भव-भयहारिणी ॥

सेवत सतत सकल सुखकारिणि ।

सुमहौषधि हरि-चरित गान की ॥

॥ आरती अतिपावन पुराण की… ॥

विषय-विलास-विमोह विनाशिनि ।

विमल-विराग-विवेक विकासिनि ॥Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

भगवत्-तत्त्व-रहस्य-प्रकाशिनि ।

परम ज्योति परमात्मज्ञान की ॥

॥ आरती अतिपावन पुराण की… ॥

परमहंस-मुनि-मन उल्लासिनि ।

रसिक-हृदय-रस-रासविलासिनि ॥

भुक्ति-मुक्ति-रति-प्रेम सुदासिनि ।

कथा अकिंचन प्रिय सुजान की ॥

॥ आरती अतिपावन पुराण की… ॥

॥ इति श्री भागवत पुराण आरती समाप्त ॥

॥इति श्री मद भागवत विधि समाप्त॥

 

॥श्री रामचरितमानस पूजन सामग्री॥

रोली 10 ग्राम
पीला सिंदूर 10 ग्राम
पीला अष्टगंध चंदन 10 ग्राम
लाल चन्दन 10 ग्राम
सफ़ेद चन्दन 10 ग्राम
लाल सिंदूर 10 ग्राम
हल्दी (पिसी) 50 ग्राम
हल्दी (समूची) 50 ग्राम
सुपाड़ी (समूची बड़ी) 100 ग्राम
लौंग 10 ग्राम
इलायची 10 ग्राम
सर्वौषधि 1 डिब्बी
सप्तमृत्तिका 1 डिब्बी
सप्तधान्य 100 ग्राम
पीली सरसों 50 ग्राम
नवग्रह चावल 1 पैकेट
जनेऊ 5 पीस
इत्र 1 शीशी
गरी का गोला (सूखा) 2 पीस
पानी वाला नारियल 1 पीस
जटादार सूखा नारियल 1 पीस
अक्षत (चावल) 1 किलो
धूपबत्ती 1 पैकेट
रुई की बत्ती (गोल / लंबी) 1-1 पैकेट
देशी घी 1 किलो
कपूर 20 ग्राम
कलावा 5 पीस
अबीर-गुलाल (लाल, पीला, हरा, गुलाबी) अलग- अलग 10-10 ग्राम
बुक्का (अभ्रक) 10 ग्राम
गंगाजल 1 शीशी
गुलाबजल 1 शीशी
चुनरी (लाल / पीली) 1/1 पीस
बताशा 500 ग्राम
लाल वस्त्र 1 मीटर
पीला वस्त्र 1 मीटर
झंडा हनुमान जी का 1 पीस
कुश (पवित्री) 4 पीस
लकड़ी की चौकी 1 पीस
दोना (छोटा – बड़ा) 1-1 पीस
मिट्टी का कलश (बड़ा) 1 पीस
मिट्टी का प्याला 8 पीस
मिट्टी की दियाली 8 पीस
हवन कुण्ड 1 पीस
माचिस 1 पीस
आम की लकड़ी 2 किलो
नवग्रह समिधा 1 पैकेट
हवन सामग्री 500 ग्राम
तिल 100 ग्राम
जौ 100 ग्राम
गुड़ 500 ग्राम
कमलगट्टा 100 ग्राम
गुग्गुल 100 ग्राम
धूप लकड़ी 100 ग्राम
सुगंध बाला 50 ग्राम
सुगंध कोकिला 50 ग्राम
नागरमोथा 50 ग्राम
जटामांसी 50 ग्राम
अगर-तगर 100 ग्राम
इंद्र जौ 50 ग्राम
बेलगुदा 100 ग्राम
सतावर 50 ग्राम
गुर्च 50 ग्राम
जावित्री 25 ग्राम
कस्तूरी 1 डिब्बी
केसर 1 डिब्बी
शहद 50 ग्राम
पंचमेवा 200 ग्राम
पंचरत्न व पंचधातु 1 डिब्बी
धोती (पीली/लाल) 1 पीस
अगोंछा (पीला/लाल) 1 पीस
सुहाग सामग्री – साड़ी, बिंदी, सिंदूर, चूड़ी, आलता, नाक की कील, पायल, इत्यादि।

मिष्ठान 500 ग्राम
पान के पत्ते (समूचे) 21 पीस
केले के पत्ते 5 पीस
आम के पत्ते 2 डंठल
ऋतु फल 5 प्रकार के
दूब घास 50 ग्राम
फूल, हार (गुलाब) की 2 माला
फूल, हार (गेंदे) की 2 माला
गुलाब/गेंदा का खुला हुआ फूल 500 ग्राम
तुलसी का पौधा 1 पीस
तुलसी की पत्ती 5 पीस
दूध 1 लीटर
दही 1 किलो

राम दरबार की प्रतिमा 1 पीस
रामचरितमानस ग्रंथ 1 पीस
रेहल (ग्रन्थ को रखने हेतु) 1 पीस

आटा 100 ग्राम
चीनी 500 ग्राम
अखंड दीपक (ढक्कन समेत) 1 पीस
तांबे/पीतल का कलश (ढक्कन समेत) 1 पीस
थाली 2 पीस
लोटे 2 पीस
कटोरी 4 पीस
चम्मच 2 पीस
परात 2 पीस
कैंची /चाकू (लड़ी काटने हेतु) 1 पीस
हनुमंत ध्वजा हेतु बांस (छोटा/ बड़ा) 1 पीस
जल (पूजन हेतु)
गाय का गोबर
मिट्टी
बिछाने का आसन

चुनरी 1 पीस
अंगोछा 1 पीस
पूजा में रखने हेतु सिंदौरा 1 पीस

पंचामृत

धोती
कुर्ता
अंगोछा
पंच पात्र
माला इत्यादि

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कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?

कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?

कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?

 

हमारे मृत पूर्वजों की आत्माए नाराज होने से भी यह दोष कुंडली में पाया जाता है। संस्कृत में काल सर्प दोष द्वारा कई सारे निहितार्थ सुझाए गए है। यह अक्सर कहा जाता है कि अगर काल सर्प दोष निवारण पूजा नहीं की गयी तो, संबंधित व्यक्ति के कार्य को प्रभावित करेगा और सबसे कठिन बना देगा।

कालसर्प पूजा :

कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है?Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?

कालसर्प पूजा त्र्यंबकेश्वर में ताम्रपत्र धारक पंडितजी के घर पर की जाती है। त्र्यंबकेश्वर यह एक प्राचीन हिंदू मंदिर है जो नासिक जिले के महाराष्ट्र में स्थित है।

त्र्यंबकेश्वर महादेव मंदिर को सभी शक्तपीठो के रूप में से ही एक माना जाता है, और१२ ज्योतिर्लिंग में गिना जाता है। कालसर्प दोष मुख्यतः रूप से नकारात्मक ऊर्जाओं से संबंधित है, जो मनुष्य के शारीरिक, और मानसिक स्थिति को प्रभावित करता है। यह कालसर्प पूजा वैदिक शांति के अनुसार ही करनी चाहिए।

कालसर्प पूजा की विधी भगवान शिव (त्र्यंबकेश्वर) की पूजा के साथ शुरू होती है और फिर गोदावरी नदी में पवित्र स्नान करते है जिससे, आत्मा और मन की शुद्धि का संकेत माना जाता है, उसके बाद, मुख्य पूजा शुरूवात होती है।

उपासक को एक प्राथमिक संकल्प पदान करना होता है और फिर पूजा विधी की शुरुआत भगवान वरुण के पूजन के साथ होती है और इसके बाद भगवान गणेश पूजन होता है।

भगवान वरुण के पूजन में कलश पूजन होता है जिसमें पवित्र गोदावरी नदी के जल को देवता के रूप में पूजा जाता है। यह कहा जाता है कि सभी पवित्र जल, पवित्र शक्ति, और देवी, देवता की पूजा इस कलश के पूजा द्वारा की जाती है।

कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?

कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?

प्रथम श्री गणेश भगवान का पूजन होता है।
इसके पश्चात नागमंडल पूजा की जाती है, जिसमें १२ नागमूर्ति होती है।

इन १२ नागमूर्तियोंमें १० मुर्तिया चांदी से निर्मित तथा १ सोने से एवं एक नागमूर्ति ताम्बे की होना अनिवार्य है।
फिर हर नाग को नागमंडल में बिठाया जाता है जिसे लिंगतोभद्रमण्डल भी कहा जाता है।

लिंगतोभद्रमण्डल की विधिवत प्राणप्रतिष्ठा करके षोडशोपचार पूजन किया जाता है।
इसके पश्चात नाग मूर्ति का विसर्जन किया जाता है।
राहु-केतु, सर्पमंत्र, सर्पसूक्त, मनसा देवी मन्त्र एवं महामृत्युंजय मंत्र की माला से जाप करके मन्त्रोद्वारा हवनादि किया जाता है।

हवाना के बाद जिस प्रतिमा से कालसर्प का दोष दूर होता है उसपर अभिषेक किया जाता है, और उसे पवित्र जलाशय या नदीमे विसर्जित किया जाता है।
तीर्थ में स्नान करके, पूजा के दौरान धारण किए हुए वस्त्र वहीं छोड़ दिए जाते है तथा साथ में लाए हुए नए वस्त्र धारण किये जाते है।

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इसके पश्चात ताम्रनिर्मित सर्प मूर्ति को ज्योतिर्लिंगको अर्पण करके, सुवर्ण नाग की प्रतिमा मुख्य गुरूजी एवं अन्य नागमूर्तियाँ उनके सहयोगी गुरूजी को दिए जाते है।

कालसर्प दोष की अधिक जानकारी:

किसी भी व्यक्ति के जीवन में काल सर्प योग की संभावना तभी दिखाइ देती है, जब ग्रहो (राहु और केतु ) की स्थिति बदल कर, वो बाकि सब ग्रहो के बिच में आ जाते है। दोनों ग्रह जैसे राहु और केतु को, “साँप” और “सांप की पूंछ” माना जाता है।

कुल १२ प्रकार के विभिन्न काल सर्प योग है, जैसे अनंत, कुलिका, वासुकि, शंखपाल, पद्म, महापद्म, तक्षक, कर्कोटक, शंखचूर, घटक, विषधर और शेष नाग योग। ऐसा कहा जाता है कि, जिस व्यक्ति के कुंडली में यह दोष रहता है उसे सांपों और साँप (सर्प) से काटने के सपने देखता है।

कालसर्प दोष कुंडली में होने के लक्षण:
यदि किसी व्यक्ति को पता नहीं की वे यह दोष से पीड़ित है या नहीं, या वो अनिश्चित है, तो निचे दिए गए कई लक्षण से कुंडली में स्थित काल सर्प योग के बारे में पता चल सकता है:  कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है?Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?

जब व्यक्ति के जन्म कुंडली में काल सर्प योग रहता है , तो वो अक्सर मृत परिवार के सदस्य या मृत पूर्वजो को सपने में देखता है। कुछ लोग यह भी देखते है कि कोई उन्हें गला घोट कर मार रहा है।

यह देखा गया है की, इस योग से प्रभावित व्यक्ति का स्वभाव सामाजिक होता हैं और उन्हें किसी चीज का लालच नहीं होता है।
जिन्हे सांपों से बहुत डर लगता है, उन्हें भी इस दोष से प्रभावित के रूप में जाना जाता है, यहां तक कि वे अक्सर सांप के काटने के सपने देखते हैं।

जो व्यक्ति इस दोष से पीड़ित है, उस व्यक्ति को अपने जीवन में बहुत संघर्ष करना पड़ता है और आवश्यकता के समय अकेलापन महसूस होता है।
व्यापार पर बुरा असर होना।

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ब्लडप्रेशर जैसी रक्त से संबधित बीमारियां, गुप्त शत्रु से परेशानी होना।
सोते समय कोई गला दबा रहा हो ऐसा प्रतीत होना।
स्वप्न में खुदके घर पर परछाई दिखना।

नींद में शरीर पर साँप रेंगता होने का अहसास होना।
जीवनसाथी से विवाद होना।
रात में बार-बार नींद का खुलना।
स्वप्न में नदी या समुद्र दिखना।

पिता और पुत्र के बीच विवाद होना।
स्वप्न में हमेशा लड़ाई झगड़ा होते दिखना।
मानसिक परेशानी, सिरदर्द, त्वचारोग होना।

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यह भी कहा जाता है कि, कुछ लोगों को एयरोफोबिया ( अँधेरे से डर) भी होता है। किसी की भी कुंडली में इस प्रकार के योग को ठीक करने के लिए, विशेषज्ञ या पंडितजी से काल सर्प योग शांति पूजा करना आवश्यक है।

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कालसर्प योग प्रभाव:

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काल सर्प योग के कुछ ऐसे कारण भी हैं, यदि कोई भी व्यक्ति सांपों को नुकसान पहुंचाता है, तो उसे अपने अगले जन्म में काल सर्प योग दोष से सामना करना पड़ता है।

वैदिक पुराण के अनुसार, जब ग्रहों की स्थिति बदल कर सभी सात ग्रह “राहु” और “केतु” नामक ग्रह में आते हैं, तब काल सर्प योग निर्माण होता है। यह दोष वैदिक पुराणों में सुझाए गए किसी भी अन्य प्रकार के दोष की तुलना में अधिक हानिकारक है।

कालसर्प योग दोष की अवधि:
हिंदू धर्म के अनुसार, यह कहा जाता है की परिणाम हमारे पिछले कार्य पर निर्भर होते है, मतलब जो हम कार्य करते है उसका फल हमें बाद में मिलता है।

यदि कोई व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में किसी जानवर या सांप की मृत्यु का कारण बना है, तो उसे अपने अगले जीवन में काल सर्प दोष समस्याओ से सामना करना होगा।

शास्त्रों के अनुसार, कालसर्प योग शांति पूजा निवारण करने तक यह योग दोष वह व्यक्ति के कुंडली में रहता हैं |

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कालसर्प दोष के निवारण उपाय :

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कालसर्प दोष के कई उपाय है जो इस दोष को पूरी तरह नहीं ख़त्म करते लेकिन उसका नकारात्मक प्रभाव कम करते है:
जैसे रोज “महामृत्युंजय मंत्र ” ( ” ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।, उर्वारुकमिव बन्धनान्मृ, त्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥”)

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या ” रूद्र मंत्र” का १०८ बार जाप करना, एक प्रभावी तरिका है। कुछ लोग “पंचाक्षरी मंत्र” (ॐ नमः शिवाय) का भी जाप करते है जिससे इस मंत्र का बुरा असर काम होता है।

दूसरा उपाय यह है की, रोज अकीक की लकड़ी को एक हात में लेकर, बीज मंत्र का १०८ बार जाप करना।
हर सोमवार को भगवान शिवा को रूद्र अभिषेक समर्पित करना।

जो व्यक्ति इस दोष से पीड़ित है उसे रोज भगवान विष्णु की साधना करनी चाहिए, जिससे कालसर्प दोष के हानिकारक प्रभाव कम होते है।
हर शनिवार को पीपल के पेड़ को पानी डालना चाहिए जिससे काल सर्प दोष से निर्मित समस्याएं कम होती है।

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कालसर्प दोष के प्रकार :
वैदिक ज्योतिष अनुसार, विभिन्न कालसर्प योग के अलग-अलग प्रकार हैं। उनके प्रकारों की तरह अलग अलग प्रभाव है। कुल 12 प्रकार के कालसर्प योग नीचे दिए गए हैं:   कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है?Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?

कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
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१.अनंत कालसर्प दोष:

जब ग्रह राहु और केतु कुंडली के प्रथम और सातवे स्थान में स्थित होते हैं, तो अनंत कालसर्प योग बनता है। इस योग से प्रभावित व्यक्ति को मानसिक के साथ-साथ शारीरिक समस्याएं का भी सामना करना पड़ता है, और उसे कानूनी मुद्दों और सरकार से संबंधित मुद्दों में भी शामिल होना पड़ सकता है।

अक्सर देखा गया है की, ऐसा व्यक्ति जो इस अनंत कालसर्प योग से पीड़ित है, वह व्यापक सोच वाला होता है।

२.कुलिक कालसर्प दोष:

जब ग्रह राहु और केतु कुंडली के दूसरे और आठवे स्थान में स्थित हों तो कुलिक काल सर्प योग बनता है। इस योग से प्रभावित व्यक्ति को वित्तीय समस्याओं से सामना करना पड़ता है, चीजों को हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। अक्सर देखा गया है की, उस व्यक्ति का समाज से अच्छा संबंध नहीं होता है।

३.वासुकि कालसर्प दोष:

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जब ग्रह राहु और केतु जन्म कुंडली के तीसरे और नौवें स्थान पर स्थित होते हैं, तो वासुकी काल सर्प योग होता है। इस योग से प्रभावित व्यक्ति को अपने जीवन में संघर्ष करना पड़ता है।

४.शंखपाल कालसर्प दोष:

ग्रहों की स्थिति जहां राहु चौथे घर में और केतु कुंडली में दस वें घर में होती है, तो शंखपाल कालसर्प योग होता है। इस शंखपाल काल सर्प योग के प्रभाव के कारण, व्यक्ति को कुछ आर्थिक और मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।

रिश्तेदारों के संबंधित मामलों में कठिनाइयों हो सकती है।

५.पद्म कालसर्प दोष

जब कुंडली के पांच वें और गयारह वें घर में राहु और केतु स्थित होते हैं, तो यह पद्म कालसर्प योग बनता है। पद्म कालसर्प योग के कारण, संबंधित व्यक्ति को समाज में अपमानित महसूस कर सकता है, और उसे बीमारियों के कारण पितृत्व संबंधी समस्याओं का सामना करना पद सकता है।

६.महा पद्म कालसर्प दोष

जब राहु और केतु को जन्म कुंडली में छटे और बारह वें स्थान पर होते है , तब महा पद्म कालसर्प योग का निर्माण होता है। इस योग से पीड़ित व्यक्ति को कुछ शारीरिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ सकता है।

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७.तक्षक कालसर्प दोष

जब राहु और केतु जैसे ग्रहों की स्थिति, प्रथम और सातवे स्थान पर होते है, यह दोष की निर्मिति होती है, यह दोष अनंत कालसर्प दोष के ठीक विपरीत है।

इस योग से पीड़ित व्यक्ति अपने विवाहित जीवन में संघर्ष करना पड़ सकता है, और यह मानसिक तनाव का कारण बनता है।

८.शंखचूड़ कालसर्प दोष

इस प्रकार का योग तब बनता है जब राहु और केतु जन्म कुंडली में नौ वें और तीसरे स्थान पर होंते है। यह दोष से पीड़ित व्यक्ति को जीवन में कोई खुशी नहीं मिलती है।

९.पातक कालसर्प दोष

पातक काल सर्प योग तब होता है जब कुंडली में राहु और केतु जैसे ग्रहो का स्थान दस वें और चौथे स्थान पर होता है। इस योग के कारण, परिवार के बहस होती है।

१०.विषधर कालसर्प दोष:

जन्मकुंडली में पांच वें और ग्यारह वें घर में राहु और केतु की स्थिति होने से, विषधर कालसर्प योग का निर्माण होता है। विषधर कालसर्प योग के प्रभाव से शिक्षा से संबंधित, और स्वस्थ संबंधित समस्याएं होती है।

११.शेषनाग कालसर्प दोष:

इस योग में ग्रहों की स्थिति महा पद्म कालसर्प योग में ग्रहों की स्थिति के विपरीत होती है।

इस दोष के कारन कोई भी व्यक्ति अनावश्यक रूप से किसी कानूनी परेशानी में फंस सकता है और परिणामी उसका मानसिक तनाव बढ़ सकता है। इसलिए, यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में यह दोष दिखाइ दे, तो तत्काल उसके लिए कालसर्प शांति पूजा प्रदान करनी चाहिए, और उसे चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है क्योकि यदि किसी की जन्म कुंडली में अन्य ग्रहों की व्यवस्था शुभ है, तो चीजें उसके लिए अच्छी होंगी।

१२.कर्कोटक कालसर्प योग

“कर्कोटक कालसर्प योग” तब बनता है जब कोई किसी की कुंडली/कुंडली में आठवें स्थान पर होता है और केतु दूसरे स्थान में होता है और अन्य ग्रह इन दोनों ग्रहों के बीच होते हैं।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कुंडली में आठवां स्थान अचानक लाभ का संकेत देता है।
यदि यह योग यहाँ है तो जातक को पुश्तैनी धन प्राप्त करना कठिन हो सकता है। पेंशन, भत्ता या बीमा राशि प्राप्त करने में लंबा समय लगने की संभावना है। ऐसी जाति को मित्रों द्वारा धोखा दिया जा सकता है।
कई जगहों पर कर्ज का निपटारा हो सकता है। अचानक आर्थिक संकट उत्पन्न हो सकता है। जातक की आकस्मिक मृत्यु की भी संभावना है।

कालसर्प पूजा मूल्य:

काल सर्प योग के हानिकारक प्रभावों से मुक्ति पाने के लिए, एकमात्र उपाय कालसर्प पूजा है, जिसे बाकी सब ग्रहो को शांत करने और उन्हें अपने स्थानों पर वापस लाने के लिए किया जाता है।

काल सर्प पूजा का मूल्य पूरी तरह पूजा, ब्राह्मण , रुद्र अभिषेक, राहु-केतु जाप और पूजा को आवश्यक अन्य चीजों पर निर्भर है। सामूहिक (समूह) पूजन के लिए पुरोहितों द्वारा सुझाए गए समाग्री के अनुसार काल पूजा मूल्य भी बदल जाता है।

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कालसर्प योग दोष पूजा फायदे

नौकरीमे शोहरत और ऊँचे पदका लाभ होना।
व्यापार में लाभ होना।
पति पत्नी में मतभेद मिट जाना।
मित्रों से लाभ होना।
आरोग्य में लाभ होना।

परिवार में शान्ति आना।
उत्तम संतान की प्राप्ति होना।
सामजिक छवि में सुधार होना।
कालसर्प योग दोष पूजा दक्षिणा

कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
पूजा में उपयोग आनेवाली सामग्री पर दक्षिणा आधारित होती है।
कालसर्प योग दोष पूजा नियम
यह पूजा करने से एक दिन पहले त्र्यंबकेश्वर में आना जरुरी है।

यह पूजा अकेला व्यक्ति भी कर सकता है, किन्तु गर्भवती महिला इसे अकेले नहीं कर सकती।
इस योग से ग्रसित व्यक्ति बालक होने पर उसके माता-पिता इस पूजा को एक साथ कर सकते है।

पवित्र कुशावर्त तीर्थ पर जाकर स्नान करके पूजा करने के लिए नए वस्त्र धारण करना आवश्यक है।
इस पूजा को करने के लिए पुरुष धोती, कुडता एवं महिला सफेद साडी पहनती है।

दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित Dainik Poojan vidhi mantra Sahit

श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi

Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?

 

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माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?

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माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?
माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?

 

माँ वैष्णो देवी का मंदिर प्रमुख और पवित्र हिंदू मंदिरों में से एक है जो भगवान शिव की दिव्य पत्नी पार्वती या देवी शक्ति को समर्पित है। यह खूबसूरत मंदिर  भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य में वैष्णो देवी की सुरम्य पहाड़ियों के बीच स्थित है। हिंदू वैष्णो देवी की पूजा करते हैं, जिन्हें आमतौर पर माता रानी और वैष्णवी भी कहा जाता है, जो देवी मां शक्ति की अभिव्यक्ति हैं।
वैष्णो देवी मंदिर का सटीक स्थान
वैष्णो देवी मणिर रियासी जिले में कटरा शहर के करीब स्थित है। यह भारत में सबसे प्रतिष्ठित पूजा स्थलों में से एक है। यह मंदिर समुद्र तल से 5300 फीट की ऊंचाई पर स्थित है और कटरा से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

यह दर्ज किया गया है कि हर साल दुनिया के हर हिस्से से लगभग 8 मिलियन यात्री (तीर्थयात्री) मंदिर में आते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह तिरुमाला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद भारत में दूसरा सबसे अधिक देखा जाने वाला धार्मिक मंदिर है।

मंदिर परिसर का रखरखाव श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड द्वारा किया जाता है। तीर्थयात्री उधमपुर से कटरा होते हुए रेल मार्ग से मंदिर तक पहुंच सकते हैं। फ्लाइट से यात्रा करने वालों के लिए जम्मू हवाई अड्डा मंदिर तक पहुंचने का सबसे अच्छा तरीका है।

माता वैष्णो देवी का जन्म और बचपन

पौराणिक कथा के अनुसार, माता वैष्णो देवी का जन्म भारत के दक्षिणी भाग में रत्नाकर सागर के यहाँ हुआ था। उसके माता-पिता कई वर्षों से निःसंतान थे और एक बच्चे को जन्म देने के लिए उत्सुक थे। दिव्य बालक के जन्म से ठीक एक रात पहले, रत्नाकर ने वादा किया था कि उनका बच्चा जीवन में आगे चलकर जो भी करना चाहेगा, उसमें वह कभी हस्तक्षेप नहीं करेंगे। अगले दिन माता वैष्णो देवी का जन्म हुआ और उनका नाम त्रिकुटा रखा गया। बाद में उन्हें वैष्णवी कहा गया क्योंकि उन्होंने भगवान विष्णु के वंश में जन्म लिया था।

जब वह 9 वर्ष की थी, तब त्रिकुटा ने अपने पिता से समुद्र तट पर तपस्या करने की अनुमति मांगी। त्रिकुटा वहीं बैठ गईं और भगवान विष्णु के अवतार भगवान राम से प्रार्थना करने लगीं। उसी समय, भगवान राम देवी सीता की तलाश में समुद्र के किनारे से गुजरे, जिनका राक्षस राजा रावण ने अपहरण कर लिया था। राम अपनी पूरी वानर सेना (बंदरों की सेना) के साथ उपस्थित थे।माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?

दिव्य चमक वाली सुंदर लड़की को प्रार्थना और ध्यान में डूबा हुआ देखकर, वह उसके पास आए और उसे आशीर्वाद दिया। त्रिकुटा ने राम से कहा कि वह पहले ही उन्हें अपने पति के रूप में स्वीकार कर चुकी है। राम ने, एक पत्नी व्रत (एक ही जीवनसाथी रखने का वचन लिया था) होने के नाते, फैसला किया था कि वह केवल सीता से विवाह करेंगे और उनके प्रति वफादार रहेंगे। हालाँकि, अपने प्रति लड़की की भक्ति से प्रभावित होकर, भगवान ने उसे वैष्णवी नाम दिया और उससे वादा किया कि कलियुग के दौरान, वह कल्कि का अवतार लेंगे और फिर उससे शादी करेंगे।

इस बीच, राम ने त्रिकुटा को उत्तरी भारत में स्थित माणिक पर्वत की त्रिकुटा श्रृंखला में पाई जाने वाली एक विशेष गुफा में ध्यान करने का भी निर्देश दिया। वह उसे धनुष और तीर, बंदरों की एक छोटी सेना और उसकी सुरक्षा के लिए एक शेर भी देने के लिए आगे बढ़ा। तब देवी मां ने रावण के खिलाफ भगवान राम की जीत के लिए प्रार्थना करने के लिए ‘नवरात्र’ मनाने का फैसला किया।माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?

माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?

आज भी भक्तजन नवरात्रि उत्सव के 9 दिनों के दौरान रामायण का पाठ करते हैं। राम ने उनसे यह भी वादा किया कि पूरी दुनिया उनकी प्रशंसा करेगी और उन्हें माता वैष्णो देवी के रूप में सम्मान देगी। यह राम के आशीर्वाद के कारण है कि माता वैष्णो देवी को अमरता प्राप्त हुई और अब हर साल लाखों तीर्थयात्री इस मंदिर में आते हैं।माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?

माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?
माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?

माता वैष्णो देवी की पौराणिक कथाएँ

 

पौराणिक कथा के अनुसार, उस समय जब देवी दुनिया में अराजकता पैदा करने वाले असुरों या राक्षसों के खिलाफ भयानक युद्ध छेड़ने और उन्हें नष्ट करने में लगी हुई थीं, उनकी तीन मुख्य अभिव्यक्तियाँ, अर्थात्, महा काली, महा लक्ष्मी और महा सरस्वती एक ही शक्ति में एकजुट हो गईं। , उनकी सामूहिक आध्यात्मिक शक्ति को एकत्रित करना। इस एकीकरण ने एक उज्ज्वल तेजस या आभा का निर्माण किया और इस तेजस से एक सुंदर युवा लड़की का उदय हुआ। लड़की ने देवी माँ से अपने लक्ष्य को आगे बढ़ाने के लिए निर्देश मांगे। देवियों ने उसे बताया कि उसका लक्ष्य पृथ्वी पर प्रकट होना और धर्म या धार्मिकता को कायम रखते हुए अपने भक्तों का कल्याण करना।

उन्होंने दिव्य लड़की से रत्नाकर के घर में मानव जन्म लेने और फिर पवित्रता और तपस्या का जीवन जीने के लिए कहा, ताकि अपनी चेतना को भगवान के स्तर तक बढ़ाया जा सके। उन्होंने उससे यह भी कहा कि एक बार जब वह चेतना के उस स्तर को प्राप्त कर लेगी, तो वह स्वचालित रूप से भगवान विष्णु में विलीन हो जाएगी और एकाकार हो जाएगी।

तदनुसार, लड़की ने एक सुंदर छोटी बच्ची के रूप में जन्म लिया। उनमें ज्ञान के प्रति एक अतृप्त प्यास थी और उन्होंने आध्यात्मिकता के प्रति गहरा झुकाव और आंतरिक आत्म के ज्ञान की खोज प्रदर्शित की। वह गहरे ध्यान में चली जाती थी और घंटों तक उसी अवस्था में रहती थी। फिर उसने सभी सांसारिक सुखों को त्यागने और गंभीर तपस्या करने के लिए जंगल में जाने का फैसला किया। यहीं पर उनकी मुलाकात भगवान राम से हुई और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया।

वह राम के साथ एकाकार होना चाहती थी, जैसा कि उसका लक्ष्य था। हालाँकि, राम ने यह जानते हुए कि यह उचित समय नहीं है, उनसे वादा किया कि वह अपने वनवास की समाप्ति के बाद उनसे दोबारा मिलेंगे। उसने उससे कहा कि अगर वह उसे उस समय पहचान लेगी तो वह उसकी इच्छा पूरी कर देगा।

राम ने अपना वचन निभाया और रावण के खिलाफ युद्ध जीतने के बाद उनसे मिलने गए। वह एक बूढ़े व्यक्ति के भेष में उसके पास आया, जिसे वैष्णवी पहचान नहीं सकी। जब राम ने अपना असली रूप प्रकट किया तो वह पूरी तरह से व्याकुल हो गयी। रमा ने हँसते हुए उससे कहा कि अभी उनके एक-दूसरे के साथ रहने का समय नहीं आया है। उन्होंने उसे यह भी आश्वासन दिया कि वे कलियुग के दौरान एकजुट होंगे, और उसे त्रिकुटा पहाड़ियों की तलहटी में अपना आश्रम स्थापित करने और गरीबों और निराश्रितों के उत्थान के लिए काम करने के लिए कहा।माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?

माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?
माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?
माँ वैष्णवी का आश्रम

 

राम के आशीर्वाद से लोगों को वैष्णवी की महिमा का पता चला और उनके आश्रम की बात दूर-दूर तक फैल गई। जल्द ही, भक्त और अनुयायी उनके दर्शन पाने के लिए उनके आश्रम में आने लगे।
वैष्णो देवी के एक भक्त श्रीधर ने एक भंडारे (सामुदायिक भोजन) का आयोजन किया जिसमें वैष्णो देवी की इच्छा के अनुसार पूरे गांव और महायोगी गुरु गोरक्षनाथजी को उनके सभी अनुयायियों के साथ आमंत्रित किया गया था। गुरु गोरक्षनाथ, भैरवनाथ सहित 300 से अधिक शिष्यों के साथ इस भंडारे में आये। दिव्य माँ की शक्ति देखकर भैरवनाथ आश्चर्यचकित हो गया। वह उसकी शक्तियों का परीक्षण करना चाहता था। इसके लिए उन्होंने गुरु गोरक्षनाथजी से अनुमति मांगी। गुरु गोरक्षनाथ ने भैरवनाथ से कहा कि उन्होंने इसकी अनुशंसा नहीं की है लेकिन यदि वह अभी भी वैष्णो देवी की शक्तियों का परीक्षण करना चाहते हैं, तो वे आगे बढ़ सकते हैं।
इसके बाद भैरवनाथ ने वैष्णो देवी को पकड़ने का प्रयास किया लेकिन उन्होंने उसका मुकाबला किया और फिर वहां से भागने का फैसला किया। वह अपनी तपस्या फिर से शुरू करने के लिए पहाड़ों में भाग गई। हालाँकि, भैरों नाथ ने वहाँ भी उसका पीछा करना जारी रखा।
पहाड़ों के रास्ते में, वैष्णवी ने बाणगंगा, चरण पादुका और अर्ध्क्वारी में कई पड़ाव लिए। अंततः वह उस गुफा तक पहुँची जहाँ उसने अपनी तपस्या जारी रखने का इरादा किया था। उसकी नाराजगी के कारण, भैरों नाथ भी उसके पीछे-पीछे वहां पहुंच गया। अंत में, सारा धैर्य खोकर, उसने अपने उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए उसे मारने का फैसला किया।

गुफा के मुहाने पर आकर माँ वैष्णो ने  उसका सिर काट दिया। भैरो नाथ माँ वैष्णो के चरणों में मृत पड़ा था, उसका कटा हुआ सिर जोर से उड़कर दूर पहाड़ी की चोटी पर गिर रहा था। उनकी मृत्यु के बाद उनकी आत्मा को अपनी मूर्खता का एहसास हुआ, वह देवी के पास पहुंची और उनसे अपने दुष्कर्मों के लिए क्षमा करने की प्रार्थना की। दयालु देवी को तुरंत उस पर दया आ गई और उसने उसे वरदान दिया कि उसके मंदिर में आने वाले प्रत्येक भक्त को अपनी तीर्थयात्रा पूरी करने के लिए भैरों के दर्शन भी करने होंगे।

तब देवी ने अपने ध्यान को निर्बाध रूप से जारी रखने के लिए अपने मानव रूप को त्यागने और एक चट्टान का रूप लेने का फैसला किया। इसलिए, वैष्णवी अपने भक्तों को साढ़े पांच फीट ऊंची चट्टान के रूप में दर्शन देती हैं, जिसके शीर्ष पर तीन पिंडियां या सिर हैं। वह गुफा जहां उन्होंने स्वयं को रूपांतरित किया था, अब श्री माता वैष्णो देवी का पवित्र मंदिर है और पिंडियां गर्भगृह का निर्माण करती हैं।
पंडित श्रीधर की कथा
वैष्णो देवी से जुड़ी और भी कई किंवदंतियाँ हैं। उनमें से एक का संबंध है कि पांडवों ने पवित्र गुफा का दौरा किया और वहां एक मंदिर बनाया। उसके बाद, भयानक राक्षस राजा हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद ने मंदिर की यात्रा की। हालाँकि, सबसे प्रसिद्ध किंवदंती एक ब्राह्मण श्रीधर की है, जो त्रिकुटा पर्वत की तलहटी में स्थित हंसाली नामक गाँव में रहते थे। यह गांव वर्तमान कटरा शहर के निकट स्थित है।

 

श्रीधर देवी शक्ति के कट्टर भक्त थे। वह बहुत गरीब था और मुश्किल से एक वक्त का भोजन जुटा पाता था। हालाँकि, वह खुश और संतुष्ट था, यह जानकर कि देवी उसे किसी भी नुकसान से बचाने के लिए हमेशा मौजूद थी। एक रात देवी वैष्णवी एक युवा लड़की या कन्या का रूप लेकर उनके सपने में प्रकट हुईं।

इस दर्शन से अभिभूत और अपने इष्ट देवता के प्रति अत्यंत आभारी श्रीधर ने गांव में एक भव्य भंडारा समारोह आयोजित करने का फैसला किया, साथ ही आसपास के सभी गांवों में रहने वाले लोगों को भी इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। उस दिन से, उन्होंने ग्रामीणों के घरों का दौरा करना शुरू कर दिया, और उनसे चावल, सब्जियां और अन्य प्रावधान दान करने का अनुरोध किया जो इस भंडारे के संचालन के लिए आवश्यक होंगे। जहाँ कुछ लोगों ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया, वहीं अधिकांश ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। कुछ लोगों ने उन्हें भंडारा आयोजित करने की योजना बनाने के लिए ताना भी मारा, जबकि वह खुद को खाना भी नहीं खिला पा रहे थे। जैसे-जैसे नियोजित भंडारे का दिन नजदीक आता गया, श्रीधर को चिंता होने लगी कि वह इतने सारे मेहमानों को कैसे खाना खिलाएगा।

माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?

भंडारे की पूर्वसंध्या पर श्रीधर को पलक तक नींद नहीं आयी। वह अगले दिन अपने मेहमानों को खिलाने के लिए अधिक भोजन और प्रावधान इकट्ठा करने के तरीकों और साधनों के बारे में सोचता रहा, लेकिन किसी भी समाधान पर नहीं पहुंच सका। अंत में, उसने देवी की इच्छा के सामने आत्मसमर्पण करने का निर्णय लिया और अगले दिन का सामना करने का फैसला किया जब भी यह उसके सामने आया।

अगली सुबह, श्रीधर ने अपनी झोपड़ी के बाहर पूजा (प्रार्थना सत्र) की तैयारी की। उनके मेहमानों का मध्य सुबह से ही आना शुरू हो गया। उसे इतने ध्यान से प्रार्थना करते हुए देखकर, उन्होंने उसे परेशान न करने का फैसला किया और जहां भी उन्हें बैठने की जगह मिली, आराम से बैठ गए। आश्चर्यजनक रूप से, उन्होंने पाया कि वे सभी श्रीधर की छोटी सी झोपड़ी के अंदर आराम से बैठ सकते थे। झोपड़ी वास्तव में छोटी थी और भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। फिर भी, ऐसा लग रहा था कि झोपड़ी के अंदर बहुत सारे लोगों को समायोजित करने के लिए पर्याप्त जगह थी।

अपनी पूजा समाप्त करने के बाद, श्रीधर ने अपनी आँखें खोलीं और भंडारे के लिए आए मेहमानों की चौंका देने वाली संख्या को देखा। वह अभी यह सोचना शुरू ही कर रहा था कि वह अपने मेहमानों को कैसे बताएगा कि वह उन्हें खाना नहीं खिला पाएगा, तभी उसने देवी वैष्णवी को अपनी छोटी सी झोपड़ी से बाहर निकलते देखा। देवी ने यह सुनिश्चित किया था कि सभी को उनकी पसंद का भोजन मिले और भोजन के अंत तक वे सभी खुश हों। भंडारा बहुत सफल रहा और उसके मेहमान पूरी तरह संतुष्ट होकर वहां से चले गए।
वैष्णो देवी तीर्थ की स्थापना
जब सभी ने अपना भोजन समाप्त कर लिया और भंडारा स्थल से चले गए, तो श्रीधर ने उस दिन की रहस्यमय घटनाओं का स्पष्टीकरण खोजने की कोशिश की। वह उस रहस्य को भी उजागर करना चाहता था जो वैष्णवी थी। उन्होंने देवी से स्वयं को प्रकट करने के लिए प्रार्थना की, लेकिन उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने बार-बार उसका नाम पुकारने की कोशिश की, लेकिन वह उसे दर्शन देने के लिए कभी नहीं आई। परेशान होकर और अंदर से खालीपन महसूस करते हुए, उसने उसे ढूंढने के अपने प्रयास छोड़ दिए।

एक रात, वैष्णवी उसके सपने में आई और उसे बताया कि वह वैष्णो देवी है, और उसे अपनी गुफा का स्थान भी दिखाया। प्रसन्न श्रीधर गुफा की खोज में निकल पड़े। हर बार जब वह अपना रास्ता भूल जाता था, तो सपने की दृष्टि उसके पास वापस आ जाती थी, और उसे उसी दिशा की सटीक दिशा बताती थी। अंततः उसे अपनी मंजिल मिल गई और वह अपने सामने अपने पसंदीदा देवता को देखकर अभिभूत हो गया। कहानी का एक संस्करण बताता है कि तीनों महादेवियाँ उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें तीन पिंडियों से भी परिचित कराया।माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?

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देवता ने उसे अपनी मूर्ति की पूजा करने का अधिकार दिया, साथ ही उससे अपने मंदिर की महिमा फैलाने के लिए भी कहा। इसके अलावा, उसने उसे वरदान दिया कि उसके चार बेटे होंगे। पंडित श्रीधर ने तब पूरी तरह से उनकी इच्छा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और अपना शेष जीवन देवी की पूजा में बिताने का फैसला किया। इस घटना की खबर चारों ओर फैल गई और जल्द ही, भक्त शक्तिशाली देवी, वैष्णो देवी की पूजा करने के लिए इस पवित्र गुफा में आने लगे।
दिव्य माँ की पुकार
माता वैष्णो देवी के अनुयायियों का मानना ​​है कि कोई भी उनके मंदिर में तब तक नहीं जा सकता जब तक कि वह उन्हें “बुलावा” जारी नहीं करती, यानी जब तक वह उन्हें अपने मंदिर में आने के लिए नहीं बुलाती। जाति, पंथ और सामाजिक स्थिति के बावजूद, यह कहा जाता है कि वैष्णो देवी के पवित्र मंदिर की यात्रा तभी सफल हो सकती है जब वह चाहे और भक्त को अपने दर्शन से आशीर्वाद दे। वास्तव में, ऐसा कहा जाता है कि कई भक्तों को इसका प्रत्यक्ष अनुभव होता है। यह विपरीत भी सत्य कहा गया है। यदि देवता का बुलावा आता है, तो जिन लोगों ने यात्रा की योजना नहीं बनाई थी, वे भी माता के मंदिर में उनके दर्शन करने अवश्य जाते हैं।

इसलिए, जो लोग उनके मंदिर में जाने के इच्छुक हैं, वे अपने दिल में एक उत्कट कामना करते हैं और उनसे अपनी कृपा बरसाने और उन्हें दर्शन देने की प्रार्थना करते हैं। फिर, वे उसकी इच्छा के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं और यह निर्णय उस पर छोड़ देते हैं कि उसके पवित्र निवास की यात्रा के लिए जाने का सही समय कब होगा।

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Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?

Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?

Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या                                 करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?

 

नवग्रह हिंदू खगोल विज्ञान के अंतर्गत आते हैं और हिंदू खगोलीय क्षेत्र में एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं। हिंदू खगोल विज्ञान, जिसकी उत्पत्ति वेदों के समय से हुई है, नौ ग्रहों की स्थिति और दुनिया और एक व्यक्ति पर उनके प्रभाव से संबंधित है। हिंदू ज्योतिष के अनुसार, किसी व्यक्ति के जन्म के समय ग्रहों की स्थिति उसके जीवन की संभावनाओं को निर्धारित करती है।

नौ ग्रहों को सामूहिक रूप से नवग्रह कहा जाता है। किसी भी बाधा, बाधा या दुर्भाग्य को दूर करने के लिए हिंदुओं द्वारा इन 9 ग्रहों की पूजा की जाती है। वे अधिकतर सभी मंदिरों में पाए जाते हैं और आस्थावान विश्वासी किसी अन्य देवता से प्रार्थना करने से पहले नवग्रहों की प्रार्थना करते हैं।

उन नौ ग्रहों में से सात का नाम सौर मंडल के ग्रहों के नाम पर रखा गया है और अन्य दो वास्तव में राक्षस हैं जो चाल से इस समूह में अपना रास्ता बनाने में कामयाब रहे – राहु और केतु। ग्रह मंडल में उनके स्थान के आधार पर, उन्हें शुभ या अशुभ माना जाता है। जबकि नवग्रह हर मंदिर में पाए जाते हैं, कुछ मंदिर ऐसे भी हैं जो पूरी तरह से उन्हें समर्पित हैं। ऐसा ही एक मंदिर है उज्जैन के बाहरी इलाके में स्थित नवग्रह मंदिर।

नवग्रहों का प्रभाव -हिन्दू  ज्योतिष के अनुसार सकारात्मक या नकारात्मक।

हिंदू ज्योतिष में नवग्रह व्यक्ति की खुशी, सफलता और सर्वांगीण समृद्धि को प्रभावित करते हैं। इन नौ ग्रहों में से प्रत्येक का अच्छा और बुरा, सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव जन्म कुंडली पर ग्रहों की विशिष्ट स्थिति आदि जैसे कारकों का परिणाम है। सत्व स्वभाव वाले ग्रह बृहस्पति, सूर्य और चंद्रमा हैं। रजस प्रकृति वाले ग्रह शुक्र और बुध हैं जबकि तमस प्रकृति वाले ग्रह मंगल, शनि, राहु और केतु हैं।

वैदिक ज्योतिष में इन नौ ग्रहों को विशिष्ट शक्तियों, प्रकृति और विशिष्ट गुणों वाले देवताओं के रूप में माना जाता है, जो इस पर निर्भर करता है कि इनमें से प्रत्येक ग्रह लोगों को क्या प्रदान करता है – सकारात्मक या नकारात्मक।

Navagrah Shanti upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?

सूर्य

(सूर्य): अन्य ग्रहों के समूह में, उसे आम तौर पर पूर्व की ओर मुख करके, केंद्र में खड़ा हुआ दिखाया जाता है। उसके चारों ओर बाकी सभी ग्रह अलग-अलग दिशाओं में हैं, लेकिन एक-दूसरे की ओर नहीं। वह एक पहिये वाले रथ पर सवार होते हैं जिसे सात घोड़े खींचते हैं जो सफेद रोशनी के सात रंगों और सप्ताह के सात दिनों का प्रतीक है। उन्हें रवि के नाम से भी जाना जाता है।

चंद्रमा

(चंद्र): छवियों में, उन्हें कभी भी पूर्ण व्यक्ति के रूप में चित्रित नहीं किया गया है। केवल उनके शरीर का ऊपरी हिस्सा दिखाया गया है, जिसके दोनों हाथों में कमल है और वह 10 घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर सवार हैं। इन्हें सोम के नाम से भी जाना जाता है।

मंगल

(मंगला): मंगला एक क्रूर देवता है जिसके दो हथियार हैं और दो मुद्राएं हैं। उसका परिवहन एक राम है.

बुध

(बुद्ध): बुध के चार हाथ हैं और वह रथ या सिंह पर सवार होते हैं। जिसमें से उनके तीन हाथों में तलवार, ढाल और गदा है और चौथा हाथ मुद्रा में है।

बृहस्पति (बृहस्पति): वह देवताओं के शिक्षक हैं और ऋग्वेद में उनकी प्रशंसा की गई है। उन्हें 8 घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर बैठे हुए दिखाया गया है, जिनमें से प्रत्येक ज्ञान की एक शाखा दिखा रहा है।

शुक्र (शुक्र): शुक्र राक्षसों के गुरु हैं। उनके चार हाथ हैं और वे 8 घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर चलते हैं। उनके तीन हाथों में एक छड़ी, एक माला, एक सोने का बर्तन है जबकि चौथा हाथ मुद्रा में है।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?

शनि

(शनि): शनि एक देवता हैं जो अपनी ग्रह स्थिति से भाग्य बनाते या बिगाड़ते हैं जिसके लिए लोग उनसे डरते हैं। उन्हें चार हाथों से रथ, भैंस या गिद्ध पर सवार दिखाया गया है। उनके तीन हाथ हैं जिनमें वह एक तीर, एक धनुष और एक भाला रखते हैं जबकि उनका दूसरा हाथ मुद्रा में है।

राहु:

वह कुछ हद तक बुद्ध (बुध) जैसा दिखता है लेकिन दोनों देवताओं के मूल स्वभाव में भिन्नता है। जिस तरह बुद्ध सफेद शेर की सवारी करते हैं, उसी तरह उन्हें काले शेर की सवारी करते हुए दिखाया गया है। लेकिन बुद्ध की तरह, वह सभी समान हथियार रखता है।

केतु

: संस्कृत में केतु का अर्थ धूमकेतु होता है। कहा जाता है कि उनके शरीर में एक सांप की पूंछ है और उनका स्वभाव धूमकेतु से काफी मेल खाता है। तस्वीरों में उन्हें गिद्ध की सवारी करते हुए और गदा पकड़े हुए दिखाया गया है।

सभी नवग्रहों में राशि चक्र में स्थिर तारों की पृष्ठभूमि के संबंध में सापेक्ष गति होती है। इसमें ग्रह शामिल हैं: मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि, सूर्य, चंद्रमा, साथ ही आकाश में स्थिति, राहु (उत्तर या आरोही चंद्र नोड) और केतु (दक्षिण या अवरोही चंद्र नोड)।

कुछ के अनुसार, ग्रह “प्रभाव के चिह्नक” हैं जो जीवित प्राणियों के व्यवहार पर कर्म प्रभाव को इंगित करते हैं। वे स्वयं प्रेरक तत्व नहीं हैं[2] लेकिन उनकी तुलना यातायात संकेतों से की जा सकती है।

ज्योतिषीय ग्रंथ प्रश्न मार्ग के अनुसार,

कई अन्य आध्यात्मिक संस्थाएं हैं जिन्हें ग्रह या आत्माएं कहा जाता है। कहा जाता है कि सभी (नवग्रहों को छोड़कर) भगवान शिव या रुद्र के क्रोध से पैदा हुए हैं। अधिकांश ग्रह आमतौर पर प्रकृति में हानिकारक होते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो अच्छे हो सकते हैं।[3] द पुराणिक इनसाइक्लोपीडिया नामक पुस्तक में ‘ग्रह पिंड’ शीर्षक के तहत ऐसे ग्रहों (आत्माओं या आध्यात्मिक संस्थाओं आदि) की एक सूची दी गई है, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे बच्चों को पीड़ित करते हैं, आदि। इसके अलावा एक ही पुस्तक में विभिन्न स्थानों पर नाम भी दिए गए हैं। आत्माओं (ग्रहों) की जानकारी दी गई है, जैसे ‘स्खंड ग्रह’ जिसके बारे में कहा जाता है कि यह गर्भपात का कारण बनता है।

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अंतर्वस्तु
ज्योतिष

ज्योतिषियों का दावा है कि ग्रह पृथ्वी से जुड़े प्राणियों के आभामंडल (ऊर्जा निकाय) और दिमाग को प्रभावित करते हैं। प्रत्येक ग्रह में एक विशिष्ट ऊर्जा गुणवत्ता होती है, जिसका वर्णन उसके शास्त्रीय और ज्योतिषीय संदर्भों के माध्यम से रूपक रूप में किया जाता है। जब मनुष्य किसी जन्म में अपनी पहली सांस लेते हैं तो ग्रह की ऊर्जाएं एक विशिष्ट तरीके से मनुष्यों की व्यक्तिगत आभा से जुड़ जाती हैं। ये ऊर्जा संबंध पृथ्वी के मूल निवासियों के साथ तब तक बने रहते हैं जब तक उनका वर्तमान शरीर जीवित रहता है।[5] “नौ ग्रह सार्वभौमिक, आदर्श ऊर्जा के ट्रांसमीटर हैं। प्रत्येक ग्रह के गुण स्थूल ब्रह्मांड और सूक्ष्म ब्रह्मांड दोनों में ध्रुवों के समग्र संतुलन को बनाए रखने में मदद करते हैं – जैसा कि ऊपर, इसलिए नीचे…”[6]

मनुष्य संयम के माध्यम से उस ग्रह या उसके इष्टदेव के साथ किसी विशिष्ट ग्रह की चुनी हुई ऊर्जा के साथ खुद को जोड़ने में भी सक्षम है। विशिष्ट देवताओं की पूजा के प्रभाव किसी उपासक के जन्म के समय उनकी सापेक्ष ऊर्जाओं के लेआउट के अनुसार प्रकट होते हैं, विशेष रूप से संबंधित ग्रह द्वारा ग्रहण किए गए भावों पर निर्भर करता है। “हमें हमेशा प्राप्त होने वाली ब्रह्मांडीय ऊर्जा में विभिन्न खगोलीय पिंडों से आने वाली विभिन्न ऊर्जाएँ शामिल होती हैं।” “जब हम बार-बार किसी मंत्र का उच्चारण करते हैं तो हम एक विशेष आवृत्ति पर ध्यान केंद्रित कर रहे होते हैं और यह आवृत्ति ब्रह्मांडीय ऊर्जा के साथ संपर्क स्थापित करती है और इसे हमारे शरीर और परिवेश में खींच लेती है।”

ग्रहों, तारों और अन्य खगोलीय पिंडों के जीवित ऊर्जा निकाय होने का विचार जो ब्रह्मांड के अन्य प्राणियों को प्रभावित करते हैं, कई प्राचीन संस्कृतियों में क्रॉस-रेफरेंस हैं और कई आधुनिक काल्पनिक कार्यों की पृष्ठभूमि बन गए हैं

सूर्य
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Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
मुख्य लेख: सूर्या

सूर्य (देवनागरी: सूर्य, सूर्य) प्रमुख, सौर देवता, आदित्यों में से एक, कश्यप के पुत्र और उनकी पत्नियों में से एक अदिति, [8] इंद्र के, या द्यौस पितर (संस्करणों के आधार पर) हैं। उसके बाल और भुजाएँ सोने की हैं। उनके रथ को सात घोड़े खींचते हैं, जो सात चक्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह “रवि-वर” या रविवार के स्थान पर “रवि” की अध्यक्षता करते हैं।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?

हिंदू धार्मिक साहित्य में, सूर्य को विशेष रूप से भगवान के दृश्य रूप के रूप में वर्णित किया गया है जिसे कोई भी हर दिन देख सकता है। इसके अलावा, शैव और वैष्णव अक्सर सूर्य को क्रमशः शिव और विष्णु का एक पहलू मानते हैं। उदाहरण के लिए, वैष्णवों द्वारा सूर्य को सूर्य नारायण कहा जाता है। शैव धर्मशास्त्र में, सूर्य को शिव के आठ रूपों में से एक कहा जाता है, जिन्हें अष्टमूर्ति कहा जाता है।

ऐसा कहा जाता है कि वह सत्त्वगुण का है और आत्मा, राजा, उच्च पदस्थ व्यक्तियों या पिता का प्रतिनिधित्व करता है।

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, सूर्य की अधिक प्रसिद्ध संतानों में शनि (शनि), यम (मृत्यु के देवता) और कर्ण (महाभारत) प्रसिद्ध हैं।

गायत्री मंत्र या आदित्य हृदय मंत्र (आदित्यहृदयम्) का आह्वान सूर्य देव को प्रसन्न करने के लिए जाना जाता है।

सूर्य से संबंधित अनाज साबुत गेहूं है और सूर्य से संबंधित संख्या 1 है।

Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
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चंद्रा
मुख्य लेख: चंद्रा
चंद्र (देवनागरी: चंद्र) एक चंद्र देवता हैं। चंद्र (चंद्रमा) को सोम के नाम से भी जाना जाता है और इसकी पहचान वैदिक चंद्र देवता सोम से की जाती है। उन्हें युवा, सुंदर, गोरा बताया गया है; वह दो भुजाओं वाला था और उसके हाथों में गदा और कमल था।[9] वह हर रात अपने रथ (चंद्रमा) पर दस सफेद घोड़ों या एक मृग द्वारा खींचकर आकाश में भ्रमण करता है। वह ओस से जुड़ा हुआ है, और इस तरह, उर्वरता के देवताओं में से एक है। उन्हें निशादिपति (निशा=रात; आदिपति=भगवान) और क्षुपरक (रात को प्रकाशित करने वाला) भी कहा जाता है।[10] वह सोम के रूप में, सोमवार या सोमवार की अध्यक्षता करते हैं। वह सत्त्वगुण का है और मन, रानी या माँ का प्रतिनिधित्व करता है।

मंगला
मुख्य लेख: मंगला मंगला (देवनागरी: मंगल) लाल ग्रह मंगल के देवता हैं। मंगल को संस्कृत में अंगारक (‘वह जिसका रंग लाल हो’) या भौम (‘भूमि का पुत्र’) भी कहा जाता है। वह युद्ध के देवता हैं और ब्रह्मचारी हैं। उन्हें पृथ्वी देवी, पृथ्वी या भूमि का पुत्र माना जाता है। वह मेष और वृश्चिक राशियों के स्वामी और गुप्त विज्ञान (रुचक महापुरुष योग) के शिक्षक हैं। वह स्वभाव से तमस गुण का है और ऊर्जावान कार्रवाई, आत्मविश्वास और अहंकार का प्रतिनिधित्व करता है। वह लाल या ज्वाला रंग में चित्रित, चार भुजाओं वाला, त्रिशूल, गदा, कमल और भाला लिए हुए है। उनका वाहन (पर्वत) एक मेढ़ा है। वह ‘मंगल-वार’ या मंगलवार की अध्यक्षता करते हैं।
एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान मंगलनाथ (उज्जैन, मध्य प्रदेश, भारत में) है। जो लोग अपनी कुंडली में मंगल ग्रह से संबंधित परेशानियों से पीड़ित होते हैं वे मंगलवार के दिन वहां जाते हैं। मंगल ग्रह की पूजा और संतुष्टि करने से भक्तों को मंगल देवता का आशीर्वाद और दया प्राप्त होती है। भारत में मंगल देवता के केवल दो मंदिर हैं जिनमें से एक अमलनेर (महाराष्ट्र) में है।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?

बुद्ध
मुख्य- लेख: बुद्ध
बुद्ध (देवनागरी: बुध) बुध ग्रह के देवता हैं और तारा (तारक) के साथ चंद्र के पुत्र हैं। वह व्यापार के देवता और व्यापारियों के रक्षक भी हैं। वह राजस गुण का है और संचार का प्रतिनिधित्व करता है।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?

उन्हें सौम्य, वाक्पटु और हरे रंग के रूप में दर्शाया गया है। रामघुर मंदिर में उन्हें एक पंख वाले शेर की सवारी करते हुए, एक कैंची, एक गदा और एक ढाल पकड़े हुए दर्शाया गया है। अन्य उदाहरणों में, वह राजदंड और कमल धारण करता है और कालीन या चील या शेरों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर सवार होता है।

बुद्ध ‘बुध-वार’ या बुधवार की अध्यक्षता करते हैं। आधुनिक हिंदी, तेलुगु, बंगाली, मराठी, कन्नड़ और गुजराती में बुधवार को बुधवार कहा जाता है; तमिल और मलयालम में इसे बुधन कहा जाता है।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?

बृहस्पति
मुख्य लेख: बृहस्पति

बृहस्पति (देवनागरी: बृहस्पति) देवताओं के गुरु हैं, धर्मपरायणता और धर्म के प्रतीक हैं, प्रार्थनाओं और बलिदानों के मुख्य प्रदाता हैं, जिन्हें देवताओं के पुरोहित के रूप में दर्शाया जाता है जिनके साथ वह मनुष्यों के लिए प्रार्थना करते हैं। वह बृहस्पति ग्रह के स्वामी हैं। वह सत्त्वगुण का है और ज्ञान और शिक्षण का प्रतिनिधित्व करता है। उन्हें अक्सर “गुरु” के रूप में जाना जाता है।

हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, वह देवताओं के गुरु और दानवों के गुरु शुक्राचार्य के कट्टर शत्रु हैं। उन्हें ज्ञान और वाक्पटुता के देवता, गुरु के रूप में भी जाना जाता है, जिनके लिए विभिन्न कार्यों का श्रेय दिया जाता है, जैसे कि “नास्तिक” बार्हस्पत्य सूत्र।

उनका तत्व या तत्व आकाश या ईथर है, और उनकी दिशा उत्तर-पूर्व है। उनका वर्णन पीले या सुनहरे रंग का है और उनके हाथ में एक छड़ी, एक कमल और उनकी माला है। वह ‘गुरु-वर’, बृहस्पतिवर या गुरुवार की अध्यक्षता करते हैं। [11]

शुक्र
मुख्य लेख: शुक्र
शुक्र ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है.

शुक्र, संस्कृत में “स्पष्ट, शुद्ध” या “चमक, स्पष्टता” के लिए, भृगु और उशना के पुत्र और दैत्यों के गुरु और असुरों के गुरु का नाम है, जो शुक्र ग्रह से पहचाना जाता है (सम्मानजनक, शुक्राचार के साथ) – य शुक्राचार्य). वह ‘शुक्र-वार’ या शुक्रवार की अध्यक्षता करते हैं। वह स्वभाव से राजस है और धन, आनंद और प्रजनन का प्रतिनिधित्व करता है।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?

वह श्वेत वर्ण, मध्यम आयु और प्रसन्न चेहरे वाला है। उन्हें ऊँट, घोड़े या मगरमच्छ पर सवार विभिन्न प्रकार से वर्णित किया गया है। उनके पास एक छड़ी, माला और एक कमल और कभी-कभी एक धनुष और तीर होता है। [12]

ज्योतिष में, एक दशा या ग्रह काल होता है जिसे शुक्र दशा के नाम से जाना जाता है जो किसी व्यक्ति की कुंडली में 20 वर्षों तक सक्रिय रहता है। माना जाता है कि यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में शुक्र अच्छी स्थिति में है और साथ ही उसकी कुंडली में शुक्र एक महत्वपूर्ण लाभकारी ग्रह है तो यह दशा व्यक्ति को अधिक धन, भाग्य और विलासिता प्रदान करती है।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?

राहु
मुख्य लेख: राहु

राहु (देवनागरी: राहु) आरोही/उत्तर चंद्र नोड का देवता है। हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, राहु राक्षसी सांप का सिर है जो सूर्य या चंद्रमा को निगल जाता है, जिससे ग्रहण होता है। कला में उन्हें आठ काले घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर सवार बिना शरीर वाले ड्रैगन के रूप में चित्रित किया गया है। वह एक तमस असुर है जो अपने नियंत्रण वाले किसी भी व्यक्ति के जीवन के किसी भी क्षेत्र को अराजकता में डुबाने की पूरी कोशिश करता है। राहु काल को अशुभ माना जाता है।

पौराणिक कथा के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान, असुर राहु ने कुछ दिव्य अमृत पी लिया था। लेकिन इससे पहले कि अमृत उसके गले से गुजर पाता, मोहिनी (विष्णु का महिला अवतार) ने उसका सिर काट दिया। हालाँकि, सिर अमर रहा और राहु कहलाया, जबकि शेष शरीर केतु बन गया। ऐसा माना जाता है कि यह अमर सिर कभी-कभी सूर्य या चंद्रमा को निगल जाता है, जिससे ग्रहण होते हैं। फिर, सूर्य या चंद्रमा गर्दन के छिद्र से होकर गुजरता है, जिससे ग्रहण समाप्त हो जाता है।Navagrah Shanti upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?

केतु
मुख्य लेख: केतु (पौराणिक कथा)

केतु (देवनागरी: केतु) अवरोही/दक्षिण चंद्र नोड का स्वामी है। केतु को आम तौर पर “छाया” ग्रह कहा जाता है। उन्हें राक्षस साँप की पूँछ माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसका मानव जीवन और पूरी सृष्टि पर जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में यह किसी को प्रसिद्धि की चरम सीमा तक पहुंचाने में मदद करता है। वह स्वभाव से तमस है और अलौकिक प्रभावों का प्रतिनिधित्व करता है।

खगोलीय दृष्टि से, केतु और राहु आकाशीय गोले पर चलते समय सूर्य और चंद्रमा के पथों के प्रतिच्छेदन बिंदुओं को दर्शाते हैं। इसलिए, राहु और केतु को क्रमशः उत्तर और दक्षिण चंद्र नोड कहा जाता है। यह तथ्य कि ग्रहण तब घटित होता है जब सूर्य और चंद्रमा इनमें से किसी एक बिंदु पर होते हैं, सूर्य और चंद्रमा के निगलने की कहानी को जन्म देता है|

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विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन विधि  

विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन विधि

विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन विधि
विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन                                                                  विधि

 

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥

ॐ अथ सकलसौभाग्यदायक श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् ।

शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ॥ १॥

यस्य द्विरदवक्त्राद्याः पारिषद्याः परः शतम् ।
विघ्नं निघ्नन्ति सततं विष्वक्सेनं तमाश्रये ॥ २॥

व्यासं वसिष्ठनप्तारं शक्तेः पौत्रमकल्मषम् ।
पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम् ॥ ३॥

व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे ।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः ॥ ४॥

अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने ।
सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे ॥ ५॥

यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात् ।
विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ ६॥

ॐ नमो विष्णवे प्रभविष्णवे ।
श्रीवैशम्पायन उवाच —
श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः ।
युधिष्ठिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत ॥ ७॥

युधिष्ठिर उवाच —
किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम् ।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ॥ ८॥

को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः ।
किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् ॥ ९॥

भीष्म उवाच —
जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम् ।
स्तुवन् नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः ॥ १०॥

तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम् ।
ध्यायन् स्तुवन् नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च ॥ ११॥

अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम् ।
लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् ॥ १२॥

ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम् ।
लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भवम् ॥ १३॥

एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः ।
यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा ॥ १४॥

परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः ।
परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणम् ॥ १५॥

पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम् ।
दैवतं दैवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता ॥ १६॥

यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे ।
यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये ॥ १७॥

तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते ।
विष्णोर्नामसहस्रं मे श‍ृणु पापभयापहम् ॥ १८॥

यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः ।
ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये ॥ १९॥

ऋषिर्नाम्नां सहस्रस्य वेदव्यासो महामुनिः ॥

छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो भगवान् देवकीसुतः ॥ २०॥

अमृतांशूद्भवो बीजं शक्तिर्देवकिनन्दनः ।
त्रिसामा हृदयं तस्य शान्त्यर्थे विनियोज्यते ॥ २१॥

विष्णुं जिष्णुं महाविष्णुं प्रभविष्णुं महेश्वरम् ॥

अनेकरूप दैत्यान्तं नमामि पुरुषोत्तमं ॥ २२ ॥

विनियोगः।

श्रीवेदव्यास उवाच ---
ॐ अस्य श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रमहामन्त्रस्य ।
श्री वेदव्यासो भगवान् ऋषिः ।
अनुष्टुप् छन्दः ।
श्रीमहाविष्णुः परमात्मा श्रीमन्नारायणो देवता ।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजम् ।
देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तिः ।
उद्भवः क्षोभणो देव इति परमो मन्त्रः ।
शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकम् ।
शार्ङ्गधन्वा गदाधर इत्यस्त्रम् ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति नेत्रम् ।
त्रिसामा सामगः सामेति कवचम् ।
आनन्दं परब्रह्मेति योनिः ।
 विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन विधि  
विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन विधि

श्रीविश्वरूप इति ध्यानम् ।

श्रीमहाविष्णुप्रीत्यर्थे सहस्रनामस्तोत्रपाठे विनियोगः ॥

अथ अगन्यसः ।
ॐ शिरसि वेदव्यासऋषये नमः ।
मुखे अनुष्टुप्छन्दसे नमः ।
हृदि श्रीकृष्णपरमात्मदेवतायै नमः ।
गुह्ये अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजाय नमः ।
पादयोर्देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तये नमः ।
सर्वाङ्गे शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकाय नमः ।
करसम्पूटे मम श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः ॥

इति ऋषयादिन्यासः ॥

अथ करन्यासः ।
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कार इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति तर्जनीभ्यां नमः ।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मेति मध्यमाभ्यां नमः ।
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्य इत्यनामिकाभ्यां नमः ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वीति कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
इति करन्यासः ।
अथ षडङ्गन्यासः ।
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कार इति हृदयाय नमः ।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति शिरसे स्वाहा ।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मेति शिखायै वषट् ।
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्य इति कवचाय हुम् ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वीति नेत्रत्रयाय वौषट् ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इत्यस्त्राय फट् ।
इति षडङ्गन्यासः ॥विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन विधि

श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे विष्णोर्दिव्यसहस्रनामजपमहं
 विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन विधि  
विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन विधि

 

करिष्ये इति सङ्कल्पः ।
अथ ध्यानम् ।
क्षीरोदन्वत्प्रदेशे शुचिमणिविलसत्सैकतेर्मौक्तिकानां
मालाकॢप्तासनस्थः स्फटिकमणिनिभैर्मौक्तिकैर्मण्डिताङ्गः ।
शुभ्रैरभ्रैरदभ्रैरुपरिविरचितैर्मुक्तपीयूष वर्षैः
आनन्दी नः पुनीयादरिनलिनगदा शङ्खपाणिर्मुकुन्दः ॥ १॥

भूः पादौ यस्य नाभिर्वियदसुरनिलश्चन्द्र सूर्यौ च नेत्रे
कर्णावाशाः शिरो द्यौर्मुखमपि दहनो यस्य वास्तेयमब्धिः ।
अन्तःस्थं यस्य विश्वं सुरनरखगगोभोगिगन्धर्वदैत्यैः
चित्रं रंरम्यते तं त्रिभुवन वपुषं विष्णुमीशं नमामि ॥ २॥

ॐ शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं var योगिहृद्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥ ३॥

मेघश्यामं पीतकौशेयवासं
श्रीवत्साङ्कं कौस्तुभोद्भासिताङ्गम् ।
पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्षं
विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाथम् ॥ ४॥

नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते ।
अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ ५॥

सशङ्खचक्रं सकिरीटकुण्डलं
सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् ।
सहारवक्षःस्थलकौस्तुभश्रियं var स्थलशोभिकौस्तुभं
नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम् ॥ ६॥

छायायां पारिजातस्य हेमसिंहासनोपरि
आसीनमम्बुदश्याममायताक्षमलंकृतम् ।
चन्द्राननं चतुर्बाहुं श्रीवत्साङ्कित वक्षसं
रुक्मिणी सत्यभामाभ्यां सहितं कृष्णमाश्रये ॥ ७॥
स्तोत्रम् ।
हरिः ॐ ।
विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः ॥ १॥

पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः ।
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ॥ २॥

योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः ।
नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः ॥ ३॥

सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः ।
सम्भवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ॥ ४॥

स्वयम्भूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ॥ ५॥

अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ॥ ६॥

अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ॥ ७॥

ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ॥ ८॥

ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान् ॥ ९॥

सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः ।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ॥ १०॥

अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः ।
वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः ॥ ११॥

वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्माऽसम्मितः समः ।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ॥ १२॥

रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः ।
अमृतः शाश्वतस्थाणुर्वरारोहो महातपाः ॥ १३॥

सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः ।
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कविः ॥ १४॥

लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः ॥ १५॥

भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः ।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ॥ १६॥

उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरूर्जितः ।
अतीन्द्रः सङ्ग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ॥ १७॥

वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः ।
अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ॥ १८॥

महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः ।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक् ॥ १९॥

महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।
अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः ॥ २०॥

मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ॥ २१॥

अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः सन्धाता सन्धिमान् स्थिरः ।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ॥ २२॥

गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः ॥ २३॥

अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान् न्यायो नेता समीरणः ।
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥ २४॥

आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सम्प्रमर्दनः ।
अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः ॥ २५॥

सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः ।
सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः ॥ २६॥

असङ्ख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः ।
सिद्धार्थः सिद्धसङ्कल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ॥ २७॥

वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः ॥ २८॥

सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः ।
नैकरूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ॥ २९॥

ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः ।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः ॥ ३०॥

अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुः सुरेश्वरः ।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः ॥ ३१॥

भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः ।
कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः ॥ ३२॥

युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।
अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित् ॥ ३३॥

इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः ।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः ॥ ३४॥

अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।
अपांनिधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ॥ ३५॥

स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः ॥ ३६॥

अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ॥ ३७॥

पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत् ।
महर्द्धिरृद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः ॥ ३८॥

अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।
सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान् समितिञ्जयः ॥ ३९॥

विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः ।
महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ॥ ४०॥

उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ॥ ४१॥

व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः ।
परर्द्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ॥ ४२॥

रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयोऽनयः । or विरामो विरतो
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः ॥ ४३॥

वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ॥ ४४॥

ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ॥ ४५॥

विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम् ।
अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ॥ ४६॥

अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयूपो महामखः ।
नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ॥ ४७॥

यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् ॥ ४८॥

सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत् ।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ॥ ४९॥

स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत् ।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ॥ ५०॥

धर्मगुब्धर्मकृद्धर्मी सदसत्क्षरमक्षरम् ।
अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः ॥ ५१॥

गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः ॥ ५२॥

उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।
शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ॥ ५३॥

सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः ।
विनयो जयः सत्यसन्धो दाशार्हः सात्वताम्पतिः ॥ ५४॥ विनियोज्यः

जीवो विनयिता साक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः ।
अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोऽन्तकः ॥ ५५॥

अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।
आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ॥ ५६॥

महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाश‍ृङ्गः कृतान्तकृत् ॥ ५७॥

महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी ।
गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ॥ ५८॥

वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः सङ्कर्षणोऽच्युतः ।
वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ॥ ५९॥

भगवान् भगहाऽऽनन्दी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः ॥ ६०॥

सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।
दिवस्पृक् सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ॥ ६१॥ var दिविस्पृक्
त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक् ।
संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम् ॥ ६२॥

शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ॥ ६३॥

अनिवर्ती निवृत्तात्मा सङ्क्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतांवरः ॥ ६४॥

श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः ॥ ६५॥

स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः ।
विजितात्माऽविधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ॥ ६६॥

उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ॥ ६७॥

अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः ।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ॥ ६८॥

कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ॥ ६९॥

कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः ।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनञ्जयः ॥ ७०॥

ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।
ब्रह्मविद् ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ॥ ७१॥

महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ॥ ७२॥

स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ॥ ७३॥

मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ॥ ७४॥

सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ॥ ७५॥

भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः ।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः ॥ ७६॥

विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान् ।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ॥ ७७॥

एको नैकः सवः कः किं यत् तत्पदमनुत्तमम् ।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ॥ ७८॥

सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः ॥ ७९॥

अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक् ।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ॥ ८०॥

तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकश‍ृङ्गो गदाग्रजः ॥ ८१॥

चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः ।
चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात् ॥ ८२॥

समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ॥ ८३॥

शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः ।
इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ॥ ८४॥

उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः ।
अर्को वाजसनः श‍ृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी ॥ ८५॥

सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ॥ ८६॥

कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः ।
अमृताशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ॥ ८७॥

सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।
न्यग्रोधोऽदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः ॥ ८८॥

सहस्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।
अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः ॥ ८९॥

अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ॥ ९०॥

भारभृत् कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥ ९१॥

धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः ।
अपराजितः सर्वसहो नियन्ताऽनियमोऽयमः ॥ ९२॥

सत्त्ववान् सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।
अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत् प्रीतिवर्धनः ॥ ९३॥

विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग्विभुः ।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ॥ ९४॥

अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ॥ ९५॥

सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः ।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः ॥ ९६॥

अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ॥ ९७॥

अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणांवरः ।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ॥ ९८॥

उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः ।
वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः ॥ ९९॥

अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः ।
चतुरश्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ॥ १००॥

अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः ।
जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ॥ १०१॥

आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः ।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ॥ १०२॥

प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः ।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ॥ १०३॥

भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः ॥ १०४॥

यज्ञभृद् यज्ञकृद् यज्ञी यज्ञभुग् यज्ञसाधनः ।
यज्ञान्तकृद् यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ॥ १०५॥

आत्मयोनिः स्वयञ्जातो वैखानः सामगायनः ।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ॥ १०६॥

शङ्खभृन्नन्दकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ॥ १०७॥

सर्वप्रहरणायुध ॐ नम इति ।
वनमाली गदी शार्ङ्गी शङ्खी चक्री च नन्दकी ।
श्रीमान् नारायणो विष्णुर्वासुदेवोऽभिरक्षतु ॥ १०८॥

श्री वासुदेवोऽभिरक्षतु ॐ नम इति ।
उत्तरन्यासः ।
भीष्म उवाच —
इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः ।
नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम् ॥ १॥

य इदं श‍ृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत् ।
नाशुभं प्राप्नुयात्किञ्चित्सोऽमुत्रेह च मानवः ॥ २॥

वेदान्तगो ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत् ।
वैश्यो धनसमृद्धः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात् ॥ ३॥

धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात् ।
कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी प्राप्नुयात्प्रजाम् ॥ ४॥

भक्तिमान् यः सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः ।
सहस्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत् ॥ ५॥

यशः प्राप्नोति विपुलं ज्ञातिप्राधान्यमेव च ।
अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम् ॥ ६॥

न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति ।
भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरूपगुणान्वितः ॥ ७॥

रोगार्तो मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।
भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ॥ ८॥

दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम् ।
स्तुवन्नामसहस्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः ॥ ९॥

वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायणः ।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ॥ १०॥

न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते ॥ ११॥

इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।
युज्येतात्मसुखक्षान्तिश्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः ॥ १२॥

न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः ।
भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे ॥ १३॥

द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः ।
वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः ॥ १४॥

ससुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम् ।
जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम् ॥ १५॥

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्त्वं तेजो बलं धृतिः ।
वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च ॥ १६॥

सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्प्यते । var?? कल्पते
आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ॥ १७॥

ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः ।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम् ॥ १८॥

योगो ज्ञानं तथा साङ्ख्यं विद्याः शिल्पादि कर्म च ।
वेदाः शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात् ॥ १९॥

एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः ।
त्रींल्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः ॥ २०॥

इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम् ।
पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च ॥ २१॥

विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभुमव्ययम् ।
भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम् ॥ २२॥

न ते यान्ति पराभवम् ॐ नम इति ।
अर्जुन उवाच —
पद्मपत्रविशालाक्ष पद्मनाभ सुरोत्तम ।
भक्तानामनुरक्तानां त्राता भव जनार्दन ॥ २३॥

श्रीभगवानुवाच —
यो मां नामसहस्रेण स्तोतुमिच्छति पाण्डव ।
सोहऽमेकेन श्लोकेन स्तुत एव न संशयः ॥ २४॥

स्तुत एव न संशय ॐ नम इति ।
व्यास उवाच —
वासनाद्वासुदेवस्य वासितं भुवनत्रयम् ।
सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥ २५॥

श्री वासुदेव नमोऽस्तुत ॐ नम इति ।
पार्वत्युवाच —
केनोपायेन लघुना विष्णोर्नामसहस्रकम् ।
पठ्यते पण्डितैर्नित्यं श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो ॥ २६॥

ईश्वर उवाच —
श्रीराम राम रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ॥ २७॥

श्रीरामनाम वरानन ॐ नम इति ।
ब्रह्मोवाच —
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये
सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे ।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते
सहस्रकोटियुगधारिणे नमः ॥ २८॥

सहस्रकोटियुगधारिणे ॐ नम इति ।विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन विधि

ॐ तत्सदिति श्रीमहाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यामानुशासनिके
 विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन विधि  
विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन विधि
पर्वणि भीष्मयुधिष्ठिरसंवादे श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रम् ॥

सञ्जय उवाच —
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ २९॥

श्रीभगवानुवाच —
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ३०॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ३१॥

आर्ताः विषण्णाः शिथिलाश्च भीताः घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः ।
सङ्कीर्त्य नारायणशब्दमात्रं विमुक्तदुःखाः सुखिनो भवन्ति ॥ ३२॥ भवन्तु

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात् । प्रकृतिस्वभावात् ।
करोमि यद्यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि ॥ ३३॥

इति श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
ॐ तत् सत् ।विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन विधि

महाभारते अनुशासनपर्वणि

ॐ आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥

आर्तानामार्तिहन्तारं भीतानां भीतिनाशनम् ।
द्विषतां कालदण्डं तं रामचन्द्रं नमाम्यहम् ॥

नमः कोदण्डहस्ताय सन्धीकृतशराय च ।
खण्डिताखिलदैत्याय रामायऽऽपन्निवारिणे ॥

रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥

अग्रतः पृष्ठतश्चैव पार्श्वतश्च महाबलौ ।
आकर्णपूर्णधन्वानौ रक्षेतां रामलक्ष्मणौ ॥

सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन् ममाग्रतो नित्यं रामः पातु सलक्ष्मणः ॥

अच्युतानन्तगोविन्द नामोच्चारणभेषजात् ।
नश्यन्ति सकला रोगास्सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥

सत्यं सत्यं पुनस्सत्यमुद्धृत्य भुजमुच्यते ।
वेदाच्छास्त्रं परं नास्ति न देवं केशवात्परम् ॥

शरीरे जर्झरीभूते व्याधिग्रस्ते कळेवरे ।
औषधं जाह्नवीतोयं वैद्यो नारायणो हरिः ॥

आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः ॥

यदक्षरपदभ्रष्टं मात्राहीनं तु यद्भवेत् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव नारायण नमोऽस्तु ते ॥

विसर्गबिन्दुमात्राणि पदपादाक्षराणि च ।
न्यूनानि चातिरिक्तानि क्षमस्व पुरुषोत्तम ॥
नमः कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने ।
नमस्ते केशवानन्त वासुदेव नमोऽस्तुते ॥

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥

आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् ।
सर्वदेवनमस्कारः केशवं प्रति गच्छति ॥

एष निष्कण्टकः पन्था यत्र सम्पूज्यते हरिः ।
कुपथं तं विजानीयाद् गोविन्दरहितागमम् ॥

सर्ववेदेषु यत्पुण्यं सर्वतीर्थेषु यत्फलम् ।
तत्फलं समवाप्नोति स्तुत्वा देवं जनार्दनम् ॥

यो नरः पठते नित्यं त्रिकालं केशवालये ।
द्विकालमेककालं वा क्रूरं सर्वं व्यपोहति ॥

दह्यन्ते रिपवस्तस्य सौम्याः सर्वे सदा ग्रहाः ।
विलीयन्ते च पापानि स्तवे ह्यस्मिन् प्रकीर्तिते ॥

येने ध्यातः श्रुतो येन येनायं पठ्यते स्तवः ।
दत्तानि सर्वदानानि सुराः सर्वे समर्चिताः ॥

इह लोके परे वापि न भयं विद्यते क्वचित् ।
नाम्नां सहस्रं योऽधीते द्वादश्यां मम सन्निधौ ॥

शनैर्दहन्ति पापानि कल्पकोटीशतानि च ।
अश्वत्थसन्निधौ पार्थ ध्यात्वा मनसि केशवम् ॥

पठेन्नामसहस्रं तु गवां कोटिफलं लभेत् ।
शिवालये पठेनित्यं तुलसीवनसंस्थितः ॥

नरो मुक्तिमवाप्नोति चक्रपाणेर्वचो यथा ।
ब्रह्महत्यादिकं घोरं सर्वपापं विनश्यति ॥

विलयं यान्ति पापानि चान्यपापस्य का कथा ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति ॥

॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥

विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र एवं ध्यान विधि/Vishnu Sahasranam Stotra/विष्णु सहस्रनाम पूजन विधि MantraKavach.com 

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संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

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अथ श्री दुर्गा: कवचम्‌

 

ॐ नमश्चण्डिकायै।

॥ मार्कण्डेय उवाच ॥

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।
यन्न कस्य चिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥

॥ ब्रह्मोवाच ॥

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥३॥

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥

नवमं सिद्धिदात्री च नव दुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥

न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥७॥

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मी: पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिता:॥१२॥

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्य: क्रोधसमाकुला:।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥१३॥

संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

 संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य
संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै॥१५॥

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्र्दी आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥

दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खङ्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी में रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥१९॥

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।
जया मे चाग्रतः पातु: विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी ॥२३॥

नासिकायां सुगन्‍धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥२५॥

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्‍ वाचं मे सर्वमङ्गला।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥२६॥

नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खङ्गिनी रक्षेद्‍ बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥२८॥

स्तनौ रक्षेन्‍महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥

नाभौ च कामिनी रक्षेद्‍ गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
पूतना कामिका मेढ्रं गुडे महिषवाहिनी॥३०॥

कट्यां भगवतीं रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥३१॥

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥३२॥

नखान् दंष्ट्रा कराली च केशांशचैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥३३॥

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।
अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥३४॥

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु॥३५॥

शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥

रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥

गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥४०॥

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
तत्सर्वं रक्ष मे देवी जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥

पदमेकं न गच्छेतु यदिच्छेच्छुभमात्मनः।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥४३॥

तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सर्वकामिकः।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥

निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रामेष्वपराजितः।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्।
य: पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः।
जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः॥४७॥

नश्यन्ति व्याधय: सर्वे लूताविस्फोटकादयः।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।
भूचराः खेचराशचैव जलजाश्चोपदेशिकाः॥४९॥

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबला:॥५०॥

ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसा:।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः॥५१॥

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥

यशसा वर्धते सोऽपी कीर्तिमण्डितभूतले।
जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पूरा॥५३॥

यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥

देहान्ते परमं स्थानं यात्सुरैरपि दुर्लभम्।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥

लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ॐ॥ ॥५६॥

इति श्री देव्याः कवचं सम्पूर्णम्

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॥ अथार्गलास्तोत्रम् ॥

ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुर्ऋषिः,अनुष्टुप् छन्दः,

श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रीजगदम्बाप्रीतयेसप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः॥

ॐ नमश्‍चण्डिकायै॥

मार्कण्डेय उवाच
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥1॥

जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।

जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥2॥

मधुकैटभविद्राविविधातृवरदे नमः।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥3॥

महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥4॥

रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥5॥

शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥6॥

वन्दिताङ्‌घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥7॥

अचिन्त्यरुपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥8॥

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥9॥

स्तुवद्‌भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि१॥10॥

चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥11॥

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥12॥

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥13॥

विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥14॥

सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥15॥

विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥16॥

प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥17॥

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्‍वरि।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥18॥

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्‍वद्भक्त्या सदाम्बिके।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥19॥

हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्‍वरि।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥20॥

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्‍वरि।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥21॥

देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥22॥

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके।

रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥23॥

पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।

तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥24॥

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।

स तु सप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्॥25॥

॥ इति देव्या अर्गलास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

ॐ अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य शिव ऋषिः,अनुष्टुप् छन्दः,

श्रीमहासरस्वती देवता,श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।

ॐ नमश्‍चण्डिकायै॥

मार्कण्डेय उवाच

ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे।

श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे॥1॥

सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामभिकीलकम्।

सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जाप्यतत्परः॥2॥

सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि।

एतेन स्तुवतां देवी स्तोत्रमात्रेण सिद्ध्यति॥3॥

न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते।

विना जाप्येन सिद्ध्येत सर्वमुच्चाटनादिकम्॥4॥

समग्राण्यपि सिद्ध्यन्ति लोकशङ्कामिमां हरः।

कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम्॥5॥

स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः।

समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्नियन्त्रणाम्॥6॥

सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेवं न संशयः।

कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः॥7॥

ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति।

इत्थंरुपेण कीलेन महादेवेन कीलितम्॥8॥

यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्फुटम्।

स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः॥9॥

न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते।

नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात्॥10॥

ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति।

ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः॥11॥

सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने।

तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जाप्यमिदं शुभम्॥12॥

शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः।

भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत्॥13॥

ऐश्‍वर्यं यत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः।

शत्रुहानिःपरो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः॥14॥

इति देव्याः कीलकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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॥ अथ वेदोक्तं रात्रिसूक्तम् ॥

ॐ रात्रीत्याद्यष्टर्चस्य सूक्तस्यकुशिकः सौभरो रात्रिर्वा भारद्वाजो ऋषिः, रात्रिर्देवता,गायत्री छन्दः, देवीमाहात्म्यपाठे विनियोगः।

ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः। विश्‍वा अधि श्रियोऽधित॥1॥

ओर्वप्रा अमर्त्यानिवतो देव्युद्वतः। ज्योतिषा बाधते तमः॥2॥

निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती। अपेदु हासते तमः॥3॥

सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि। वृक्षे न वसतिं वयः॥4॥

नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः। नि श्येनासश्चिदर्थिनः॥5॥

यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये। अथा नः सुतरा भव॥6॥

उप मा पेपिशत्तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित। उष ऋणेव यातय॥7॥
उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः। रात्रि स्तोमं न जिग्युषे॥8॥

॥ इति ऋग्वेदोक्तं रात्रिसूक्तं समाप्तं। ॥

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तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम्

विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम् ।
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः ॥ १॥

ब्रह्मोवाच —
त्वं स्वाहा त्वं स्वधात्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका ।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता ॥ २॥

अर्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः ।
त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवी जननी परा ॥ ३॥

त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत् ।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ॥ ४॥

विसृष्टौ सृष्टिरूपात्वम् स्थितिरूपा च पालने ।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये ॥ ५॥

महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः ।
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी ॥ ६॥

प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी ।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा ॥ ७॥

त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा ।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च ॥ ८॥

खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा ।
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा ॥ ९॥

सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी ।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी ॥ १०॥

यच्च किञ्चित् क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके ।
तस्य सर्वस्य या शक्तिः सात्वं किं स्तूयसे तदा ॥ ११॥

यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत् ।
सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ॥ १२॥

विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च ।
कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान्भवेत् ॥ १३॥

सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता ।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ ॥ १४॥

प्रबोधं न जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु ।
बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ ॥ १५॥

॥ इति तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम् ॥

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥

॥ इति तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तं॥

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विनियोग :

ॐ अस्य श्रीनवार्णमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दासि, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।
न्यास :

१. ऋष्यादिन्यास :

ब्रम्हविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नमः शिरसि।
गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दोभ्यो नमः मुखे।
श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताभ्यो नमः हृदि ।
ऐं बीजाय नमः गुह्ये ।
ह्रीं शक्तये नमः पादयो ।
क्लीं कीलकाय नमः नाभौ ।

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे :- इस मूल मन्त्र से हाथ धोकर करन्यास करें।

करन्यास:

ॐ ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः । (दोनों हाथों की तर्जनी अँगुलियों से अंगूठे के उद्गम स्थल को स्पर्श करें )
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । ( दोनों अंगूठों से तर्जनी अँगुलियों का स्पर्श करें )
ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नमः । ( दोनों अंगूठों से मध्यमा अँगुलियों का स्पर्श करें )
ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नमः । ( दोनों अंगूठों से अनामिका अँगुलियों का स्पर्श करें )
ॐ विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ( दोनों अंगूठों से कनिष्ट/ कानी / छोटी अँगुलियों का स्पर्श करें )
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । ( हथेलियों और उनके पृष्ठ भाग का स्पर्श )

३. हृदयादिन्यास :

ॐ ऐं हृदयाय नमः । (दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों से ह्रदय का स्पर्श )
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा । (शिर का स्पर्श )
ॐ क्लीं शिखायै वषट् । (शिखा का स्पर्श)
ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम् । ( दाहिने हाथ की अँगुलियों से बाएं कंधे एवं बाएं हाथ की अँगुलियों से दायें कंधे का स्पर्श)
ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् । ( दाहिने हाथ की उँगलियों के अग्रभाग से दोनों नेत्रों और मस्तक में भौंहों के मध्यभाग का स्पर्श)
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट । ( यह मन्त्र पढ़कर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से बायीं ओर से पीछे ले जाकर दाहिनी ओर से आगे लाकर तर्जनी और मध्यमा अँगुलियों से बाएं हाथ की हथेली
पर ताली बजाएं।

वर्णन्यास :
**इस न्यास को करने से साधक सभी प्रकार के रोगों से मुक्त हो जाता है**
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ॐ ऐं नमः शिखायाम् ।
ॐ ह्रीं नमः दक्षिणनेत्रे ।
ॐ क्लीं नमः वामनेत्रे ।
ॐ चां नमः दक्षिणकर्णे ।
ॐ मुं नमः वामकर्णे ।
ॐ डां नमः दक्षिणनासापुटे ।
ॐ यैं नमः वामनासापुटे ।
ॐ विं नमः मुखे ।
ॐ च्चें नमः गुह्ये ।

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इस प्रकार न्यास करके मूलमंत्र से आठ बार व्यापक न्यास (दोनों हाथों से शिखा से लेकर पैर तक सभी अंगों का ) स्पर्श करें।

**अब प्रत्येक दिशा में चुटकी बजाते हुए निम्न मन्त्रों के साथ दिशान्यास    करें:**

५. दिशान्यास:
ॐ ऐं प्राच्यै नमः ।
ॐ ऐं आग्नेय्यै नमः ।
ॐ ह्रीं दक्षिणायै नमः ।
ॐ ह्रीं नैऋत्यै नमः ।
ॐ क्लीं प्रतीच्यै नमः ।
ॐ क्लीं वायव्यै नमः ।
ॐ चामुण्डायै उदीच्यै नमः ।
ॐ चामुण्डायै ऐशान्यै नमः ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे उर्ध्वायै नमः ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नमः ।

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अन्य न्यास :- यदि साधक चाहे तो इतने ही न्यास करके नवार्ण मन्त्र का जप आरम्भ करे किन्तु यदि उसे और भी न्यास करने हों तो वह भी करके ही मूल मन्त्र जप आरम्भ करे।
यथा :-

 सारस्वतन्यास :

**इस न्यास को करने से साधक की जड़ता समाप्त हो जाती है**

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः तर्जनीभ्यां नमः ।

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ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः अंगुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः हृदयाय नमः ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिरसे स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिखायै वषट् ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः कवचाय हुम् ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः अस्त्राय फट ।

मातृकागणन्यास :

**इस न्यास को करने से साधक त्रैलोक्य विजयी होता है**

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ह्रीं ब्राम्ही पूर्वतः माँ पातु ।
ह्रीं माहेश्वरी आग्नेयां माँ पातु ।
ह्रीं कौमारी दक्षिणे माँ पातु ।
ह्रीं वैष्णवी नैऋत्ये माँ पातु ।
ह्रीं वाराही पश्चिमे माँ पातु ।
ह्रीं इन्द्राणी वायव्ये माँ पातु ।
ह्रीं चामुण्डे उत्तरे माँ पातु ।
ह्रीं महालक्ष्म्यै ऐशान्यै माँ पातु ।
ह्रीं व्योमेश्वरी उर्ध्व माँ पातु ।
ह्रीं सप्तद्वीपेश्वरी भूमौ माँ पातु ।
ह्रीं कामेश्वरी पतालौ माँ पातु ।

८. षड्देविन्यास
**इस न्यास को करने से वृद्धावस्था एवं मृत्यु भय से मुक्ति मिलती है**

कमलाकुशमण्डिता नंदजा पूर्वांग मे पातु ।
खडगपात्रकरा रक्तदन्तिका दक्षिणाङ्ग मे पातु ।
पुष्पपल्लवसंयुता शाकम्भरी प्रष्ठांग मे पातु ।
धनुर्वाणकरा दुर्गा वामांग मे पातु ।
शिरःपात्रकराभीमा मस्तकादि चरणान्तं मे पातु ।
चित्रकान्तिभूत भ्रामरी पादादि मस्तकान्तम् मे पातु ।

ब्रह्मादिन्यास

**इस न्यास को करने से साधक के सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं**

ॐ सनातनः ब्रह्मा पाददीनाभिपर्यन्त मा पातु ।
ॐ जनार्दनः नाभिर्विशुद्धिपर्यन्तं मा पातु ।
ॐ रुद्रस्त्रिलोचनः विशुद्धेर्ब्रह्मरन्ध्रांतं मा पातु ।
ॐ हंसः पदद्वयं मा पातु ।
ॐ वैनतेयः करद्वयं मा पातु ।
ॐ वृषभः चक्षुषी मा पातु ।
ॐ गजाननः सर्वाङ्गानि मा पातु ।
ॐ आनंदमयो हरिः परापरौ देहभागौ मा पातु ।

महालक्ष्मयादिन्यास :

**इस न्यास को करने से धन-धान्य के साथ-साथ सद्गति की प्राप्ति होती है **

ॐ अष्टादशभुजान्विता महालक्ष्मी मध्यं मे पातु ।
ॐ अष्टभुजोर्विता सरस्वती उर्ध्वे मे पातु ।
ॐ दशभुजसमन्विता महाकाली अधः मे पातु ।
ॐ सिंहो हस्त द्वयं मे पातु ।
ॐ परंहंसो अक्षियुग्मं मे पातु ।
ॐ दिव्यं महिषमारूढो यमः पादयुग्मं मे पातु ।
ॐ चण्डिकायुक्तो महेशः सर्वाङ्गानी मे पातु ।

बीजमन्त्रन्यास :

ॐ ऐं हृदयाय नमः । (दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों से ह्रदय का स्पर्श )
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ।(शिर का स्पर्श )
ॐ क्लीं शिखायै वषट् । (शिखा का स्पर्श)
ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम् । ( दाहिने हाथ की अँगुलियों से बाएं कंधे एवं बाएं हाथ की अँगुलियों से दायें कंधे का स्पर्श)
ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् । ( दाहिने हाथ की उँगलियों के अग्रभाग से दोनों नेत्रों और मस्तक में भौंहों के मध्यभाग का स्पर्श)
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट । ( यह मन्त्र पढ़कर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से बायीं ओर से पीछे ले जाकर दाहिनी ओर से आगे लाकर तर्जनी और मध्यमा अँगुलियों से बाएं हाथ की हथेली पर ताली बजाएं।

विलोमबीजन्यास :संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

**इस न्यास को समस्त दुःखहर्ता के नाम से भी जाना जाता है**

 संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य
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ॐ च्चें नमः गुह्ये ।
ॐ विं नमः मुखे ।
ॐ यैं नमः वामनासापुटे ।
ॐ डां नमः दक्षिणनासापुटे ।
ॐ मुं नमः वामकर्णे ।
ॐ चां नमः दक्षिणकर्णे ।
ॐ क्लीं नमः वामनेत्रे ।
ॐ ह्रीं नमः दक्षिणनेत्रे ।
ॐ ऐं नमः शिखायाम् ।

मन्त्रव्याप्तिन्यास:

**इस न्यास को करने से देवत्व की प्राप्ति होती है**

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मस्तकाचरणान्तं पूर्वाङ्गे (आठ बार ) ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे पादाच्छिरोंतम दक्षिणाङ्गे (आठ बार) ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे पृष्ठे (आठ बार) ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे वामांगे (आठ बार) ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मस्तकाच्चरणात्नं (आठ बार) ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे चरणात्मस्तकावधि (आठ बार) ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ।

इसके पश्चात मूल मन्त्र के १०८ अथवा अधिक अपनी सुविधानुसार जप संपन्न करें।

*****”ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे”*****

।। अथ नवार्ण-मन्त्र जप विधानम् ।। “मन्त्र-महोदधि” व “श्रीदुर्गाकल्पतरु” में मन्त्र का उद्धार इस प्रकार है – ‘अथ नवाक्षरं मन्त्रं वक्ष्ये चण्डी-प्रवृत्तये । वाङ्-माया मदनो दीर्घा लक्ष्मीस्तन्द्री श्रुतीन्दु-युक्। डायै सदृग्-जलं कूर्म-द्वयं झिण्टीश-संयुतं – “ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” ।’ “मन्त्र-महार्णव” में उद्धार में प्रणव का उल्लेख नहीं है, किन्तु स्पष्ट मन्त्र को “ॐ” सहित दिया गया है, जिससे वह नवाक्षर न होकर दशाक्षर हो जाता है । तन्त्र क्रिया व कामना भेद से नवार्ण मन्त्र १२-१३ तरह के होते हैं । सप्तशती में जो मूल मन्त्र है वह नवाक्षर है (ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे) । “ॐ” लगाने से यह दशाक्षरी हो जाता है। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों का मत है कि किसी मन्त्र में प्रारम्भ में प्रणव (ॐ) या नमः लगाने से मन्त्र में नपुंसक प्रभाव आ जाता है, बीजाक्षर प्रधान है । तांत्रिक प्रणव “ह्रीं” है । अतः माला के जप में प्रारम्भ में “ॐ” लगावे तथा जब माला पूरी हो जाये तो माला के अंत में “ॐ” लगाये, यही मंत्र जाग्रति है । दक्षिण भारत में कहीं-कहीं ॐ सहित दशाक्षर मन्त्र महाकाली हेतु दस पाद, दस हस्तादि संबोधन मानकर जप करते हैं । नवार्ण मंत्र षडाम्नाय युक्त है, षडाम्नाय मंत्र होने से सभी चतुर्विध कार्यों में ग्राह्य है । अगर मंत्र सिद्ध नहीं हो रहा हैं, तो “ऐं”, “ह्रीं”, “क्लीं” तथा “चामुण्डायै विच्चे” के पृथक्-पृथक् सवा लाख जप करें फिर नवार्ण का पुरश्चरण करें । विनियोगः- ॐ अस्य श्रीनवार्ण मंत्रस्य ब्रह्म-विष्णु-रुद्रा ऋषयः, गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छन्दांसि, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतयो देवताः, रक्त-दन्तिका-दुर्गा भ्रामर्यो बीजानि, नन्दा शाकम्भरी भीमाः शक्त्यः, अग्नि-वायुसूर्यास्तत्त्वानि, ऋग्-यजुः-सामानि स्वरुपाणि, ऐं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकं, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती स्वरुपा त्रिगुणात्मिका श्री महादुर्गा देव्या प्रीत्यर्थे (यदि श्रीदुर्गा का पाठ कर रहे हो तो आगे लिखा हुआ भी उच्चारित करें) श्री दुर्गासप्तशती पाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्म-विष्णु-रुद्रा ऋषिभ्यो नमः शिरसि, गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छन्देभ्यो नमः मुखे, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतयो

देवताभ्यो नमः हृदिः, ऐं बीज सहिताया रक्त-दन्तिका-दुर्गायै भ्रामरी देवताभ्यो नमः लिङ्गे (मनसा), ह्रीं शक्ति सहितायै नन्दा-शाकम्भरी-भीमा देवताभ्यो नमः नाभौ, क्लीं कीलक सहितायै अग्नि-वायु-सूर्य तत्त्वेभ्यो नमः गुह्ये, ऋग्-यजुः-साम स्वरुपिणी श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती देवताभ्यो नमः पादौ, श्री महादुर्गा प्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे । “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” – नवार्ण मन्त्र पढ़कर शुद्धि करें । षडङ्ग-न्यास – कर-न्यास – अंग-न्यास – ॐ ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट् ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां हुम् कवचाय हुम् ॐ विच्चे” कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् नेत्र-त्रयाय वौषट् ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतल-कर-पृष्ठाभ्यां फट् अस्त्राय फट् अक्षर-न्यासः- ॐ ऐं नमः शिखायां, ॐ ह्रीं नमः दक्षिण-नेत्रे, ॐ क्लीं नमः वाम-नेत्रे, ॐ चां नमः दक्षिण-कर्णे, ॐ मुं नमः वाम-कर्णे, ॐ डां नमः दक्षिण-नासा-पुटे, ॐ यैं नमः वाम-नासा-पुटे, ॐ विं नमः मुखे, ॐ च्चें नमः गुह्ये । व्यापक-न्यासः- मूल मंत्र से चार बार सम्मुख दो-दो बार दोनों कुक्षि की ओर कुल आठ बार (दोनों हाथों से सिर से पैर

तक) न्यास करें । दिङ्ग-न्यासः- ॐ ऐं प्राच्यै नमः, ॐ ऐं आग्नेय्यै नमः, ॐ ह्रीं दक्षिणायै नमः, ॐ ह्रीं नैर्ऋत्यै नमः, ॐ क्लीं प्रतीच्यै नमः, ॐ क्लीं वायव्यै नमः, ॐ चामुण्डायै उदीच्यै नमः, ॐ चामुण्डायै ऐशान्यै नमः, ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ऊर्ध्वायै नमः, ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नमः । ।। ध्यानम् ।। ॐ खड्गं चक्रगदेषुचाप परिधाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः, शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम् । नीलाश्मद्युतिमास्य पाददशकां सेवे महाकालिकाम्, यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम् ।। १।। ॐ अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां, दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम् । शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम् ।। २।। घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं हस्ताब्जैर्दशतीं घनान्तविलसच्छितांशुतुल्य प्रभाम् ।। गौरीदेहसमुद्भुवां त्रिजगतामाधारभूतां महापूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम् ।। ३।। ।। माला-पूजन ।। माला के गन्धाक्षत करें तथा “ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः” इस मंत्र से पूजा करके प्रार्थना करें – ॐ मां माले महामाये सर्वशक्ति स्वरुपिणि । चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तः तस्मान्मे सिद्धिदाभव ।। ॐ अविघ्नं कुरुमाले त्वं गृह्णामि दक्षिणे करे । जपकाले च सिद्धयर्थं प्रसीद मम सिद्धये ।। ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्व मंत्रार्थ साधिनि साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा । इसके बाद “ऐ ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” इस मंत्र का १०८ बार जप करें । ।। पाठ-समर्पण ।। ॐ गुह्याति-गुह्य-गोप्त्री त्वं, गृहाणास्मत्-कृतं जपम् । सिद्धिर्मे भवतु देवि ! त्वत्-प्रसादान्महेश्वरि ! ।। उक्त श्लोक पढ़कर देवी के वाम हस्त में जप निवेदन करें ।

दुर्गा सप्तशती जिसे देवी महात्म्य और चंडी पाठ के नाम से भी जाना जाता है, एक हिंदू धार्मिक ग्रंथ है जिसमें राक्षस महिषासुर पर देवी दुर्गा की जीत का वर्णन है। यह ऋषि मार्कण्डेय द्वारा लिखित मार्कण्डेय पुराण का हिस्सा है।

इस पाठ में सप्तशत यानी 700 श्लोक हैं और इस वजह से पूरी रचना को दुर्गा सप्तशती के नाम से जाना जाता है। सात सौ श्लोकों को 13 अध्यायों में व्यवस्थित किया गया है। धार्मिक पाठन के प्रयोजनों के लिए 700 छंदों के पहले और बाद में कई सहायक पाठ जोड़े गए हैं। दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठानिक पाठ देवी दुर्गा के सम्मान में नवरात्रि (अप्रैल और अक्टूबर के महीनों में नौ दिन की पूजा) समारोह का हिस्सा है। यह शाक्त परम्परा का आधार एवं मूल है।

देवी महात्म्य वर्णन करते हैं कि कैसे देवी अपने द्वारा किए जाने वाले कार्यों के अनुसार कई रूप धारण करती हैं, कभी-कभी मधुर और कोमल, और कभी-कभी भयानक और निगलने वाली। देवी वह भ्रामक शक्ति है जो मनुष्य को संसार के निरंतर गतिशील चक्र से बांधती है; वह सबसे बुद्धिमान पुरुषों को भी धोखा देती है। फिर भी वह अपने प्रसन्न होने वाले भक्त को मुक्ति प्रदान करने वाली होती है। अपने दिव्य खेल की निरंतरता के लिए, उन्होंने अविद्या-माया के रूप में, हमसे सत्य को छिपा दिया है और हमें संसार में बांध दिया है। जब उसे सच्ची भक्ति और आत्म-समर्पण के अभ्यास के माध्यम से प्रसन्न किया जाता है, तो वह विद्या-माया के रूप में, पर्दा हटा देती है और हमें सत्य का अनुभव करने में सक्षम बनाती है। सप्तशती में उन्हें महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहा, महादेवी और माहेश्वरी के रूप में संदर्भित किया गया है। वह परब्रह्म-महिषी है, समस्त अस्तित्व की रानी और संप्रभु है। उनकी करुणा साधक में अभीप्सा, साधक में साधना, सिद्ध में सिद्धि का रूप ले लेती है। वह विचार, इच्छा, भावना, समझ, क्रिया, नाम और रूप के पीछे का सत्य है। यह कहता है
अर्थ: ‘माँ, सभी कलाएँ और विज्ञान, ज्ञान की सभी शाखाएँ, आपके संशोधन हैं, दुनिया की सभी महिलाएं आपकी अभिव्यक्तियाँ हैं। आप अकेले ही संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त हैं।’

माँ के रूप में अनंत की कल्पना निरर्थक नहीं है। ऋग्वेद इस तथ्य का प्रमाण है कि प्राचीन काल में भी यह विश्वास था कि सर्वोच्च शासक सर्व दयालु माता है। देवी, दुर्गा या श्री के रूप में देवत्व की अवधारणा, केवल एक सिद्धांत नहीं बल्कि जीवन का एक व्यावहारिक तरीका है। माँ वह व्यक्तित्व है जो मानव हृदय को सबसे अधिक आकर्षित करती है, जबकि पिता को एक कठिन कार्यकर्ता के रूप में माना जाता है। यहां तक ​​कि एक सूक्ष्म दार्शनिक भी शक्ति की अवधारणा से दूर नहीं रह सकता, क्योंकि वह मूलतः शक्ति का अवतार है और उसे शक्ति से प्रेम है। उच्चतम बुद्धि और सबसे काल्पनिक तत्वमीमांसा केवल ज्ञान शक्ति की अभिव्यक्ति है और शक्तिवाद की सीमा से बाहर नहीं है।

चंडी होम करने के लिए दुर्गा सप्तशती एक महत्वपूर्ण रचना है जो स्वास्थ्य प्राप्त करने और दुश्मनों पर विजय पाने के लिए किए जाने वाले सबसे महत्वपूर्ण होमों में से एक है। दुर्गा सप्तशती के श्लोकों का उच्चारण करते हुए चंडी होम किया जाता है। चंडी होम के दौरान पवित्र अग्नि के माध्यम से देवी दुर्गा को कुल 700 आहुतियां दी जाती हैं।

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

सुबह स्नान करने और अपनी दैनिक पूजा या अन्य अनुष्ठानों को पूरा करने के बाद, व्यक्ति को उत्तर या पूर्व की ओर मुख करके एक आसन पर बैठना चाहिए और एकाग्रता और भक्ति की स्थिति पैदा करने का प्रयास करना चाहिए।
पाठ (पढ़ना) तब सबसे प्रभावी होता है जब इसे दृढ़ विश्वास, भक्ति और सही उच्चारण के साथ किया जाता है। पढ़ते समय व्यक्ति को बात करने, सोने, छींकने, जम्हाई लेने या थूकने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, बल्कि देवी के उस रूप पर पूरी एकाग्रता के साथ पढ़ना चाहिए जो उसे आकर्षित करता है। किसी भी अध्याय को बीच में नहीं रोकना चाहिए। पुस्तक को स्टैंड पर रखना अच्छा है, विशेषकर तांबे की प्लेट पर।
प्रत्येक अध्याय के आरंभ और अंत में घंटियाँ बजाई जा सकती हैं।
पाठ शुरू करने से पहले उस उद्देश्य की पुष्टि करें जिसके लिए आप इसे कर रहे हैं – संकल्प करें, संकल्प करें और देवी की पूजा करें।
दुर्गा सप्तशती के पाठ के लिए नवरात्रि एक आदर्श अवधि है; हालाँकि, अन्य महीनों में, मंगलवार, शुक्रवार और शनिवार को पढ़ना शुरू करने के लिए सप्ताह के शुभ दिन माने जाते हैं। चंद्र कैलेंडर के आदर्श दिन अष्टमी (चंद्रमा का आठवां दिन), नवमी (चंद्रमा का नौवां दिन) और चतुर्दशी (चंद्रमा का चौदहवां दिन) हैं।
सप्तशती को प्रतिदिन पढ़ा जा सकता है और अध्यायों के विभाजन के अनुसार सात दिनों में पूरा किया जा सकता है।
पहला दिन: पहला अध्याय.
दूसरा दिन: दूसरा और तीसरा।
तीसरा दिन: चौथा.
चौथा दिन: पांचवां, छठा, सातवां और आठवां। पाँचवाँ दिन: नौवाँ और दसवाँ।
छठा दिन: ग्यारहवां.
सातवाँ दिन: बारहवाँ और तेरहवाँ।
यह पारंपरिक नियम है. ऐसा माना जाता है कि सप्तशती का पाठ जिस भी संकल्प के साथ किया जाएगा, वह अवश्य पूरा होगा। चूँकि शक्ति सभी इच्छा (इच्छा), ज्ञान (ज्ञान) और क्रिया (क्रिया) का आधार है, कोई भी शक्ति के दायरे से बाहर नहीं रह सकता है। एक व्यक्ति केवल शक्ति है, और इसलिए शक्ति की पूजा के माध्यम से व्यक्ति सब कुछ पा सकता है। पढ़ना निम्नलिखित क्रम में होना चाहिए:

देवी सूक्तम्
देवी कवचम्
अर्गला स्तोत्रम
कीलकम
रात्रि सूक्तम्
देवी महात्म्य
क्षमा प्रार्थना

देवी सूक्तम्
देवी सूक्तम के आठ छंद महर्षि अम्बारिन की बेटी वाक द्वारा रचित थे, और ऋग्वेद (10वें मंडल, 10वें अनुवाक, 125वें सूक्त) से हैं। ये श्लोक वाक द्वारा महसूस किए गए सत्य को व्यक्त करते हैं, जो खुद को ब्रह्म शक्ति के रूप में पहचानती है, और खुद को ग्यारह रुद्र, आठ वसु, बारह आदित्य और सभी देवों के रूप में व्यक्त करती है जो उसके द्वारा कायम हैं और वह पूरी दुनिया का स्रोत, आधार और समर्थन है।

देवी कवचम्

61 श्लोकों से युक्त, देवी कवचम मार्कंडेय पुराण में है। यह कवच पाठक की शरीर के सभी अंगों, सभी स्थानों और सभी कठिनाइयों में रक्षा करता है। शरीर के प्रत्येक अंग का उल्लेख किया गया है और विभिन्न रूपों में देवी की पूजा की जा रही है।

अर्गला स्तोत्रम

यहां, ऋषि मार्कंडेय अपने शिष्यों को सत्ताईस प्रेरक दोहों में देवी की महानता के बारे में बताते हैं। उनका सभी पहलुओं और नामों से वर्णन किया गया है और प्रत्येक श्लोक के अंत में देवी से भौतिक समृद्धि, शारीरिक स्वस्थता, प्रसिद्धि और विजय के लिए प्रार्थना की जाती है।

कीलकम

यहां भी, ऋषि मार्कंडेय अपने शिष्यों को सोलह श्लोकों में देवी महात्म्य का पाठ करते समय भक्तों के सामने आने वाली बाधाओं को दूर करने के तरीके और उपाय बताते हैं। कीलकम के पाठ से देवी का आशीर्वाद, आध्यात्मिक सद्भाव, मन की शांति और सभी कार्यों में सफलता मिलती है।

रात्रि सूक्तम्

यहां के आठ श्लोक ऋग्वेद (10वां मंडल, 10वां अनुवाक, 127वां सूक्त) से लिए गए हैं। देवी को ओमकारा में प्रकट होने वाले ब्रह्मांड के सर्वव्यापी सर्वोच्च भगवान के रूप में वर्णित किया गया है। रात्रि का अर्थ है ‘वह जो हमारी प्रार्थनाओं को पूरा करती है’।

देवी महात्म्य
पाठ को तीन भागों में विभाजित किया गया है:
 संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य
संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

 

प्रथमा (प्रथम)
मध्यमा (मध्यम)
उत्तरा (अंतिम)
पहला अध्याय महा काली की महिमा का वर्णन करता है, दूसरा, तीसरा और चौथा अध्याय महा लक्ष्मी की महिमा करता है, और पांचवें से तेरहवें तक अंतिम नौ अध्याय महा सरस्वती की महिमा करते हैं।

क्षमा प्रार्थना

यह देवी से पाठ के दौरान या अन्यथा हुई किसी भी त्रुटि के लिए क्षमा मांगने वाली अंतिम प्रार्थना है।

दुर्गा सप्तशती एक हिंदू धार्मिक ग्रंथ है जिसमें राक्षस महिषासुर पर देवी दुर्गा की जीत का वर्णन किया गया है। दुर्गा सप्तशती को देवी महात्म्यम, चंडी पाठ (चंडीपाठः) के नाम से भी जाना जाता है और इसमें 700 श्लोक हैं, जो 13 अध्यायों में व्यवस्थित हैं।

दुर्गा सप्तशती का पहला अध्याय “मधु और कैटभ के वध” पर आधारित है।

मधु और कैटभ का वध

महाकाली का ध्यान: मैं महाकाली का सहारा लेता हूं, जिनके दस चेहरे, दस पैर हैं और जिनके हाथों में तलवार, चक्र, गदा, बाण, धनुष, गदा, भाला, मिसाइल, मानव सिर और शंख हैं, जो तीन आंखों वाली हैं, जो अपने सभी अंगों पर आभूषणों से सुशोभित हैं, और नीले रत्न की तरह चमकदार हैं, और जब विष्णु (रहस्यवादी) नींद में थे, तब मधु और कैटभ को नष्ट करने के लिए ब्रह्मा ने जिनकी स्तुति की थी।

मार्कण्डेय ने (अपने शिष्य क्रासुस्तुकी भागुरि से) कहा:

॥श्रीदुर्गासप्तशती – प्रथमोऽध्यायः॥

 संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य
संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

मेधा ऋषि का राजा सुरथ और समाधि को भगवती की महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वध का प्रसंग सुनाना

॥विनियोगः॥

ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, महाकाली देवता, गायत्री छन्दः,
नन्दा शक्तिः, रक्तदन्तिका बीजम्, अग्निस्तत्त्वम्,
ऋग्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथमचरित्रजपे विनियोगः।

॥ध्यानम्॥

ॐ खड्‌गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः
शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्‍तुं मधुं कैटभम्॥१॥

ॐ नमश्चण्डिकायै*
“ॐ ऐं” मार्कण्डेय उवाच॥१॥

सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।
निशामय तदुत्पत्तिं विस्तराद् गदतो मम॥२॥

महामायानुभावेन यथा मन्वन्‍तराधिपः।
स बभूव महाभागः सावर्णिस्तनयो रवेः॥३॥

स्वारोचिषेऽन्‍तरे पूर्वं चैत्रवंशसमुद्भवः।
सुरथो नाम राजाभूत्समस्ते क्षितिमण्डले॥४॥

तस्य पालयतः सम्यक् प्रजाः पुत्रानिवौरसान्।
बभूवुः शत्रवो भूपाः कोलाविध्वंसिनस्तदा॥५॥

तस्य तैरभवद् युद्धमतिप्रबलदण्डिनः।
न्यूनैरपि स तैर्युद्धे कोलाविध्वंसिभिर्जितः॥६॥

ततः स्वपुरमायातो निजदेशाधिपोऽभवत्।
आक्रान्‍तः स महाभागस्तैस्तदा प्रबलारिभिः॥७॥

अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः।
कोशो बलं चापहृतं तत्रापि स्वपुरे ततः॥८॥

ततो मृगयाव्याजेन हृतस्वाम्यः स भूपतिः।
एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम्॥९॥

स तत्राश्रममद्राक्षीद् द्विजवर्यस्य मेधसः।
प्रशान्‍तश्‍वापदाकीर्णं मुनिशिष्योपशोभितम्॥१०॥

तस्थौ कंचित्स कालं च मुनिना तेन सत्कृतः।
इतश्‍चेतश्‍च विचरंस्तस्मिन्मुनिवराश्रमे॥११॥

सोऽचिन्‍तयत्तदा तत्र ममत्वाकृष्टचेतनः*।
मत्पूर्वैः पालितं पूर्वं मया हीनं पुरं हि तत्॥१२॥

मद्‌भृत्यैस्तैरसद्‌वृत्तैर्धर्मतः पाल्यते न वा।
न जाने स प्रधानो मे शूरहस्ती सदामदः॥१३॥

मम वैरिवशं यातः कान् भोगानुपलप्स्यते।
ये ममानुगता नित्यं प्रसादधनभोजनैः॥१४॥

अनुवृत्तिं ध्रुवं तेऽद्य कुर्वन्त्यन्यमहीभृताम्।
असम्यग्व्यशीलैस्तैः कुर्वद्भिः सततं व्ययम्॥१५॥

संचितः सोऽतिदुःखेन क्षयं कोशो गमिष्यति।
एतच्चान्यच्च सततं चिन्तयामास पार्थिवः॥१६॥

तत्र विप्राश्रमाभ्याशे वैश्यमेकं ददर्श सः।
स पृष्टस्तेन कस्त्वं भो हेतुश्‍चागमनेऽत्र कः॥१७॥

सशोक इव कस्मात्त्वं दुर्मना इव लक्ष्यसे।
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः प्रणयोदितम्॥१८॥

प्रत्युवाच स तं वैश्यः प्रश्रयावनतो नृपम्॥१९॥

वैश्‍य उवाच॥२०॥

समाधिर्नाम वैश्‍योऽहमुत्पन्नो धनिनां कुले॥२१॥

पुत्रदारैर्निरस्तश्‍च धनलोभादसाधुभिः।
विहीनश्‍च धनैर्दारैः पुत्रैरादाय मे धनम्॥२२॥

वनमभ्यागतो दुःखी निरस्तश्चाप्तबन्धुभिः।
सोऽहं न वेद्मि पुत्राणां कुशलाकुशलात्मिकाम्॥२३॥

प्रवृत्तिं स्वजनानां च दाराणां चात्र संस्थितः।
किं नु तेषां गृहे क्षेममक्षेमं किं नु साम्प्रतम्॥२४॥

कथं ते किं नु सद्‌वृत्ता दुर्वृत्ताः किं नु मे सुताः॥२५॥

राजोवाच॥२६॥

यैर्निरस्तो भवाँल्लुब्धैः पुत्रदारादिभिर्धनैः॥२७॥

तेषु किं भवतः स्नेहमनुबध्नाति मानसम्॥२८॥

वैश्य उवाच॥२९॥

एवमेतद्यथा प्राह भवानस्मद्‌गतं वचः॥३०॥

किं करोमि न बध्नाति मम निष्ठुरतां मनः।
यैः संत्यज्य पितृस्नेहं धनलुब्धैर्निराकृतः॥३१॥

पतिस्वजनहार्दं च हार्दि तेष्वेव मे मनः।
किमेतन्नाभिजानामि जानन्नपि महामते॥३२॥

यत्प्रेमप्रवणं चित्तं विगुणेष्वपि बन्धुषु।
तेषां कृते मे निःश्‍वासो दौर्मनस्यं च जायते॥३३॥

करोमि किं यन्न मनस्तेष्वप्रीतिषु निष्ठुरम्॥३४॥

मार्कण्डेय उवाच॥३५॥

ततस्तौ सहितौ विप्र तं मुनिं समुपस्थितौ॥३६॥

समाधिर्नाम वैश्योऽसौ स च पार्थिवसत्तमः।
कृत्वा तु तौ यथान्यायं यथार्हं तेन संविदम्॥३७॥

उपविष्टौ कथाः काश्चिच्चक्रतुर्वैश्‍यपार्थिवौ॥३८॥

राजोवाच॥३९॥

भगवंस्त्वामहं प्रष्टुमिच्छाम्येकं वदस्व तत्॥४०॥

दुःखाय यन्मे मनसः स्वचित्तायत्ततां विना।
ममत्वं गतराज्यस्य राज्याङ्गेष्वखिलेष्वपि॥४१॥

जानतोऽपि यथाज्ञस्य किमेतन्मुनिसत्तम।
अयं च निकृतः* पुत्रैर्दारैर्भृत्यैस्तथोज्झितः॥४२॥

स्वजनेन च संत्यक्तस्तेषु हार्दी तथाप्यति।
एवमेष तथाहं च द्वावप्यत्यन्तदुःखितौ॥४३॥

दृष्टदोषेऽपि विषये ममत्वाकृष्टमानसौ।
तत्किमेतन्महाभाग* यन्मोहो ज्ञानिनोरपि॥४४॥

ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य मूढता॥४५॥

ऋषिरुवाच॥४६॥

ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोर्विषयगोचरे॥४७॥

विषयश्च* महाभागयाति* चैवं पृथक् पृथक्।
दिवान्धाः प्राणिनः केचिद्रात्रावन्धास्तथापरे॥४८॥

केचिद्दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः।
ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किं* तु ते न हि केवलम्॥४९॥

यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिमृगादयः।
ज्ञानं च तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम्॥५०॥

मनुष्याणां च यत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः।
ज्ञानेऽपि सति पश्यैतान् पतङ्गाञ्छावचञ्चुषु॥५१॥

कणमोक्षादृतान्मोहात्पीड्यमानानपि क्षुधा।
मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः सुतान् प्रति॥५२॥

लोभात्प्रत्युपकाराय नन्वेता*न् किं न पश्‍यसि।
तथापि ममतावर्त्ते मोहगर्ते निपातिताः॥५३॥

महामायाप्रभावेण संसारस्थितिकारिणा*।
तन्नात्र विस्मयः कार्यो योगनिद्रा जगत्पतेः॥५४॥

महामाया हरेश्‍चैषा* तया सम्मोह्यते जगत्।
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा॥५५॥

बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।
तया विसृज्यते विश्‍वं जगदेतच्चराचरम्॥५६॥

सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये।
सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी॥५७॥

संसारबन्धहेतुश्‍च सैव सर्वेश्‍वरेश्‍वरी॥५८॥

राजोवाच॥५९॥

भगवन् का हि सा देवी महामायेति यां भवान्॥६०॥

ब्रवीति कथमुत्पन्ना सा कर्मास्याश्च* किं द्विज।
यत्प्रभावा* च सा देवी यत्स्वरूपा यदुद्भवा॥६१॥

तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो ब्रह्मविदां वर॥६२॥

ऋषिरुवाच॥६३॥

नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम्॥६४॥

तथापि तत्समुत्पत्तिर्बहुधा श्रूयतां मम।
देवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति सा यदा॥६५॥

उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीयते।
योगनिद्रां यदा विष्णुर्जगत्येकार्णवीकृते॥६६॥

आस्तीर्य शेषमभजत्कल्पान्‍ते भगवान् प्रभुः।
तदा द्वावसुरौ घोरौ विख्यातौ मधुकैटभौ॥६७॥

विष्णुकर्णमलोद्भूतो हन्‍तुं ब्रह्माणमुद्यतौ।
स नाभिकमले विष्णोः स्थितो ब्रह्मा प्रजापतिः॥६८॥

दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ प्रसुप्तं च जनार्दनम्।
तुष्टाव योगनिद्रां तामेकाग्रहृदयस्थितः॥६९॥

विबोधनार्थाय हरेर्हरिनेत्रकृतालयाम्*।
विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्॥७०॥

निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः॥७१॥

ब्रह्मोवाच॥७२॥

त्वं स्वाहा त्वं स्वधां त्वं हि वषट्कारःस्वरात्मिका॥७३॥

सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता।
अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः॥७४॥

त्वमेव संध्या* सावित्री त्वं देवि जननी परा।
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्॥७५॥

त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्‍ते च सर्वदा।
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने॥७६॥

तथा संहृतिरूपान्‍ते जगतोऽस्य जगन्मये।
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः॥७७॥

महामोहा च भवती महादेवी महासुरी*।
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी॥७८॥

कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्‍च दारुणा।
त्वं श्रीस्त्वमीश्‍वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा॥७९॥

लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च।
खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा॥८०॥

शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा।
सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी॥८१॥

परापराणां परमा त्वमेव परमेश्‍वरी।
यच्च किंचित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके॥८२॥

तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा*।
यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति* यो जगत्॥८३॥

सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्‍वरः।
विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च॥८४॥

कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्।
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता॥८५॥

मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ।
प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु॥८६॥

बोधश्‍च क्रियतामस्य हन्‍तुमेतौ महासुरौ॥८७॥

ऋषिरुवाच॥८८॥

एवं स्तुता तदा देवी तामसी तत्र वेधसा॥८९॥

विष्णोः प्रबोधनार्थाय निहन्तुं मधुकैटभौ।
नेत्रास्यनासिकाबाहुहृदयेभ्यस्तथोरसः॥९०॥

संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

॥श्रीदुर्गासप्तशती – द्वितीयोऽध्यायः॥

 संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य
संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध

॥विनियोगः॥

ॐ मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्ऋषिः, महालक्ष्मीर्देवता, उष्णिक् छन्दः,
शाकम्भरी शक्तिः, दुर्गा बीजम्, वायुस्तत्त्वम्, यजुर्वेदः स्वरूपम्,
श्रीमहालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः।

॥ध्यानम्॥

ॐ अक्षस्रक्‌परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥

“ॐ ह्रीं” ऋषिरुवाच॥१॥

देवासुरमभूद्युद्धं पूर्णमब्दशतं पुरा।
महिषेऽसुराणामधिपे देवानां च पुरन्दरे॥२॥

तत्रासुरैर्महावीर्यैर्देवसैन्यं पराजितम्।
जित्वा च सकलान् देवानिन्द्रोऽभून्महिषासुरः॥३॥

ततः पराजिता देवाः पद्मयोनिं प्रजापतिम्।
पुरस्कृत्य गतास्तत्र यत्रेशगरुडध्वजौ॥४॥

यथावृत्तं तयोस्तद्वन्महिषासुरचेष्टितम्।
त्रिदशाः कथयामासुर्देवाभिभवविस्तरम्॥५॥

सूर्येन्द्राग्न्यनिलेन्दूनां यमस्य वरुणस्य च।
अन्येषां चाधिकारान् स स्वयमेवाधितिष्ठति॥६॥

स्वर्गान्निराकृताः सर्वे तेन देवगणा भुवि।
विचरन्ति यथा मर्त्या महिषेण दुरात्मना॥७॥

एतद्वः कथितं सर्वममरारिविचेष्टितम्।
शरणं वः प्रपन्नाः स्मो वधस्तस्य विचिन्त्यताम्॥८॥

इत्थं निशम्य देवानां वचांसि मधुसूदनः।
चकार कोपं शम्भुश्च भ्रुकुटीकुटिलाननौ॥९॥

ततोऽतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वदनात्ततः।
निश्‍चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च॥१०॥

अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः।
निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत॥११॥

अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्।
ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम्॥१२॥

अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्।
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥१३॥

यदभूच्छाम्भवं तेजस्तेनाजायत तन्मुखम्।
याम्येन चाभवन् केशा बाहवो विष्णुतेजसा॥१४॥

सौम्येन स्तनयोर्युग्मं मध्यं चैन्द्रेण चाभवत्।
वारुणेन च जङ्‍घोरू नितम्बस्तेजसा भुवः॥१५॥

ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदङ्‌गुल्योऽर्कतेजसा।
वसूनां च कराङ्‌गुल्यः कौबेरेण च नासिका॥१६॥

तस्यास्तु दन्ताः सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा।
नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा॥१७॥

भ्रुवौ च संध्ययोस्तेजः श्रवणावनिलस्य च।
अन्येषां चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा॥१८॥

ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्।
तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः*॥१९॥

शूलं शूलाद्विनिष्कृष्य ददौ तस्यै पिनाकधृक्।
चक्रं च दत्तवान् कृष्णः समुत्पाद्य* स्वचक्रतः॥२०॥

शङ्‌खं च वरुणः शक्तिं ददौ तस्यै हुताशनः।
मारुतो दत्तवांश्‍चापं बाणपूर्णे तथेषुधी॥२१॥

वज्रमिन्द्रः समुत्पाद्य* कुलिशादमराधिपः।
ददौ तस्यै सहस्राक्षो घण्टामैरावताद् गजात्॥२२॥

कालदण्डाद्यमो दण्डं पाशं चाम्बुपतिर्ददौ।
प्रजापतिश्‍चाक्षमालां ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम्॥२३॥

समस्तरोमकूपेषु निजरश्मीन् दिवाकरः।
कालश्‍च दत्तवान् खड्‌गं तस्याश्‍चर्म* च निर्मलम्॥२४॥

क्षीरोदश्‍चामलं हारमजरे च तथाम्बरे।
चूडामणिं तथा दिव्यं कुण्डले कटकानि च॥२५॥

अर्धचन्द्रं तथा शुभ्रं केयूरान् सर्वबाहुषु।
नूपुरौ विमलौ तद्वद् ग्रैवेयकमनुत्तमम्॥२६॥

अङ्‌गुलीयकरत्‍नानि समस्तास्वङ्‌गुलीषु च।
विश्‍वकर्मा ददौ तस्यै परशुं चातिनिर्मलम्॥२७॥

अस्त्राण्यनेकरूपाणि तथाभेद्यं च दंशनम्।
अम्लानपङ्‌कजां मालां शिरस्युरसि चापराम्॥२८॥

अददज्जलधिस्तस्यै पङ्‌कजं चातिशोभनम्।
हिमवा‍न् वाहनं सिंहं रत्‍नानि विविधानि च॥२९॥

ददावशून्यं सुरया पानपात्रं धनाधिपः।
शेषश्‍च सर्वनागेशो महामणिविभूषितम्॥३०॥

नागहारं ददौ तस्यै धत्ते यः पृथिवीमिमाम्॥
अन्यैरपि सुरैर्देवी भूषणैरायुधैस्तथा॥३१॥

सम्मानिता ननादोच्चैः साट्टहासं मुहुर्मुहुः।
तस्या नादेन घोरेण कृत्स्नमापूरितं नभः॥३२॥

अमायतातिमहता प्रतिशब्दो महानभूत्।
चुक्षुभुः सकला लोकाः समुद्राश्‍च चकम्पिरे॥३३॥

चचाल वसुधा चेलुः सकलाश्‍च महीधराः।
जयेति देवाश्‍च मुदा तामूचुः सिंहवाहिनीम्*॥३४॥

तुष्टुवुर्मुनयश्‍चैनां भक्तिनम्रात्ममूर्तयः।
दृष्ट्‌वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः॥३५॥

सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते समुत्तस्थुरुदायुधाः।
आः किमेतदिति क्रोधादाभाष्य महिषासुरः॥३६॥

अभ्यधावत तं शब्दमशेषैरसुरैर्वृतः।
स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा॥३७॥

पादाक्रान्त्या नतभुवं किरीटोल्लिखिताम्बराम्।
क्षोभिताशेषपातालां धनुर्ज्यानिःस्वनेन ताम्॥३८॥

दिशो भुजसहस्रेण समन्ताद् व्याप्य संस्थिताम्।
ततः प्रववृते युद्धं तया देव्या सुरद्विषाम्॥३९॥

शस्त्रास्त्रैर्बहुधा मुक्तैरादीपितदिगन्तरम्।
महिषासुरसेनानीश्‍चिक्षुराख्यो महासुरः॥४०॥

युयुधे चामरश्‍चान्यैश्‍चतुरङ्‌गबलान्वितः।
रथानामयुतैः षड्‌भिरुदग्राख्यो महासुरः॥४१॥

अयुध्यतायुतानां च सहस्रेण महाहनुः।
पञ्चाशद्‌भिश्‍च नियुतैरसिलोमा महासुरः॥४२॥

अयुतानां शतैः षड्‌भिर्बाष्कलो युयुधे रणे।
गजवाजिसहस्रौघैरनेकैः* परिवारितः*॥४३॥

वृतो रथानां कोट्या च युद्धे तस्मिन्नयुध्यत।
बिडालाख्योऽयुतानां च पञ्चाशद्भिरथायुतैः॥४४॥

युयुधे संयुगे तत्र रथानां परिवारितः*।
अन्ये च तत्रायुतशो रथनागहयैर्वृताः॥४५॥

युयुधुः संयुगे देव्या सह तत्र महासुराः
कोटिकोटिसहस्रैस्तु रथानां दन्तिनां तथा॥४६॥

हयानां च वृतो युद्धे तत्राभून्महिषासुरः।
तोमरैर्भिन्दिपालैश्‍च शक्तिभिर्मुसलैस्तथा॥४७॥

युयुधुः संयुगे देव्या खड्‌गैः परशुपट्टिशैः।
केचिच्च चिक्षिपुः शक्तीः केचित्पाशांस्तथापरे॥४८॥

देवीं खड्‍गप्रहारैस्तु ते तां हन्तुं प्रचक्रमुः।
सापि देवी ततस्तानि शस्त्राण्यस्त्राणि चण्डिका॥४९॥

लीलयैव प्रचिच्छेद निजशस्त्रास्त्रवर्षिणी।
अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुरर्षिभिः॥५०॥

मुमोचासुरदेहेषु शस्त्राण्यस्त्राणि चेश्‍वरी।
सोऽपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेशरी॥५१॥

चचारासुरसैन्येषु वनेष्विव हुताशनः।
निःश्‍वासान् मुमुचे यांश्च युध्यमाना रणेऽम्बिका॥५२॥

त एव सद्यः सम्भूता गणाः शतसहस्रशः।
युयुधुस्ते परशुभिर्भिन्दिपालासिपट्टिशैः॥५३॥

नाशयन्तोऽसुरगणान् देवीशक्‍त्युपबृंहिताः।
अवादयन्त पटहान् गणाः शङ्‌खांस्तथापरे॥५४॥

मृदङ्‌गांश्‍च तथैवान्ये तस्मिन् युद्धमहोत्सवे।
ततो देवी त्रिशूलेन गदया शक्तिवृष्टिभिः*॥५५॥

खड्‌गादिभिश्‍च शतशो निजघान महासुरान्।
पातयामास चैवान्यान् घण्टास्वनविमोहितान्॥५६॥

असुरान् भुवि पाशेन बद्‌ध्वा चान्यानकर्षयत्।
केचिद् द्विधा कृतास्तीक्ष्णैः खड्‌गपातैस्तथापरे॥५७॥

विपोथिता निपातेन गदया भुवि शेरते।
वेमुश्‍च केचिद्रुधिरं मुसलेन भृशं हताः॥५८॥

केचिन्निपतिता भूमौ भिन्नाः शूलेन वक्षसि।
निरन्तराः शरौघेण कृताः केचिद्रणाजिरे॥५९॥

श्ये*नानुकारिणः प्राणान् मुमुचुस्त्रिदशार्दनाः।
केषांचिद् बाहवश्छिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे॥६०॥

शिरांसि पेतुरन्येषामन्ये मध्ये विदारिताः।
विच्छिन्नजङ्‌घास्त्वपरे पेतुरुर्व्यां महासुराः॥६१॥

एकबाह्वक्षिचरणाः केचिद्देव्या द्विधा कृताः।
छिन्नेऽपि चान्ये शिरसि पतिताः पुनरुत्थिताः॥६२॥

कबन्धा युयुधुर्देव्या गृहीतपरमायुधाः।
ननृतुश्‍चापरे तत्र युद्धे तूर्यलयाश्रिताः॥६३॥

कबन्धाश्छिन्नशिरसः खड्‌गशक्त्यृष्टिपाणयः।
तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो देवीमन्ये महासुराः*॥६४॥

पातितै रथनागाश्‍वैरसुरैश्‍च वसुन्धरा।
अगम्या साभवत्तत्र यत्राभूत्स महारणः॥६५॥

शोणितौघा महानद्यः सद्यस्तत्र प्रसुस्रुवुः।
मध्ये चासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम्॥६६॥

क्षणेन तन्महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका।
निन्ये क्षयं यथा वह्निस्तृणदारुमहाचयम्॥६७॥

स च सिंहो महानादमुत्सृजन्धुतकेसरः।
शरीरेभ्योऽमरारीणामसूनिव विचिन्वति॥६८॥

देव्या गणैश्‍च तैस्तत्र कृतं युद्धं महासुरैः।
यथैषां* तुतुषुर्देवाः* पुष्पवृष्टिमुचो दिवि॥ॐ॥६९॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
महिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
उवाच १, श्‍लोकाः ६८, एवम् ६९,
एवमादितः॥१७३॥

संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

॥श्रीदुर्गासप्तशती – तृतीयोऽध्यायः॥

सेनापतियोंसहित महिषासुर का वध

॥ध्यानम्॥

ॐ उद्यद्भानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां
रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम्।
हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं
देवीं बद्धहिमांशुरत्‍नमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम्॥

“ॐ” ऋषिररुवाच॥१॥

निहन्यमानं तत्सैन्यमवलोक्य महासुरः।
सेनानीश्‍चिक्षुरः कोपाद्ययौ योद्‍धुमथाम्बिकाम्॥२॥

स देवीं शरवर्षेण ववर्ष समरेऽसुरः।
यथा मेरुगिरेः श्रृङ्‌गं तोयवर्षेण तोयदः॥३॥

तस्यच्छित्त्वा ततो देवी लीलयैव शरोत्करान्।
जघान तुरगान् बाणैर्यन्तारं चैव वाजिनाम्॥४॥

चिच्छेद च धनुः सद्यो ध्वजं चातिसमुच्छ्रितम्।
विव्याध चैव गात्रेषु छिन्नधन्वानमाशुगैः॥५॥

सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्‍वो हतसारथिः।
अभ्यधावत तां देवीं खड्‌गचर्मधरोऽसुरः॥६॥

सिंहमाहत्य खड्‌गेन तीक्ष्णधारेण मूर्धनि।
आजघान भुजे सव्ये देवीमप्यतिवेगवान्॥७॥

तस्याः खड्‌गो भुजं प्राप्य पफाल नृपनन्दन।
ततो जग्राह शूलं स कोपादरुणलोचनः॥८॥

चिक्षेप च ततस्तत्तु भद्रकाल्यां महासुरः।
जाज्वल्यमानं तेजोभी रविबिम्बमिवाम्बरात्॥९॥

दृष्ट्‍वा तदापतच्छूलं देवी शूलममुञ्चत।
तच्छूलं* शतधा तेन नीतं स च महासुरः॥१०॥

हते तस्मिन्महावीर्ये महिषस्य चमूपतौ।
आजगाम गजारूढश्‍चामरस्त्रिदशार्दनः॥११॥

सोऽपि शक्तिं मुमोचाथ देव्यास्तामम्बिका द्रुतम्।
हुंकाराभिहतां भूमौ पातयामास निष्प्रभाम्॥१२॥

भग्नां शक्तिं निपतितां दृष्ट्‌वा क्रोधसमन्वितः।
चिक्षेप चामरः शूलं बाणैस्तदपि साच्छिनत्॥१३॥

ततः सिंहः समुत्पत्य गजकुम्भान्तरे स्थितः।
बाहुयुद्धेन युयुधे तेनोच्चैस्त्रिदशारिणा॥१४॥

युद्ध्यमानौ ततस्तौ तु तस्मान्नागान्महीं गतौ।
युयुधातेऽतिसंरब्धौ प्रहारैरतिदारुणैः॥१५॥

ततो वेगात् खमुत्पत्य निपत्य च मृगारिणा।
करप्रहारेण शिरश्‍चामरस्य पृथक्कृतम्॥१६॥

उदग्रश्‍च रणे देव्या शिलावृक्षादिभिर्हतः।
दन्तमुष्टितलैश्‍चैव करालश्‍च निपातितः॥१७॥

देवी क्रुद्धा गदापातैश्‍चूर्णयामास चोद्धतम्।
बाष्कलं भिन्दिपालेन बाणैस्ताम्रं तथान्धकम्॥१८॥

उग्रास्यमुग्रवीर्यं च तथैव च महाहनुम्।
त्रिनेत्रा च त्रिशूलेन जघान परमेश्वरी॥१९॥

बिडालस्यासिना कायात्पातयामास वै शिरः।
दुर्धरं दुर्मुखं चोभौ शरैर्निन्ये यमक्षयम्*॥२०॥

एवं संक्षीयमाणे तु स्वसैन्ये महिषासुरः।
माहिषेण स्वरूपेण त्रासयामास तान् गणान्॥२१॥

कांश्‍चित्तुण्डप्रहारेण खुरक्षेपैस्तथापरान्।
लाङ्‌गूलताडितांश्‍चान्याञ्छृङ्‌गाभ्यां च विदारितान्॥२२॥

वेगेन कांश्‍चिदपरान्नादेन भ्रमणेन च।
निःश्वासपवनेनान्यान् पातयामास भूतले॥२३॥

निपात्य प्रमथानीकमभ्यधावत सोऽसुरः।
सिंहं हन्तुं महादेव्याः कोपं चक्रे ततोऽम्बिका॥२४॥

सोऽपि कोपान्महावीर्यः खुरक्षुण्णमहीतलः।
श्रृङ्‌गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप च ननाद च॥२५॥

वेगभ्रमणविक्षुण्णा मही तस्य व्यशीर्यत।
लाङ्‌गूलेनाहतश्‍चाब्धिः प्लावयामास सर्वतः॥२६॥

धुतश्रृङ्‌गविभिन्नाश्‍च खण्डं* खण्डं ययुर्घनाः।
श्‍वासानिलास्ताः शतशो निपेतुर्नभसोऽचलाः॥२७॥

इति क्रोधसमाध्मातमापतन्तं महासुरम्।
दृष्ट्‌वा सा चण्डिका कोपं तद्वधाय तदाकरोत्॥२८॥

सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशं तं बबन्ध महासुरम्।
तत्याज माहिषं रूपं सोऽपि बद्धो महामृधे॥२९॥

ततः सिंहोऽभवत्सद्यो यावत्तस्याम्बिका शिरः।
छिनत्ति तावत्पुरुषः खड्‌गपाणिरदृश्यत॥३०॥

तत एवाशु पुरुषं देवी चिच्छेद सायकैः।
तं खड्‌गचर्मणा सार्धं ततः सोऽभून्महागजः॥३१॥

करेण च महासिंहं तं चकर्ष जगर्ज च।
कर्षतस्तु करं देवी खड्‌गेन निरकृन्तत॥३२॥

ततो महासुरो भूयो माहिषं वपुरास्थितः।
तथैव क्षोभयामास त्रैलोक्यं सचराचरम्॥३३॥

ततः क्रुद्धा जगन्माता चण्डिका पानमुत्तमम्।
पपौ पुनः पुनश्‍चैव जहासारुणलोचना॥३४॥

ननर्द चासुरः सोऽपि बलवीर्यमदोद्‌धतः।
विषाणाभ्यां च चिक्षेप चण्डिकां प्रति भूधरान्॥३५॥

सा च तान् प्रहितांस्तेन चूर्णयन्ती शरोत्करैः।
उवाच तं मदोद्‌धूतमुखरागाकुलाक्षरम्॥३६॥

देव्युवाच॥३७॥

गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम्।
मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः॥३८॥

ऋषिरुवाच॥३९॥

एवमुक्त्वा समुत्पत्य साऽऽरूढा तं महासुरम्।
पादेनाक्रम्य कण्ठे च शूलेनैनमताडयत्॥४०॥

ततः सोऽपि पदाऽऽक्रान्तस्तया निजमुखात्ततः।
अर्धनिष्क्रान्त एवासीद्* देव्या वीर्येण संवृतः॥४१॥

अर्धनिष्क्रान्त एवासौ युध्यमानो महासुरः।
तया महासिना देव्या शिरश्छित्त्वा निपातितः*॥४२॥

ततो हाहाकृतं सर्वं दैत्यसैन्यं ननाश तत्।
प्रहर्षं च परं जग्मुः सकला देवतागणाः॥४३॥

तुष्टुवुस्तां सुरा देवीं सह दिव्यैर्महर्षिभिः।
जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्‍चाप्सरोगणाः॥ॐ॥४४॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
महिषासुरवधो नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
उवाच ३, श्‍लोकाः ४१, एवम् ४४,
एवमादितः॥२१७॥

॥श्रीदुर्गासप्तशती – चतुर्ऽथो ध्यायः॥

इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति :

॥ध्यानम्॥

ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां
शड्‌खं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।
सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं
ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः॥

“ॐ” ऋषिरुवाच*॥१॥

शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये
तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या।
तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा
वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्‌गमचारुदेहाः॥२॥

देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्‍शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः॥३॥

यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो
ब्रह्मा हरश्‍च न हि वक्तुमलं बलं च।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय
नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥४॥

या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्‍वम्॥५॥

किं वर्णयाम तव रूपमचिन्त्यमेतत्
किं चातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि।
किं चाहवेषु चरितानि तवाद्भुतानि
सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु॥६॥

हेतुः समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषैर्न
ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा।
सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूत-
मव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या॥७॥

यस्याः समस्तसुरता समुदीरणेन
तृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि।
स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतु-
रुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च॥८॥

या मुक्तिहेतुरविचिन्त्यमहाव्रता त्व*-
मभ्यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः।
मोक्षार्थिभिर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषै-
र्विर्द्यासि सा भगवती परमा हि देवि॥९॥

शब्दात्मिका सुविमलर्ग्यजुषां निधान-
मुद्‌गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम्।
देवी त्रयी भगवती भवभावनाय
वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री॥१०॥

मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा
दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्‌गा।
श्रीः कैटभारिहृदयैककृताधिवासा
गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा॥११॥

ईषत्सहासममलं परिपूर्णचन्द्र-
बिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम्।
अत्यद्भुतं प्रहृतमात्तरुषा तथापि
वक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण॥१२॥

दृष्ट्‌वा तु देवि कुपितं भ्रुकुटीकराल-
मुद्यच्छशाङ्‌कसदृशच्छवि यन्न सद्यः।
प्राणान्मुमोच महिषस्तदतीव चित्रं
कैर्जीव्यते हि कुपितान्तकदर्शनेन॥१३॥

देवि प्रसीद परमा भवती भवाय
सद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि।
विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेत-
न्नीतं बलं सुविपुलं महिषासुरस्य॥१४॥

ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां
तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः।
धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा
येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥१५॥

धर्म्याणि देवि सकलानि सदैव कर्मा-
ण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति।
स्वर्गं प्रयाति च ततो भवतीप्रसादा-
ल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन॥१६॥

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता॥१७॥

एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते
कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्।
संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु
मत्वेति नूनमहितान् विनिहंसि देवि॥१८॥

दृष्ट्‌वैव किं न भवती प्रकरोति भस्म
सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम्।
लोकान् प्रयान्तु रिपवोऽपि हि शस्त्रपूता
इत्थं मतिर्भवति तेष्वपि तेऽतिसाध्वी॥१९॥

खड्‌गप्रभानिकरविस्फुरणैस्तथोग्रैः
शूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोऽसुराणाम्।
यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड-
योग्याननं तव विलोकयतां तदेतत्॥२०॥

दुर्वृत्तवृत्तशमनं तव देवि शीलं
रूपं तथैतदविचिन्त्यमतुल्यमन्यैः।
वीर्यं च हन्तृ हृतदेवपराक्रमाणां
वैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम्॥२१॥

केनोपमा भवतु तेऽस्य पराक्रमस्य
रूपं च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र।
चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा
त्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेऽपि॥२२॥

त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेन
त्रातं त्वया समरमूर्धनि तेऽपि हत्वा।
नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्त-
मस्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते॥२३॥

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्‌गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च॥२४॥

प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि॥२५॥

सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते।
यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम्॥२६॥

खड्‌गशूलगदादीनि यानि चास्त्राणी तेऽम्बिके।
करपल्लवसङ्‌गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः॥२७॥

ऋषिरुवाच॥२८॥

एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नन्दनोद्भवैः।
अर्चिता जगतां धात्री तथा गन्धानुलेपनैः॥२९॥

भक्त्या समस्तैस्त्रिदशैर्दिव्यैर्धूपैस्तु* धूपिता।
प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान्॥३०॥

देव्युवाच॥३१॥

व्रियतां त्रिदशाः सर्वे यदस्मत्तोऽभिवाञ्छितम्*॥३२॥

देवा ऊचुः॥३३॥

भगवत्या कृतं सर्वं न किंचिदवशिष्यते॥३४॥

यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः।
यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्‍वरि॥३५॥

संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः।
यश्‍च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने॥३६॥

तस्य वित्तर्द्धिविभवैर्धनदारादिसम्पदाम्।
वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके॥३७॥

ऋषिरुवाच॥३८॥

इति प्रसादिता देवैर्जगतोऽर्थे तथाऽऽत्मनः।
तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप॥३९॥

इत्येतत्कथितं भूप सम्भूता सा यथा पुरा।
देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयहितैषिणी॥४०॥

पुनश्‍च गौरीदेहात्सा* समुद्भूता यथाभवत्।
वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः॥४१॥

रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी।
तच्छृणुष्व मयाऽऽख्यातं यथावत्कथयामि ते॥ह्रीं ॐ॥४२॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
शक्रादिस्तुतिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
उवाच ५, अर्धश्‍लोकौः २, श्‍लोकाः ३५,
एवम् ४२, एवमादितः॥२५९॥

संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

॥श्रीदुर्गासप्तशती – पंचमोऽध्यायः॥

देवताओं द्वारा देवी की स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुख से अम्बिका के
रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत
भेजना और दूत का निराश लौटना :

॥विनियोगः॥

ॐ अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य रूद्र ऋषिः, महासरस्वती देवता, अनुष्टुप्
छन्दः, भीमा शक्तिः, भ्रामरी बीजम्, सूर्यस्तत्त्वम्, सामवेदः स्वरूपम्,
महासरस्वतीप्रीत्यर्थे उत्तरचरित्रपाठे विनियोगः।

॥ध्यानम्॥

ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्‌खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥

“ॐ क्लीं” ऋषिरुवाच॥१॥

पुरा शुम्भनिशुम्भाभ्यामसुराभ्यां शचीपतेः।
त्रैलोक्यं यज्ञभागाश्च हृता मदबलाश्रयात्॥२॥

तावेव सूर्यतां तद्वदधिकारं तथैन्दवम्।
कौबेरमथ याम्यं च चक्राते वरुणस्य च॥३॥

तावेव पवनर्द्धिं च चक्रतुर्वह्निकर्म च*।
ततो देवा विनिर्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिताः॥४॥

हृताधिकारास्त्रिदशास्ताभ्यां सर्वे निराकृताः।
महासुराभ्यां तां देवीं संस्मरन्त्यपराजिताम्॥५॥

तयास्माकं वरो दत्तो यथाऽऽपत्सु स्मृताखिलाः।
भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः॥६॥

इति कृत्वा मतिं देवा हिमवन्तं नगेश्व३रम्।
जग्मुस्तत्र ततो देवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः॥७॥

देवा ऊचुः॥८॥

नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्॥९॥

रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्ये धात्र्यै नमो नमः।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः॥१०॥

कल्याण्यै प्रणतां* वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः।
नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः॥११॥

दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः॥१२॥

अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः॥१३॥

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता।
नमस्तस्यै॥१४॥
नमस्तस्यै॥१५॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥१६॥

या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै॥१७॥
नमस्तस्यै॥१८॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥१९॥

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२०॥
नमस्तस्यै॥२१॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥२२॥

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२३॥
नमस्तस्यै॥२४॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥२५॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२६॥
नमस्तस्यै॥२७॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥२८॥

या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥२९॥
नमस्तस्यै॥३०॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥३१॥

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥३२॥
नमस्तस्यै॥३३॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥३४॥

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥३५॥
नमस्तस्यै॥३६॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥३७॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥३८॥
नमस्तस्यै॥३९॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥४०॥

या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥४१॥
नमस्तस्यै॥४२॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥४३॥

या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥४४॥
नमस्तस्यै॥४५॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥४६॥

या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥४७॥
नमस्तस्यै॥४८॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥४९॥

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५०॥
नमस्तस्यै॥५१॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥५२॥

या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५३॥
नमस्तस्यै॥५४॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥५५॥

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५६॥
नमस्तस्यै॥५७॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥५८॥

या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५९॥
नमस्तस्यै॥६०॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥६१॥

या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥६२॥
नमस्तस्यै॥६३॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥६४॥

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥६५॥
नमस्तस्यै॥६६॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥६७॥

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥६८॥
नमस्तस्यै॥६९॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥७०॥

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥७१॥
नमस्तस्यै॥७२॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥७३॥

या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥७४॥
नमस्तस्यै॥७५॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥७६॥

इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः॥७७॥

चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत्।
नमस्तस्यै॥७८॥
नमस्तस्यै॥७९॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥८०॥

स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता।
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वतरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः॥८१॥

या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितैरस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः॥८२॥

ऋषिरुवाच॥८३॥

एवं स्तवादियुक्तानां देवानां तत्र पार्वती।
स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्या नृपनन्दन॥८४॥

साब्रवीत्तान् सुरान् सुभ्रूर्भवद्भिः स्तूयतेऽत्र का।
शरीरकोशतश्चा्स्याः समुद्भूताब्रवीच्छिवा॥८५॥

स्तोत्रं ममैतत् क्रियते शुम्भदैत्यनिराकृतैः।
देवैः समेतैः* समरे निशुम्भेन पराजितैः॥८६॥

शरीर*कोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका।
कौशिकीति* समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते॥८७॥

तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती।
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया॥८८॥

ततोऽम्बिकां परं रूपं बिभ्राणां सुमनोहरम्।
ददर्श चण्डो मुण्डश्च भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः॥८९॥

ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता अतीव सुमनोहरा।
काप्यास्ते स्त्री महाराज भासयन्ती हिमाचलम्॥९०॥

नैव तादृक् क्वचिद्रूपं दृष्टं केनचिदुत्तमम्।
ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यतां चासुरेश्वर॥९१॥

स्त्रीरत्नंमतिचार्वङ्‌गी द्योतयन्ती दिशस्त्विषा।
सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र तां भवान् द्रष्टुमर्हति॥९२॥

यानि रत्नामनि मणयो गजाश्वा्दीनि वै प्रभो।
त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतं भान्ति ते गृहे॥९३॥

ऐरावतः समानीतो गजरत्नंि पुरन्दरात्।
पारिजाततरुश्चा्यं तथैवोच्चैःश्रवा हयः॥९४॥

विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठति तेऽङ्‌गणे।
रत्ननभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसोऽद्भुतम्॥९५॥

निधिरेष महापद्मः समानीतो धनेश्वररात्।
किञ्जल्किनीं ददौ चाब्धिर्मालामम्लानपङ्‌कजाम्॥९६॥

छत्रं ते वारुणं गेहे काञ्चनस्रावि तिष्ठति।
तथायं स्यन्दनवरो यः पुराऽऽसीत्प्रजापतेः॥९७॥

मृत्योरुत्क्रान्तिदा नाम शक्तिरीश त्वया हृता।
पाशः सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे॥९८॥

निशुम्भस्याब्धिजाताश्च समस्ता रत्न्जातयः।
वह्निरपि* ददौ तुभ्यमग्निशौचे च वाससी॥९९॥

एवं दैत्येन्द्र रत्नामनि समस्तान्याहृतानि ते।
स्त्रीरत्नामेषा कल्याणी त्वया कस्मान्न गृह्यते॥१००॥

ऋषिरुवाच॥१०१॥

निशम्येति वचः शुम्भः स तदा चण्डमुण्डयोः।
प्रेषयामास सुग्रीवं दूतं देव्या महासुरम्*॥१०२॥

इति चेति च वक्तव्या सा गत्वा वचनान्मम।
यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यं त्वया लघु॥१०३॥

स तत्र गत्वा यत्रास्ते शैलोद्देशेऽतिशोभने।
सा* देवी तां ततः प्राहश्लिक्ष्णं मधुरया गिरा॥१०४॥

दूत उवाच॥१०५॥

देवि दैत्येश्व०रः शुम्भस्त्रैलोक्ये परमेश्वषरः।
दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सकाशमिहागतः॥१०६॥

अव्याहताज्ञः सर्वासु यः सदा देवयोनिषु।
निर्जिताखिलदैत्यारिः स यदाह श्रृणुष्व तत्॥१०७॥

मम त्रैलोक्यमखिलं मम देवा वशानुगाः।
यज्ञभागानहं सर्वानुपाश्नातमि पृथक् पृथक्॥१०८॥

त्रैलोक्ये वररत्नापनि मम वश्याशन्यशेषतः।
तथैव गजरत्नं्* च हृत्वा* देवेन्द्रवाहनम्॥१०९॥

क्षीरोदमथनोद्भूतमश्वरत्नंं ममामरैः।
उच्चैःश्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम्॥११०॥

यानि चान्यानि देवेषु गन्धर्वेषूरगेषु च।
रत्नैभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने॥१११॥

स्त्रीरत्नसभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम्।
सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्न भुजो वयम्॥११२॥

मां वा ममानुजं वापि निशुम्भमुरुविक्रमम्।
भज त्वं च चञ्चलापाङ्‌गि रत्नमभूतासि वै यतः॥११३॥

परमैश्वतर्यमतुलं प्राप्स्यसे मत्परिग्रहात्।
एतद् बुद्ध्या समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज॥११४॥

ऋषिरुवाच॥११५॥

इत्युक्ता सा तदा देवी गम्भीरान्तःस्मिता जगौ।
दुर्गा भगवती भद्रा ययेदं धार्यते जगत्॥११६॥

देव्युवाच॥११७॥

सत्यमुक्तं त्वया नात्र मिथ्या किञ्चित्त्वयोदितम्।
त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भो निशुम्भश्चा्पि तादृशः॥११८॥

किं त्वत्र यत्प्रतिज्ञातं मिथ्या तत्क्रियते कथम्।
श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा॥११९॥

यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥१२०॥

तदागच्छतु शुम्भोऽत्र निशुम्भो वा महासुरः।
मां जित्वा किं चिरेणात्र पाणिं गृह्णातु मे लघु॥१२१॥

दूत उवाच॥१२२॥

अवलिप्तासि मैवं त्वं देवि ब्रूहि ममाग्रतः।
त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः॥१२३॥

अन्येषामपि दैत्यानां सर्वे देवा न वै युधि।
तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनः स्त्री त्वमेकिका॥१२४॥

इन्द्राद्याः सकला देवास्तस्थुर्येषां न संयुगे।
शुम्भादीनां कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम्॥१२५॥

सा त्वं गच्छ मयैवोक्ता पार्श्वंप शुम्भनिशुम्भयोः।
केशाकर्षणनिर्धूतगौरवा मा गमिष्यसि॥१२६॥

देव्युवाच॥१२७॥

एवमेतद् बली शुम्भो निशुम्भश्चा॥तिवीर्यवान्।
किं करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा॥१२८॥

स त्वं गच्छ मयोक्तं ते यदेतत्सर्वमादृतः।
तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु तत्*॥ॐ॥१२९॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये देव्या
दूतसंवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
उवाच ९, त्रिपान्मन्त्राः ६६, श्लो काः ५४, एवम् १२९,
एवमादितः॥३८८॥

संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

॥श्रीदुर्गासप्तशती – षष्टमों ऽध्यायः॥

॥ध्यानम्॥

ॐ नागाधीश्वरविष्टरां फणिफणोत्तंसोरुरत्नावली-
भास्वद्देहलतां दिवाकरनिभां नेत्रत्रयोद्भासिताम्।
मालाकुम्भकपालनीरजकरां चन्द्रार्धचूडां परां
सर्वज्ञेश्वरभैरवाङ्कनिलयां पद्मावतीं चिन्तये॥

“ॐ” ऋषिरुवाच॥१॥

इत्याकर्ण्य वचो देव्याः स दूतोऽमर्षपूरितः।
समाचष्ट समागम्य दैत्यराजाय विस्तरात्॥२॥

तस्य दूतस्य तद्वाक्यमाकर्ण्यासुरराट् ततः।
सक्रोधः प्राह दैत्यानामधिपं धूम्रलोचनम्॥३॥

हे धूम्रलोचनाशु त्वं स्वसैन्यपरिवारितः।
तामानय बलाद् दुष्टां केशाकर्षणविह्वलाम्॥४॥

तत्परित्राणदः कश्चिद्यदि वोत्तिष्ठतेऽपरः।
स हन्तव्योऽमरो वापि यक्षो गन्धर्व एव वा॥५॥

ऋषिरुवाच॥६॥

तेनाज्ञप्तस्ततः शीघ्रं स दैत्यो धूम्रलोचनः।
वृतः षष्ट्या सहस्राणामसुराणां द्रुतं ययौ॥७॥

स दृष्ट्वा तां ततो देवीं तुहिनाचलसंस्थिताम्।
जगादोच्चैः प्रयाहीति मूलं शुम्भनिशुम्भयोः॥८॥

न चेत्प्रीत्याद्य भवती मद्भर्तारमुपैष्यति।
ततो बलान्नयाम्येष केशाकर्षणविह्वलाम्॥९॥

देव्युवाच॥१०॥

दैत्येश्वरेण प्रहितो बलवान् बलसंवृतः।
बलान्नयसि मामेवं ततः किं ते करोम्यहम्॥११॥

ऋषिरुवाच॥१२॥

इत्युक्तः सोऽभ्यधावत्तामसुरो धूम्रलोचनः।
हुंकारेणैव तं भस्म सा चकाराम्बिका ततः॥१३॥

अथ क्रुद्धं महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका*।
ववर्ष सायकैस्तीक्ष्णैस्तथा शक्तिपरश्वधैः॥१४॥

ततो धुतसटः कोपात्कृत्वा नादं सुभैरवम्।
पपातासुरसेनायां सिंहो देव्याः स्ववाहनः॥१५॥

कांश्चित् करप्रहारेण दैत्यानास्येन चापरान्।
आक्रम्य* चाधरेणान्यान्* स जघान* महासुरान्॥१६॥

केषांचित्पाटयामास नखैः कोष्ठानि केसरी*।
तथा तलप्रहारेण शिरांसि कृतवान् पृथक्॥१७॥

विच्छिन्नबाहुशिरसः कृतास्तेन तथापरे।
पपौ च रुधिरं कोष्ठादन्येषां धुतकेसरः॥१८॥

क्षणेन तद्बलं सर्वं क्षयं नीतं महात्मना।
तेन केसरिणा देव्या वाहनेनातिकोपिना॥१९॥

श्रुत्वा तमसुरं देव्या निहतं धूम्रलोचनम्।
बलं च क्षयितं कृत्स्नं देवीकेसरिणा ततः॥२०॥

चुकोप दैत्याधिपतिः शुम्भः प्रस्फुरिताधरः।
आज्ञापयामास च तौ चण्डमुण्डौ महासुरौ॥२१॥

हे चण्ड हे मुण्ड बलैर्बहुभिः* परिवारितौ।
तत्र गच्छत गत्वा च सा समानीयतां लघु॥२२॥

केशेष्वाकृष्य बद्ध्वा वा यदि वः संशयो युधि।
तदाशेषायुधैः सर्वैरसुरैर्विनिहन्यताम्॥२३॥

तस्यां हतायां दुष्टायां सिंहे च विनिपातिते।
शीघ्रमागम्यतां बद्ध्वा गृहीत्वा तामथाम्बिकाम्॥ॐ॥२४॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
शुम्भनिशुम्भसेनानीधूम्रलोचनवधो नाम षष्ठोऽध्यायः॥
२६॥

संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

॥श्रीदुर्गासप्तशती –  सप्तमो ऽध्यायः॥

॥ध्यानम्॥

ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्गीं
न्यस्तैकाङ्घ्रिं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम्।
कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रां
मातङ्गीं शङ्खपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम्॥

“ॐ” ऋषिरुवाच॥१॥

आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चण्डमुण्डपुरोगमाः।
चतुरङ्गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः॥२॥

ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम्।
सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृङ्गे महति काञ्चने॥३॥

ते दृष्ट्वा तां समादातुमुद्यमं चक्रुरुद्यताः।
आकृष्टचापासिधरास्तथान्ये तत्समीपगाः॥४॥

ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन् प्रति।
कोपेन चास्या वदनं मषी*वर्णमभूत्तदा॥५॥

भ्रुकुटीकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्द्रुतम्।
काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी॥६॥

विचित्रखट्वाङ्गधरा नरमालाविभूषणा।
द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा॥७॥

अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा।
निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा॥८॥

सा वेगेनाभिपतिता घातयन्ती महासुरान्।
सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयत तद्बलम्॥९॥

पार्ष्णिग्राहाङ्कुशग्राहियोधघण्टासमन्वितान्।
समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान्॥१०॥

तथैव योधं तुरगै रथं सारथिना सह।
निक्षिप्य वक्त्रे दशनैश्चर्वयन्त्य*तिभैरवम्॥११॥

एकं जग्राह केशेषु ग्रीवायामथ चापरम्।
पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत्॥१२॥

तैर्मुक्तानि च शस्त्राणि महास्त्राणि तथासुरैः।
मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि॥१३॥

बलिनां तद् बलं सर्वमसुराणां दुरात्मनाम्।
ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तथा॥१४॥

असिना निहताः केचित्केचित्खट्वाङ्गताडिताः*।
जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा॥१५॥

क्षणेन तद् बलं सर्वमसुराणां निपातितम्।
दृष्ट्वा चण्डोऽभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम्॥१६॥

शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं तां महासुरः।
छादयामास चक्रैश्च मुण्डः क्षिप्तैः सहस्रशः॥१७॥

तानि चक्राण्यनेकानि विशमानानि तन्मुखम्।
बभुर्यथार्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम्॥१८॥

ततो जहासातिरुषा भीमं भैरवनादिनी।
कालीकरालवक्त्रान्तर्दुर्दर्शदशनोज्ज्वला॥१९॥

उत्थाय च महासिं हं देवी चण्डमधावत।
गृहीत्वा चास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत्*॥२०॥

अथ मुण्डोऽभ्यधावत्तां दृष्ट्वा चण्डं निपातितम्।
तमप्यपातयद्भूमौ सा खड्गाभिहतं रुषा॥२१॥

हतशेषं ततः सैन्यं दृष्ट्वा चण्डं निपातितम्।
मुण्डं च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम्॥२२॥

शिरश्चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डमेव च।
प्राह प्रचण्डाट्टहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम्॥२३॥

मया तवात्रोपहृतौ चण्डमुण्डौ महापशू।
युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि॥२४॥

ऋषिरुवाच॥२५॥

तावानीतौ ततो दृष्ट्वा चण्डमुण्डौ महासुरौ।
उवाच कालीं कल्याणी ललितं चण्डिका वचः॥२६॥

यस्माच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता।
चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यसि॥ॐ॥२७॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
चण्डमुण्डवधो नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥

संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

॥श्रीदुर्गासप्तशती – अष्टमोऽध्यायः॥

॥ध्यानम्॥

ॐ अरुणां करुणातरङ्गिताक्षीं
धृतपाशाङ्कुशबाणचापहस्ताम्।
अणिमादिभिरावृतां मयूखै-
रहमित्येव विभावये भवानीम्॥

“ॐ” ऋषिरुवाच॥१॥

चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते।
बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्वरः॥२॥

ततः कोपपराधीनचेताः शुम्भः प्रतापवान्।
उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश ह॥३॥

अद्य सर्वबलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः।
कम्बूनां चतुरशीतिर्निर्यान्तु स्वबलैर्वृताः॥४॥

कोटिवीर्याणि पञ्चाशदसुराणां कुलानि वै।
शतं कुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु ममाज्ञया॥५॥

कालका दौर्हृद मौर्याः कालकेयास्तथासुराः।
युद्धाय सज्जा निर्यान्तु आज्ञया त्वरिता मम॥६॥

इत्याज्ञाप्यासुरपतिः शुम्भो भैरवशासनः।
निर्जगाम महासैन्यसहस्रैर्बहुभिर्वृतः॥७॥

आयान्तं चण्डिका दृष्ट्वा तत्सैन्यमतिभीषणम्।
ज्यास्वनैः पूरयामास धरणीगगनान्तरम्॥८॥

ततः* सिंहो महानादमतीव कृतवान् नृप।
घण्टास्वनेन तन्नादमम्बिका* चोपबृंहयत्॥९॥

धनुर्ज्यासिंहघण्टानां नादापूरितदिङ्मुखा।
निनादैर्भीषणैः काली जिग्ये विस्तारितानना॥१०॥

तं निनादमुपश्रुत्य दैत्यसैन्यैश्चतुर्दिशम्।
देवी सिंहस्तथा काली सरोषैः परिवारिताः॥११॥

एतस्मिन्नन्तरे भूप विनाशाय सुरद्विषाम्।
भवायामरसिंहानामतिवीर्यबलान्विताः॥१२॥

ब्रह्मेशगुहविष्णूनां तथेन्द्रस्य च शक्तयः।
शरीरेभ्यो विनिष्क्रम्य तद्रूपैश्चण्डिकां ययुः॥१३॥

यस्य देवस्य यद्रूपं यथाभूषणवाहनम्।
तद्वदेव हि तच्छक्तिरसुरान् योद्धुमाययौ॥१४॥

हंसयुक्तविमानाग्रे साक्षसूत्रकमण्डलुः।
आयाता ब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणी साभिधीयते॥१५॥

माहेश्वरी वृषारूढा त्रिशूलवरधारिणी।
महाहिवलया प्राप्ता चन्द्ररेखाविभूषणा॥१६॥

कौमारी शक्तिहस्ता च मयूरवरवाहना।
योद्धुमभ्याययौ दैत्यानम्बिका गुहरूपिणी॥१७॥

तथैव वैष्णवी शक्तिर्गरुडोपरि संस्थिता।
शङ्खचक्रगदाशाङ्र्गखड्गहस्ताभ्युपाययौ॥१८॥

यज्ञवाराहमतुलं* रूपं या बिभ्रतो* हरेः।
शक्तिः साप्याययौ तत्र वाराहीं बिभ्रती तनुम्॥१९॥

नारसिंही नृसिंहस्य बिभ्रती सदृशं वपुः।
प्राप्ता तत्र सटाक्षेपक्षिप्तनक्षत्रसंहतिः॥२०॥

वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरि स्थिता।
प्राप्ता सहस्रनयना यथा शक्रस्तथैव सा॥२१॥

ततः परिवृतस्ताभिरीशानो देवशक्तिभिः।
हन्यन्तामसुराः शीघ्रं मम प्रीत्याऽऽहचण्डिकाम्॥२२॥

ततो देवीशरीरात्तु विनिष्क्रान्तातिभीषणा।
चण्डिकाशक्तिरत्युग्रा शिवाशतनिनादिनी॥२३॥

सा चाह धूम्रजटिलमीशानमपराजिता।
दूत त्वं गच्छ भगवन् पार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः॥२४॥

ब्रूहि शुम्भं निशुम्भं च दानवावतिगर्वितौ।
ये चान्ये दानवास्तत्र युद्धाय समुपस्थिताः॥२५॥

त्रैलोक्यमिन्द्रो लभतां देवाः सन्तु हविर्भुजः।
यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ॥२६॥

बलावलेपादथ चेद्भवन्तो युद्धकाङ्क्षिणः।
तदागच्छत तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन वः॥२७॥

यतो नियुक्तो दौत्येन तया देव्या शिवः स्वयम्।
शिवदूतीति लोकेऽस्मिंस्ततः सा ख्यातिमागता॥२८॥

तेऽपि श्रुत्वा वचो देव्याः शर्वाख्यातं महासुराः।
अमर्षापूरिता जग्मुर्यत्र* कात्यायनी स्थिता॥२९॥

ततः प्रथममेवाग्रे शरशक्त्यृष्टिवृष्टिभिः।
ववर्षुरुद्धतामर्षास्तां देवीममरारयः॥३०॥

सा च तान् प्रहितान् बाणाञ्छूलशक्तिपरश्वधान्।
चिच्छेद लीलयाऽऽध्मातधनुर्मुक्तैर्महेषुभिः॥३१॥

तस्याग्रतस्तथा काली शूलपातविदारितान्।
खट्वाङ्गपोथितांश्चारीन् कुर्वती व्यचरत्तदा॥३२॥

कमण्डलुजलाक्षेपहतवीर्यान् हतौजसः।
ब्रह्माणी चाकरोच्छत्रून् येन येन स्म धावति॥३३॥

माहेश्वरी त्रिशूलेन तथा चक्रेण वैष्णवी।
दैत्याञ्जघान कौमारी तथा शक्त्यातिकोपना॥३४॥

ऐन्द्रीकुलिशपातेन शतशो दैत्यदानवाः।
पेतुर्विदारिताः पृथ्व्यां रुधिरौघप्रवर्षिणः॥३५॥

तुण्डप्रहारविध्वस्ता दंष्ट्राग्रक्षतवक्षसः।
वाराहमूर्त्या न्यपतंश्चक्रेण च विदारिताः॥३६॥

नखैर्विदारितांश्चान्यान् भक्षयन्ती महासुरान्।
नारसिंही चचाराजौ नादापूर्णदिगम्बरा॥३७॥

चण्डाट्टहासैरसुराः शिवदूत्यभिदूषिताः।
पेतुः पृथिव्यां पतितांस्तांश्चखादाथ सा तदा॥३८॥

इति मातृगणं क्रुद्धं मर्दयन्तं महासुरान्।
दृष्ट्वाभ्युपायैर्विविधैर्नेशुर्देवारिसैनिकाः॥३९॥

पलायनपरान् दृष्ट्वा दैत्यान् मातृगणार्दितान्।
योद्धुमभ्याययौ क्रुद्धो रक्तबीजो महासुरः॥४०॥

रक्तबिन्दुर्यदा भूमौ पतत्यस्य शरीरतः।
समुत्पतति मेदिन्यां* तत्प्रमाणस्तदासुरः॥४१॥

युयुधे स गदापाणिरिन्द्रशक्त्या महासुरः।
ततश्चैन्द्री स्ववज्रेण रक्तबीजमताडयत्॥४२॥

कुलिशेनाहतस्याशु बहु* सुस्राव शोणितम्।
समुत्तस्थुस्ततो योधास्तद्रूपास्तत्पराक्रमाः॥४३॥

यावन्तः पतितास्तस्य शरीराद्रक्तबिन्दवः।
तावन्तः पुरुषा जातास्तद्वीर्यबलविक्रमाः॥४४॥

ते चापि युयुधुस्तत्र पुरुषा रक्तसम्भवाः।
समं मातृभिरत्युग्रशस्त्रपातातिभीषणम्॥४५॥

पुनश्च वज्रपातेन क्षतमस्य शिरो यदा।
ववाह रक्तं पुरुषास्ततो जाताः सहस्रशः॥४६॥

वैष्णवी समरे चैनं चक्रेणाभिजघान ह।
गदया ताडयामास ऐन्द्री तमसुरेश्वरम्॥४७॥

वैष्णवीचक्रभिन्नस्य रुधिरस्रावसम्भवैः।
सहस्रशो जगद्व्याप्तं तत्प्रमाणैर्महासुरैः॥४८॥

शक्त्या जघान कौमारी वाराही च तथासिना।
माहेश्वरी त्रिशूलेन रक्तबीजं महासुरम्॥४९॥

स चापि गदया दैत्यः सर्वा एवाहनत् पृथक्।
मातॄः कोपसमाविष्टो रक्तबीजो महासुरः॥५०॥

तस्याहतस्य बहुधा शक्तिशूलादिभिर्भुवि।
पपात यो वै रक्तौघस्तेनासञ्छतशोऽसुराः॥५१॥

तैश्चासुरासृक्सम्भूतैरसुरैः सकलं जगत्।
व्याप्तमासीत्ततो देवा भयमाजग्मुरुत्तमम्॥५२॥

तान् विषण्णान् सुरान् दृष्ट्वा चण्डिका प्राह सत्वरा।
उवाच कालीं चामुण्डे विस्तीर्णं* वदनं कुरु॥५३॥

मच्छस्त्रपातसम्भूतान् रक्तबिन्दून्महासुरान्।
रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं वक्त्रेणानेन वेगिना*॥५४॥

भक्षयन्ती चर रणे तदुत्पन्नान्महासुरान्।
एवमेष क्षयं दैत्यः क्षीणरक्तो गमिष्यति॥५५॥

भक्ष्यमाणास्त्वया चोग्रा न चोत्पत्स्यन्ति चापरे*।
इत्युक्त्वा तां ततो देवी शूलेनाभिजघान तम्॥५६॥

मुखेन काली जगृहे रक्तबीजस्य शोणितम्।
ततोऽसावाजघानाथ गदया तत्र चण्डिकाम्॥५७॥

न चास्या वेदनां चक्रे गदापातोऽल्पिकामपि।
तस्याहतस्य देहात्तु बहु सुस्राव शोणितम्॥५८॥

यतस्ततस्तद्वक्त्रेण चामुण्डा सम्प्रतीच्छति।
मुखे समुद्गता येऽस्या रक्तपातान्महासुराः॥५९॥

तांश्चखादाथ चामुण्डा पपौ तस्य च शोणितम्।
देवी शूलेन वज्रेण* बाणैरसिभिर्ऋष्टिभिः॥६०॥

जघान रक्तबीजं तं चामुण्डापीतशोणितम्।
स पपात महीपृष्ठे शस्त्रसङ्घसमाहतः*॥६१॥

नीरक्तश्च महीपाल रक्तबीजो महासुरः।
ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रिदशा नृप॥६२॥

तेषां मातृगणो जातो ननर्तासृङ्मदोद्धतः॥ॐ॥६३॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
रक्तबीजवधो नामाष्टमोऽध्यायः॥८॥

संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

॥श्रीदुर्गासप्तशती – नमाष्ट्मोऽध्यायः॥

॥ध्यानम्॥

ॐ बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां
पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्डैः।
बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र-
मर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि॥

“ॐ” राजोवाच॥१॥

विचित्रमिदमाख्यातं भगवन् भवता मम।
देव्याश्चरितमाहात्म्यं रक्तबीजवधाश्रितम्॥२॥

भूयश्चेच्छाम्यहं श्रोतुं रक्तबीजे निपातिते।
चकार शुम्भो यत्कर्म निशुम्भश्चातिकोपनः॥३॥

ऋषिरुवाच॥४॥

चकार कोपमतुलं रक्तबीजे निपातिते।
शुम्भासुरो निशुम्भश्च हतेष्वन्येषु चाहवे॥५॥

हन्यमानं महासैन्यं विलोक्यामर्षमुद्वहन्।
अभ्यधावन्निशुम्भोऽथ मुख्ययासुरसेनया॥६॥

तस्याग्रतस्तथा पृष्ठे पार्श्वयोश्च महासुराः।
संदष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा हन्तुं देवीमुपाययुः॥७॥

आजगाम महावीर्यः शुम्भोऽपि स्वबलैर्वृतः।
निहन्तुं चण्डिकां कोपात्कृत्वा युद्धं तु मातृभिः॥८॥

ततो युद्धमतीवासीद्देव्या शुम्भनिशुम्भयोः।
शरवर्षमतीवोग्रं मेघयोरिव वर्षतोः॥९॥

चिच्छेदास्ताञ्छरांस्ताभ्यां चण्डिका स्वशरोत्करैः*।
ताडयामास चाङ्गेषु शस्त्रौघैरसुरेश्वरौ॥१०॥

निशुम्भो निशितं खड्गं चर्म चादाय सुप्रभम्।
अताडयन्मूर्ध्नि सिंहं देव्या वाहनमुत्तमम्॥११॥

ताडिते वाहने देवी क्षुरप्रेणासिमुत्तमम्।
निशुम्भस्याशु चिच्छेद चर्म चाप्यष्टचन्द्रकम्॥१२॥

छिन्ने चर्मणि खड्गे च शक्तिं चिक्षेप सोऽसुरः।
तामप्यस्य द्विधा चक्रे चक्रेणाभिमुखागताम्॥१३॥

कोपाध्मातो निशुम्भोऽथ शूलं जग्राह दानवः।
आयातं* मुष्टिपातेन देवी तच्चाप्यचूर्णयत्॥१४॥

आविध्याथ* गदां सोऽपि चिक्षेप चण्डिकां प्रति।
सापि देव्या त्रिशूलेन भिन्ना भस्मत्वमागता॥१५॥

ततः परशुहस्तं तमायान्तं दैत्यपुङ्गवम्।
आहत्य देवी बाणौघैरपातयत भूतले॥१६॥

तस्मिन्निपतिते भूमौ निशुम्भे भीमविक्रमे।
भ्रातर्यतीव संक्रुद्धः प्रययौ हन्तुमम्बिकाम्॥१७॥

स रथस्थस्तथात्युच्चैर्गृहीतपरमायुधैः।
भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं बभौ नभः॥१८॥

तमायान्तं समालोक्य देवी शङ्खमवादयत्।
ज्याशब्दं चापि धनुषश्चकारातीव दुःसहम्॥१९॥

पूरयामास ककुभो निजघण्टास्वनेन च।
समस्तदैत्यसैन्यानां तेजोवधविधायिना॥२०॥

ततः सिंहो महानादैस्त्याजितेभमहामदैः।
पूरयामास गगनं गां तथैव* दिशो दश॥२१॥

ततः काली समुत्पत्य गगनं क्ष्मामताडयत्।
कराभ्यां तन्निनादेन प्राक्स्वनास्ते तिरोहिताः॥२२॥

अट्टाट्टहासमशिवं शिवदूती चकार ह।
तैः शब्दैरसुरास्त्रेसुः शुम्भः कोपं परं ययौ॥२३॥

दुरात्मंस्तिष्ठ तिष्ठेति व्याजहाराम्बिका यदा।
तदा जयेत्यभिहितं देवैराकाशसंस्थितैः॥२४॥

शुम्भेनागत्य या शक्तिर्मुक्ता ज्वालातिभीषणा।
आयान्ती वह्निकूटाभा सा निरस्ता महोल्कया॥२५॥

सिंहनादेन शुम्भस्य व्याप्तं लोकत्रयान्तरम्।
निर्घातनिःस्वनो घोरो जितवानवनीपते॥२६॥

शुम्भमुक्ताञ्छरान्देवी शुम्भस्तत्प्रहिताञ्छरान्।
चिच्छेद स्वशरैरुग्रैः शतशोऽथ सहस्रशः॥२७॥

ततः सा चण्डिका क्रुद्धा शूलेनाभिजघान तम्।
स तदाभिहतो भूमौ मूर्च्छितो निपपात ह॥२८॥

ततो निशुम्भः सम्प्राप्य चेतनामात्तकार्मुकः।
आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा॥२९॥

पुनश्च कृत्वा बाहूनामयुतं दनुजेश्वरः।
चक्रायुधेन दितिजश्छादयामास चण्डिकाम्॥३०॥

ततो भगवती क्रुद्धा दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी।
चिच्छेद तानि चक्राणि स्वशरैः सायकांश्च तान्॥३१॥

ततो निशुम्भो वेगेन गदामादाय चण्डिकाम्।
अभ्यधावत वै हन्तुं दैत्यसेनासमावृतः॥३२॥

तस्यापतत एवाशु गदां चिच्छेद चण्डिका।
खड्गेन शितधारेण स च शूलं समाददे॥३३॥

शूलहस्तं समायान्तं निशुम्भममरार्दनम्।
हृदि विव्याध शूलेन वेगाविद्धेन चण्डिका॥३४॥

भिन्नस्य तस्य शूलेन हृदयान्निःसृतोऽपरः।
महाबलो महावीर्यस्तिष्ठेति पुरुषो वदन्॥३५॥

तस्य निष्क्रामतो देवी प्रहस्य स्वनवत्ततः।
शिरश्चिच्छेद खड्गेन ततोऽसावपतद्भुवि॥३६॥

ततः सिंहश्चखादोग्रं* दंष्ट्राक्षुण्णशिरोधरान्।
असुरांस्तांस्तथा काली शिवदूती तथापरान्॥३७॥

कौमारीशक्तिनिर्भिन्नाः केचिन्नेशुर्महासुराः।
ब्रह्माणीमन्त्रपूतेन तोयेनान्ये निराकृताः॥३८॥

माहेश्वरीत्रिशूलेन भिन्नाः पेतुस्तथापरे।
वाराहीतुण्डघातेन केचिच्चूर्णीकृता भुवि॥३९॥

खण्डं* खण्डं च चक्रेण वैष्णव्या दानवाः कृताः।
वज्रेण चैन्द्रीहस्ताग्रविमुक्तेन तथापरे॥४०॥

केचिद्विनेशुरसुराः केचिन्नष्टा महाहवात्।
भक्षिताश्चापरे कालीशिवदूतीमृगाधिपैः॥ॐ॥४१॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
निशुम्भवधो नाम नवमोऽध्यायः॥९॥

संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

॥श्रीदुर्गासप्तशती – दशमोऽध्यायः॥

॥ध्यानम्॥

ॐ उत्तप्तहेमरुचिरां रविचन्द्रवह्नि-
नेत्रां धनुश्शरयुताङ्कुशपाशशूलम्।
रम्यैर्भुजैश्च दधतीं शिवशक्तिरूपां
कामेश्वरीं हृदि भजामि धृतेन्दुलेखाम्॥

“ॐ” ऋषिरुवाच॥१॥

निशुम्भं निहतं दृष्ट्वा भ्रातरं प्राणसम्मितम्।
हन्यमानं बलं चैव शुम्भः क्रुद्धोऽब्रवीद्वचः॥२॥

बलावलेपाद्दुष्टे* त्वं मा दुर्गे गर्वमावह।
अन्यासां बलमाश्रित्य युद्ध्यसे यातिमानिनी॥३॥

देव्युवाच॥४॥

एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा।
पश्यैता दुष्ट मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः*॥५॥

ततः समस्तास्ता देव्यो ब्रह्माणीप्रमुखा लयम्।
तस्या देव्यास्तनौ जग्मुरेकैवासीत्तदाम्बिका॥६॥

देव्युवाच॥७॥

अहं विभूत्या बहुभिरिह रूपैर्यदास्थिता।
तत्संहृतं मयैकैव तिष्ठाम्याजौ स्थिरो भव॥८॥

ऋषिरुवाच।।९॥

ततः प्रववृते युद्धं देव्याः शुम्भस्य चोभयोः।
पश्यतां सर्वदेवानामसुराणां च दारुणम्॥१०॥

शरवर्षैः शितैः शस्त्रैस्तथास्त्रैश्चैव दारुणैः।
तयोर्युद्धमभूद्भूयः सर्वलोकभयङ्करम्॥११॥

दिव्यान्यस्त्राणि शतशो मुमुचे यान्यथाम्बिका।
बभञ्ज तानि दैत्येन्द्रस्तत्प्रतीघातकर्तृभिः॥१२॥

मुक्तानि तेन चास्त्राणि दिव्यानि परमेश्वरी।
बभञ्ज लीलयैवोग्रहु*ङ्कारोच्चारणादिभिः॥१३॥

ततः शरशतैर्देवीमाच्छादयत सोऽसुरः।
सापि* तत्कुपिता देवी धनुश्चिच्छेद चेषुभिः॥१४॥

छिन्ने धनुषि दैत्येन्द्रस्तथा शक्तिमथाददे।
चिच्छेद देवी चक्रेण तामप्यस्य करे स्थिताम्॥१५॥

ततः खड्गमुपादाय शतचन्द्रं च भानुमत्।
अभ्यधावत्तदा* देवीं दैत्यानामधिपेश्वरः॥१६॥

तस्यापतत एवाशु खड्गं चिच्छेद चण्डिका।
धनुर्मुक्तैः शितैर्बाणैश्चर्म चार्ककरामलम्*॥१७॥

हताश्वः स तदा दैत्यश्छिन्नधन्वा विसारथिः।
जग्राह मुद्गरं घोरमम्बिकानिधनोद्यतः॥१८॥

चिच्छेदापततस्तस्य मुद्गरं निशितैः शरैः।
तथापि सोऽभ्यधावत्तां मुष्टिमुद्यम्य वेगवान्॥१९॥

स मुष्टिं पातयामास हृदये दैत्यपुङ्गवः।
देव्यास्तं चापि सा देवी तलेनोरस्यताडयत्॥२०॥

तलप्रहाराभिहतो निपपात महीतले।
स दैत्यराजः सहसा पुनरेव तथोत्थितः॥२१॥

उत्पत्य च प्रगृह्योच्चैर्देवीं गगनमास्थितः।
तत्रापि सा निराधारा युयुधे तेन चण्डिका॥२२॥

नियुद्धं खे तदा दैत्यश्चण्डिका च परस्परम्।
चक्रतुः प्रथमं सिद्धमुनिविस्मयकारकम्॥२३॥

ततो नियुद्धं सुचिरं कृत्वा तेनाम्बिका सह।
उत्पात्य भ्रामयामास चिक्षेप धरणीतले॥२४॥

स क्षिप्तो धरणीं प्राप्य मुष्टिमुद्यम्य वेगितः*।
अभ्यधावत दुष्टात्मा चण्डिकानिधनेच्छया॥२५॥

तमायान्तं ततो देवी सर्वदैत्यजनेश्वरम्।
जगत्यां पातयामास भित्त्वा शूलेन वक्षसि॥२६॥

स गतासुः पपातोर्व्यां देवीशूलाग्रविक्षतः।
चालयन् सकलां पृथ्वीं साब्धिद्वीपां सपर्वताम्॥२७॥

ततः प्रसन्नमखिलं हते तस्मिन् दुरात्मनि।
जगत्स्वास्थ्यमतीवाप निर्मलं चाभवन्नभः॥२८॥

उत्पातमेघाः सोल्का ये प्रागासंस्ते शमं ययुः।
सरितो मार्गवाहिन्यस्तथासंस्तत्र पातिते॥२९॥

ततो देवगणाः सर्वे हर्षनिर्भरमानसाः।
बभूवुर्निहते तस्मिन् गन्धर्वा ललितं जगुः॥३०॥

अवादयंस्तथैवान्ये ननृतुश्चाप्सरोगणाः।
ववुः पुण्यास्तथा वाताः सुप्रभोऽभूद्दिवाकरः॥३१॥

जज्वलुश्चाग्नयः शान्ताः शान्ता दिग्जनितस्वनाः॥ॐ॥३२॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
शुम्भवधो नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥

संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

॥श्रीदुर्गासप्तशती – एकादशऽध्यायः॥

देवताओं द्वारा देवी की सतुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान :

॥ध्यानम्॥

ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम्।
स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम्॥

“ॐ” ऋषिरुवाच॥१॥

देव्या हते तत्र महासुरेन्द्रे
सेन्द्राः सुरा वह्निपुरोगमास्ताम्।
कात्यायनीं तुष्टुवुरिष्टलाभाद्*
विकाशिवक्त्राब्जविकाशिताशाः*॥२॥

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥३॥

आधारभूता जगतस्त्वमेका
महीस्वरूपेण यतः स्थितासि।
अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत-
दाप्यायते कृत्स्नमलङ्घ्यवीर्ये॥४॥

त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या
विश्वस्य बीजं परमासि माया।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्
त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः॥५॥

विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः
स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्
का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः॥६॥

सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्ति*प्रदायिनी।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः॥७॥

सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते।
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥८॥

कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनि।
विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोऽस्तु ते॥९॥

सर्वमङ्गलमंङ्गल्ये* शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१०॥

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥११॥

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१२॥

हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणीरूपधारिणि।
कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१३॥

त्रिशूलचन्द्राहिधरे महावृषभवाहिनि।
माहेश्वरीस्वरूपेण नारायणि नमोऽस्तु ते॥१४॥

मयूरकुक्कुटवृते महाशक्तिधरेऽनघे।
कौमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु ते॥१५॥

शङ्खचक्रगदाशाङ्र्गगृहीतपरमायुधे।
प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोऽस्तु ते॥१६॥

गृहीतोग्रमहाचक्रे दंष्ट्रोद्धृतवसुंधरे।
वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु ते॥१७॥

नृसिंहरूपेणोग्रेण हन्तुं दैत्यान् कृतोद्यमे।
त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोऽस्तु ते॥१८॥

किरीटिनि महावज्रे सहस्रनयनोज्ज्वले।
वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१९॥

शिवदूतीस्वरूपेण हतदैत्यमहाबले।
घोररूपे महारावे नारायणि नमोऽस्तु ते॥२०॥

दंष्ट्राकरालवदने शिरोमालाविभूषणे।
चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोऽस्तु ते॥२१॥

लक्ष्मि लज्जे महाविद्ये श्रद्धे पुष्टिस्वधे* ध्रुवे।
महारात्रि* महाऽविद्ये* नारायणि नमोऽस्तु ते॥२२॥

मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि तामसि।
नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोऽस्तु ते*॥२३॥

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥२४॥

एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।
पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥२५॥

ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥२६॥

हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽनः सुतानिव॥२७॥

असुरासृग्वसापङ्कचर्चितस्ते करोज्ज्वलः।
शुभाय खड्गो भवतु चण्डिके त्वां नता वयम्॥२८॥

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा* तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥२९॥

एतत्कृतं यत्कदनं त्वयाद्य
धर्मद्विषां देवि महासुराणाम्।
रूपैरनेकैर्बहुधाऽऽत्ममूर्तिं
कृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या॥३०॥

विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपे-
ष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या।
ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे
विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम्॥३१॥

रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा
यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये
तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्॥३२॥

विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्।
विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति
विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः॥३३॥

देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते-
र्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः।
पापानि सर्वजगतां प्रशमं* नयाशु
उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान्॥३४॥

प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव॥३५॥

देव्युवाच॥३६॥

वरदाहं सुरगणा वरं यन्मनसेच्छथ।
तं वृणुध्वं प्रयच्छामि जगतामुपकारकम्॥३७॥

देवा ऊचुः॥३८॥

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥३९॥

देव्युवाच॥४०॥

वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे।
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ॥४१॥

नन्दगोपगृहे* जाता यशोदागर्भसम्भवा।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी॥४२॥

पुनरप्यतिरौद्रेण रूपेण पृथिवीतले।
अवतीर्य हनिष्यामि वैप्रचित्तांस्तु दानवान्॥४३॥

भक्षयन्त्याश्च तानुग्रान् वैप्रचित्तान्महासुरान्।
रक्ता दन्ता भविष्यन्ति दाडिमीकुसुमोपमाः॥४४॥

ततो मां देवताः स्वर्गे मर्त्यलोके च मानवाः।
स्तुवन्तो व्याहरिष्यन्ति सततं रक्तदन्तिकाम्॥४५॥

भूयश्च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि।
मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा॥४६॥

ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्यामि यन्मुनीन्।
कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति मां ततः॥४७॥

ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः।
भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः॥४८॥

शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि।
तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम्॥४९॥

दुर्गा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति।
पुनश्चाहं यदा भीमं रूपं कृत्वा हिमाचले॥५०॥

रक्षांसि* भक्षयिष्यामि मुनीनां त्राणकारणात्।
तदा मां मुनयः सर्वे स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः॥५१॥

भीमा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति।
यदारुणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधां करिष्यति॥५२॥

तदाहं भ्रामरं रूपं कृत्वाऽसंख्येयषट्पदम्।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम्॥५३॥

भ्रामरीति च मां लोकास्तदा स्तोष्यन्ति सर्वतः।
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति॥५४॥

तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्॥ॐ॥५५॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
देव्याः स्तुतिर्नामैकादशोऽध्यायः॥११॥

संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

॥श्रीदुर्गासप्तशती – द्वादशोऽध्यायः॥

देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य :

॥ध्यानम्॥

ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां
कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं
बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे॥

“ॐ” देव्युवाच॥१॥

एभिः स्तवैश्च मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः।
तस्याहं सकलां बाधां नाशयिष्याम्यसंशयम्*॥२॥

मधुकैटभनाशं च महिषासुरघातनम्।
कीर्तयिष्यन्ति ये तद्वद् वधं शुम्भनिशुम्भयोः॥३॥

अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवम्यां चैकचेतसः।
श्रोष्यन्ति चैव ये भक्त्या मम माहात्म्यमुत्तमम्॥४॥

न तेषां दुष्कृतं किञ्चिद् दुष्कृतोत्था न चापदः।
भविष्यति न दारिद्र्यं न चैवेष्टवियोजनम्॥५॥

शत्रुतो न भयं तस्य दस्युतो वा न राजतः।
न शस्त्रानलतोयौघात्कदाचित्सम्भविष्यति॥६॥

तस्मान्ममैतन्माहात्म्यं पठितव्यं समाहितैः।
श्रोतव्यं च सदा भक्त्या परं स्वस्त्ययनं हि तत्॥७॥

उपसर्गानशेषांस्तु महामारीसमुद्भवान्।
तथा त्रिविधमुत्पातं माहात्म्यं शमयेन्मम॥८॥

यत्रैतत्पठ्यते सम्यङ्नित्यमायतने मम।
सदा न तद्विमोक्ष्यामि सांनिध्यं तत्र मे स्थितम्॥९॥

बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे।
सर्वं ममैतच्चरितमुच्चार्यं श्राव्यमेव च॥१०॥

जानताऽजानता वापि बलिपूजां तथा कृताम्।
प्रतीच्छिष्याम्यहं* प्रीत्या वह्निहोमं तथा कृतम्॥११॥

शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी।
तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः॥१२॥

सर्वाबाधा*विनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः॥१३॥

श्रुत्वा ममैतन्माहात्म्यं तथा चोत्पत्तयः शुभाः।
पराक्रमं च युद्धेषु जायते निर्भयः पुमान्॥१४॥

रिपवः संक्षयं यान्ति कल्याणं चोपपद्यते।
नन्दते च कुलं पुंसां माहात्म्यं मम शृण्वताम्॥१५॥

शान्तिकर्मणि सर्वत्र तथा दुःस्वप्नदर्शने।
ग्रहपीडासु चोग्रासु माहात्म्यं शृणुयान्मम॥१६॥

उपसर्गाः शमं यान्ति ग्रहपीडाश्च दारुणाः।
दुःस्वप्नं च नृभिर्दृष्टं सुस्वप्नमुपजायते॥१७॥

बालग्रहाभिभूतानां बालानां शान्तिकारकम्।
संघातभेदे च नृणां मैत्रीकरणमुत्तमम्॥१८॥

दुर्वृत्तानामशेषाणां बलहानिकरं परम्।
रक्षोभूतपिशाचानां पठनादेव नाशनम्॥१९॥

सर्वं ममैतन्माहात्म्यं मम सन्निधिकारकम्।
पशुपुष्पार्घ्यधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः॥२०॥

विप्राणां भोजनैर्होमैः प्रोक्षणीयैरहर्निशम्।
अन्यैश्च विविधैर्भोगैः प्रदानैर्वत्सरेण या॥२१॥

प्रीतिर्मे क्रियते सास्मिन् सकृत्सुचरिते श्रुते।
श्रुतं हरति पापानि तथाऽऽरोग्यं प्रयच्छति॥२२॥

रक्षां करोति भूतेभ्यो जन्मनां कीर्तनं मम।
युद्धेषु चरितं यन्मे दुष्टदैत्यनिबर्हणम्॥२३॥

तस्मिञ्छ्रुते वैरिकृतं भयं पुंसां न जायते।
युष्माभिः स्तुतयो याश्च याश्च ब्रह्मर्षिभिःकृताः॥२४॥

ब्रह्मणा च कृतास्तास्तु प्रयच्छन्ति शुभां मतिम्।
अरण्ये प्रान्तरे वापि दावाग्निपरिवारितः॥२५॥

दस्युभिर्वा वृतः शून्ये गृहीतो वापि शत्रुभिः।
सिंहव्याघ्रानुयातो वा वने वा वनहस्तिभिः॥२६॥

राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा।
आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे॥२७॥

पतत्सु चापि शस्त्रेषु संग्रामे भृशदारुणे।
सर्वाबाधासु घोरासु वेदनाभ्यर्दितोऽपि वा॥२८॥

स्मरन्ममैतच्चरितं नरो मुच्येत संकटात्।
मम प्रभावात्सिंहाद्या दस्यवो वैरिणस्तथा॥२९॥

दूरादेव पलायन्ते स्मरतश्चरितं मम॥३०॥

ऋषिरुवाच॥३१॥

इत्युक्त्वा सा भगवती चण्डिका चण्डविक्रमा॥३२॥

पश्यतामेव* देवानां तत्रैवान्तरधीयत।
तेऽपि देवा निरातङ्काः स्वाधिकारान् यथा पुरा॥३३॥

यज्ञभागभुजः सर्वे चक्रुर्विनिहतारयः।
दैत्याश्च देव्या निहते शुम्भे देवरिपौ युधि॥३४॥

जगद्विध्वंसिनि तस्मिन् महोग्रेऽतुलविक्रमे।
निशुम्भे च महावीर्ये शेषाः पातालमाययुः॥३५॥

एवं भगवती देवी सा नित्यापि पुनः पुनः।
सम्भूय कुरुते भूप जगतः परिपालनम्॥३६॥

तयैतन्मोह्यते विश्वं सैव विश्वं प्रसूयते।
सा याचिता च विज्ञानं तुष्टा ऋद्धिं प्रयच्छति॥३७॥

व्याप्तं तयैतत्सकलं ब्रह्माण्डं मनुजेश्वर।
महाकाल्या महाकाले महामारीस्वरूपया॥३८॥

सैव काले महामारी सैव सृष्टिर्भवत्यजा।
स्थितिं करोति भूतानां सैव काले सनातनी॥३९॥

भवकाले नृणां सैव लक्ष्मीर्वृद्धिप्रदा गृहे।
सैवाभावे तथाऽलक्ष्मीर्विनाशायोपजायते॥४०॥

स्तुता सम्पूजिता पुष्पैर्धूपगन्धादिभिस्तथा।
ददाति वित्तं पुत्रांश्च मतिं धर्मे गतिं* शुभाम्॥ॐ॥४१॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
फलस्तुतिर्नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥

संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य

॥श्रीदुर्गासप्तशती – त्रयोदशऽध्यायः॥

॥ध्यानम्॥

ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्।
पाशाङ्कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे॥

“ॐ” ऋषिरुवाच॥१॥

एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुत्तमम्।
एवंप्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत्॥२॥

विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया।
तया त्वमेष वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः॥३॥

मोह्यन्ते मोहिताश्चैव मोहमेष्यन्ति चापरे।
तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम्॥४॥

आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा॥५॥

मार्कण्डेय उवाच॥६॥

इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नराधिपः॥७॥

प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं शंसितव्रतम्।
निर्विण्णोऽतिममत्वेन राज्यापहरणेन च॥८॥

जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने।
संदर्शनार्थमम्बाया नदीपुलिनसंस्थितः॥९॥

स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन्।
तौ तस्मिन पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम्॥१०॥

अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः।
निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ॥११॥

ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम्।
एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः॥१२॥

परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका॥१३॥

देव्युवाच॥१४॥

यत्प्रार्थ्यते त्वया भूप त्वया च कुलनन्दन।
मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामि तत्॥१५॥

मार्कण्डेय उवाच॥१६॥

ततो वव्रे नृपो राज्यमविभ्रंश्यन्यजन्मनि।
अत्रैव च निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात्॥१७॥

सोऽपि वैश्यस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विण्णमानसः।
ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्गविच्युतिकारकम्॥१८॥

देव्युवाच॥१९॥

स्वल्पैरहोभिर्नृपते स्वं राज्यं प्राप्स्यते भवान्॥२०॥

हत्वा रिपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति॥२१॥

मृतश्च भूयः सम्प्राप्य जन्म देवाद्विवस्वतः॥२२॥

सावर्णिको नाम* मनुर्भवान् भुवि भविष्यति॥२३॥

वैश्यवर्य त्वया यश्च वरोऽस्मत्तोऽभिवाञ्छितः॥२४॥

तं प्रयच्छामि संसिद्ध्यै तव ज्ञानं भविष्यति॥२५॥

मार्कण्डेय उवाच॥२६॥

इति दत्त्वा तयोर्देवी यथाभिलषितं वरम्॥२७॥

बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता।
एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः॥२८॥

सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः॥२९॥

एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः
सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः॥क्लीं ॐ॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
सुरथवैश्ययोर्वरप्रदानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥

||इति||

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जन्म कुंडली क्या है?

जन्म कुंडली को अंग्रेजी में बर्थ चार्ट कहा जाता है। यह जन्म के समय देखा गया आकाश का मानचित्र है। यह ज्योतिष शास्त्र में भविष्य बताने का आधार है।

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ज्योतिष वेदांग है और वेदों का नेत्र माना जाता है। आयुर्वेद और योग, ज्योतिष और इसकी शाखाओं जैसे होरा, मुहूर्त और संहिता की तरह, यह वेदों की रीढ़ है।

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नवांश कुंडली क्या है?

यह एक प्रभाग या वर्ग है. जब किसी राशि को एक विशेष क्रम में नौ भागों में विभाजित किया जाता है, तो उसे नवांश कहा जाता है। इसे कभी-कभी रासी जितना ही महत्वपूर्ण माना जाता है।

लग्न कुंडली क्या है?

लग्न चार्ट, जिसे राशि चार्ट भी कहा जाता है, वैदिक ज्योतिष में सबसे महत्वपूर्ण चार्ट है। यह विभिन्न राशियों में लग्न और ग्रह की स्थिति को दर्शाता है। विंशोत्तरी दास और गोचर जैसी अन्य गणनाओं के साथ इस चार्ट का उपयोग भविष्य की भविष्यवाणी करने के लिए किया जाता है।

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कुंडली मिलान कराएं, Kundali Milaan

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विवाह के लिए राशि अनुकूलता आपके कितने गुण मिलते हैं? संगतता राशि के माध्यम से कम से कम अंक अठारह (18) माना जाता है।

कुंडली मिलान कराएं, Kundali Milaan
कुंडली मिलान कराएं, Kundali Milaan

कुंडली मिलान या गुण मिलान वैदिक ज्योतिष में विवाह के लिए कुंडलियों का मिलान है | हिन्दू धर्म और खासकर हिंदुस्तान में विवाह बुजुर्गो और माता पिता के आशीर्वाद से संपन होते है , इसलिए विवाह के लिए कुंडली मिलान का काफी उच्च महत्व है और कुंडली मिलान के बाद ही विवाह निश्चित किये जाते है |

कुंडली मिलान के माध्यम से ये पता चलता है की किस स्तर तक ग्रह वर और वधु को आशीर्वाद दे रहे है और कौन से ज्योतिष परिहार करने से विवाह में खुशियां आ सकती है |

गुण मिलान की व्याख्या किस तरह करे ?

कुंडली मिलाते हुए गुण मिलान में नाड़ी कूट को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है | अगर नाड़ी कूट प्रतिकूल है तो २८ गुणों का मिलान भी अशुभ माना जायेगा |

गुण मिलान में अधिकतम ३६ गुण होते है | अगर भकूट और नाड़ी कूट अनुकूल है तो ३१ से ३६ गुणों का संयोजन सर्वश्रेष्ट माना जायेगा , २१ से ३० गुण बहुत अच्छे , १७ से २० मध्यम और ०-१६ गुण अशुभ होंगे |

अगर भकूट कूट प्रतिकूल है तो संयोजन कभी भी अच्छा नहीं होगा | २६-२९ गुण काफी अच्छे , २१-२५ गुण मध्यम और ०-२० गुण अशुभ माने जाएंगे |

एक नाड़ी होने पर क्या होता है?

एक नाड़ी होने पर इसको नाड़ी दोष कहा जाता है। नाड़ी मिलान को कुंडली मिलान में सबसे अधिक 8 अंक दिए गए हैं। ज्योतिष के अनुसार, एक ही नाड़ी के लोगों को वैवाहिक जीवन में गंभीर समस्याएं हो सकती है। लेकिन नाड़ी दोष को रद्द किया जा सकता है।

कुंडली मिलान कैसे करें?

कुंडली मिलान का सर्वश्रेस्थ तरीका जन्म कुंडली द्वारा मिलान अर्थात जन्म तिथि, समय और स्थान के आधार पर कुंडली मिलान तथा नाम से भी कुंडली मिलान किया जाता है। कुंडली मिलान कराएं, Kundali Milaan

कुंडली मिलान कराएं, Kundali Milaan
कुंडली मिलान कराएं, Kundali Milaan

पूजन स्टोर

कुंडली कैसे मैच करें?

कुंडली मिलान कैसे करें ? आप शादी से पहले किसी ज्योतिष की मदद से कुंडली मिलान करवा सकते हैं। इसके लिए आपको वर-वधु का नाम, उनकी जन्म की तिथि, जन्मस्थान और जन्म का समय ज्योतिष को बताना होगा। ज्योतिष शास्त्र के अंतर्गत आपकी जन्म से जुड़ी हुई जानकरी जैसे तिथि, समय और स्थान की मदद से कुंडली बनते हैं।

शादी के लिए कुंडली मिलान कैसे चेक करें?

वस्तुतः कुंडली में प्रस्तुत गुणों का मिलान किया जाता है, इसलिए इसे ‘गुण मिलान’ कहा जाता है। कुंडली में मिलान किए गए पहलुओं/गुणों की कुल संख्या 36 है । यदि 36 में से 18 संपत्तियों का विलय हो जाता है यानी कम से कम 50% संपत्तियों का विलय हो जाता है तो ज्योतिषियों द्वारा विवाह की अनुमति दी जाती है।

योनि का मेल नहीं होने पर क्या होता है?

विपरीत योनि: इसे विवाह के लिए अशुभ माना जाता है । शत्रु योनि: यह दर्शाता है कि यह रिश्ता वैवाहिक जीवन में समस्याएं पैदा कर सकता है।

कुंडली से जीवनसाथी का नाम कैसे जाने?

ज्योतिष के सबसे आकर्षक पहलुओं में से एक व्यक्ति के भावी जीवनसाथी के नाम की भविष्यवाणी है। ज्योतिष में, इसे निर्धारित करने के लिए भावों का प्रभाव आवश्यक है। सबसे पहले, कुंडली का पंचम भाव किसी व्यक्ति के भावी जीवनसाथी के नाम का निर्धारण करने में महत्वपूर्ण होता है। यह घर प्रेम संबंधों, रोमांस और विवाह से जुड़ा हुआ है। For bhajans – SUR SARITA BHAJAN

कुंडली में पत्नी का घर कौन सा होता है?

कुंडली (Kundli) से आपके दांपत्य जीवन का भी पता चलता है. कुंडली का सप्तम भाव जीवनसाथी का माना गया है.

कुंडली मिलान के लिए सम्पर्क करें :-

पं. श्रवण आचार्य (ज्योतिषाचार्य)
+91 9918486001

Bhartiya Jyotish By Shravan Acharya/भारतीय ज्योतिष विधा

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Bhartiya Jyotish By Shravan Acharya/भारतीय ज्योतिष विधा
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भारतीय ज्योतिष का इतिहास बहुत पुराना है और यह वास्तव में ज्योतिष के अन्य रूपों जैसे चीनी ज्योतिष और पश्चिमी ज्योतिष के बीच ज्योतिष का सबसे पुराना रूप है। भारतीय प्राचीन ज्योतिष का विकास 5000 ईसा पूर्व हुआ था। वे वेदों जितने ही पुराने हैं जिनमें छह पूरक हैं और ज्योतिष वेदांग छह वेदांगों में से एक है। इसे वैदिक खगोल विज्ञान के रूप में भी जाना जाता है और ज्योतिष जिस पर भारतीय प्राचीन ज्योतिष आधारित है, इन्हीं में से एक है। वशिष्ठ, भृगु और गर्ग जैसे प्राचीन ऋषियों ने कई भविष्यवाणियाँ कीं जो सच हुईं। कलियुग की शुरुआत में पराशर ने बृहद पराशर होरा शास्त्र नामक ज्योतिष ग्रंथ लिखा। उन्होंने यह ज्ञान मैत्रेय को दिया और तब से इसने एक लंबी दूरी तय की है।Bhartiya Jyotish By Shravan Acharya/भारतीय ज्योतिष विधा

भारतीय ज्योतिष शास्त्र अत्यधिक प्रामाणिक माना जाता है और इसकी भविष्यवाणियाँ सबसे सटीक मानी जाती हैं। चूंकि यह तारों के वास्तविक नक्षत्रों पर आधारित है, इसलिए यह दुनिया भर में ज्योतिष की सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली प्रणाली है। भारतीय ज्योतिष में सूर्य को जीवन का आधार माना गया है। यह ऊर्जा और आध्यात्मिकता का स्रोत है। भारतीय ज्योतिष बुरे कर्मों के कारण होने वाले कई प्रकार के दोषों को दूर करने में मदद करता है। वैदिक भारतीय ज्योतिष वास्तव में आत्मा को उसके अंतिम गंतव्य अर्थात ईश्वर से मिलाने में मदद करता है।

यत्र-तत्र ऐसे प्रमाण भी मौजूद हैं जो बताते हैं कि ज्योतिष अत्यंत पुराना विषय है। हालाँकि, विवाद इस सवाल पर है कि क्या वे वास्तव में उस समय दर्ज किए गए थे या केवल भावी पीढ़ियों द्वारा प्राचीन शासकों के लिए बताए गए थे। ज्योतिष का प्रलेखित इतिहास इंडो-ग्रीक काल में भारतीय और हेलेनिस्टिक संस्कृतियों की बातचीत से जुड़ा हुआ है, यवनजातक या बृहत्-संहिता सबसे पुराने जीवित ग्रंथ हैं। वस्तुतः भारतीय खगोल विज्ञान और ज्योतिष शास्त्र एक साथ विकसित हुए। आर्यभट्ट और वराहमिहिर एक ही समय में वैज्ञानिक और ज्योतिषी थे। आर्यभटीय में आर्यभट्ट के सिद्धांतों के अतिरिक्त वराहमिहिर की पंचसिद्धांतिका भी लोकप्रिय है|Bhartiya Jyotish By Shravan Acharya/भारतीय ज्योतिष विधा

अन्य युगों में ज्योतिष का विकास

Bhartiya Jyotish By Shravan Acharya/भारतीय ज्योतिष विधा
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पराशर ने ज्योतिष के विकास में बड़ा योगदान दिया और वैदिक ज्योतिष का एक बड़ा हिस्सा काफी हद तक पराशर ज्योतिष पर आधारित है। वह पराशर काल 3000 ईसा पूर्व से 57 ईसा पूर्व तक माना जाता है। ऋषि पराशर द्वारा लिखित महान महाकाव्य “बृहत् पराशर होरा” सभी समय के ज्योतिषियों के बीच सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है। इस पुस्तक में ज्योतिष के 100 अध्याय हैं जिनमें मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं पर ग्रहों के शुभ और अशुभ प्रभाव का विस्तृत वर्णन किया गया है।

पराशर शास्त्र के अलावा “आर्यभट्टिय” उसी काल में लिखी गई प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक है। सूर्य और सभी नक्षत्र स्थिर हैं। इसमें कहा गया है कि दिन और रात पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने से बनते हैं। इसी काल में आर्यभट्ट नामक एक और ज्योतिषी थे। आर्यभट्ट ने “महाभट्टिय” नामक पुस्तक लिखी जो गणितीय ज्योतिष का एक रूप है। पुस्तक में सौर मंडल में ग्रहों की निरंतर गति का विस्तार से वर्णन किया गया है।

ज्योतिष या वैदिक ज्योतिष एक प्राचीन गुप्त विज्ञान है जो हजारों वर्षों से प्रचलन में है, केवल किसी के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित अत्यधिक लाभकारी भविष्य की अंतर्दृष्टि प्रदान करने में इसकी प्रभावकारिता के कारण। व्यक्तित्व लक्षणों की भविष्यवाणी करने से लेकर संभावित कैरियर पथों को उजागर करने तक, ज्योतिष ब्रह्मांड और मानव अस्तित्व पर इसके प्रभाव की व्यापक समझ प्रदान करता है। लोग यह जानने के लिए ज्योतिषियों से बात करते हैं कि उनके जीवन के विभिन्न पहलू कैसे सामने आएंगे और एक सहज और सफल जीवन सुनिश्चित करने के लिए वे कौन से उपाय अपना सकते हैं।

एक ऐसा क्षेत्र जहां ज्योतिष विशेष रूप से दिलचस्प हो सकता है, वह वित्तीय अप्रत्याशित लाभ या निवेश की सफलता जैसे सट्टा लाभ की भविष्यवाणी करना है। इस लेख में, हम ज्योतिष में उन घरों और ग्रहों का पता लगाएंगे जो सट्टा लाभ का संकेत देते हैं, जो आपको इस मनोरम विषय में बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करेंगे।

Bhartiya Jyotish By Shravan Acharya/भारतीय ज्योतिष विधा
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