इस अध्याय में हमने कोशिश की है की आप सभी को सरलतम से सरलतम तरीके (विधि) द्वारा दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित बताया है, एवं उम्मीद करते है की यह दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit आपके लिए अत्यधिक सरल व उपयोगी होगा |
दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित | Dainik Poojan vidhi mantra Sahit
दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit
प्रत्येक पूजारंभ के पूर्व निम्नांकित आचार-अवश्य करने चाहिये- आत्मशुद्धि, आसन शुद्धि, पवित्री धारण, पृथ्वी पूजन, संकल्प, दीप पूजन, शंख पूजन, घंटा पूजन, स्वस्तिवाचन आदि.
भूमि, वस्त्र आसन आदि स्वच्छ व शुद्ध हों.
आवश्यकतानुसार चौक, रंगोली, मंडप बना लिया जाये.
मान्यता अनुसार मुहूर्त आदि का विचार किया जा सकता है.
यजमान पूर्वाभिमुख बैठे, पुरोहित उत्तराभिमुख.
विवाहित यजमान की पत्नी पति के साथ ग्रंथिबन्धन कर पति की वामंगिनी के रूप में बैठे.
पूजन के समय आवश्यकतानुसार अंगन्यास, करन्यास, मुद्रा आदि का उपयोग किया जा सकता है.
औचित्यानुसार विविध देव प्रतीक भी बनाये जा सकते हैं, “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”
त्रिदेव,
नवदुर्गा
एकादश रुद्र
नवग्रह,
दश दिक्पाल,
षोडश लोकपाल
सप्तमातृका,
दश महाविद्या
बारह यम
आठ वसु
चौदह मनु
सप्त ऋषि
घृतमातृका
दश अवतार
चौबीस अवतार
आदि
ध्यातव्य है कि पूजन के इस प्रकरण के अभ्यास से संकल्प विशेष का परिवर्तन करके विविध पूजा के आयोजन सामान्य रूप से कराये जा सकते हैं।
“दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”
ॐ केशवाय नमः,
ॐ नारायणाय नमः,
ॐ माधवाय नमः।
तीन बार आचमन कर आगे दिये मंत्र पढ़कर हाथ धो लें।
ॐ हृषीकेशाय नमः।।
पुनः बायें हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से अपने ऊपर और पूजा सामग्री पर निम्न श्लोक पढ़ते हुए छिड़कें।
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।
ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु, ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु।
“दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”
प्राणायाम
शास्त्रों में प्राणायाम करने के लिए भी कहा गया है। क्योंकि प्रणाम करने से शरीर के आंतरिक पाप सब खत्म हो जाते हैं। इसलिए प्राणायाम अवश्य करना चाहिए।
प्राणायाम करने से पूर्व इस मंत्र का पाठ करना चाहिए।
अगर किसी कारण इस मंत्र का जप ना कर पाए, तो आप 3 बार गायत्री मंत्र का जप करके फिर प्राणायाम करें। प्राणायाम के तीन भेद होते हैं।
1. पूरक, 2. कुंभक, 3. रेचक
(1) दाहिने हाथ के अंगूठे से नाक के दाहिने छिद्र से श्वास को धीरे-धीरे खींचने को पूरक प्राणायाम कहते हैं। इस प्राणायाम को करते समय भगवान विष्णु का ध्यान करना चाहिए।
(2) जब सांस खींचना रुक जाए, तब अनामिका या कनिष्ठा उंगली से नाक के बाएं छिद्र को दबा दें। मंत्र जपते रहें। यह कुंभक प्राणायाम कहा जाता है। इस प्राणायाम को करते समय ब्रह्मा जी का ध्यान करना चाहिए। “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”
(3) अंगूठे को नाक के दाहिने छिद्र से श्वास को धीरे धीरे छोड़ें। इस प्राणायाम को रेचक प्राणायाम कहा जाता है। इस प्राणायाम को करते समय शंकर जी का ध्यान करना चाहिए।
“दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”
आसन शुद्धि-
सरल पूजन विधि मंत्र प्रार्थना सहित Poojan vidhi mantra sahit
नीचे लिखा मंत्र पढ़कर आसन पर जल छिड़के-
ॐ पृथ्वि! त्वया धृता लोका देवि ! त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि ! पवित्रां कुरु चासनम्।।
शिखाबन्धन-
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निम्न मंत्र से बायें हाथ में तीन कुश तथा दाहिने हाथ में दो कुश धारण करें।
ॐ पवित्रोस्थो वैष्णव्यौ सवितुर्व्वः प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रोण सूर्यस्य रश्मिभिः।
तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुनेतच्छकेयम्।
पुनः दायें हाथ को पृथ्वी पर उलटा रखकर “ॐ पृथिव्यै नमः” इससे भूमि की पञ्चोपचार पूजा का आसन शुद्धि करें।
यजमान तिलक-
“दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”
पुनः ब्राह्मण यजमान के ललाट पर कुंकुम तिलक करें।
ॐ आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः।
तिलकान्ते प्रयच्छन्तु धर्मकामार्थसिद्धये।
स्वत्ययन
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उसके बाद यजमान आचार्य एवं अन्य ऋत्विजों के साथ हाथ में पुष्पाक्षत लेकर स्वस्त्ययन पढ़े।
तदङ्गत्वेन निर्विध्नतासिद्धîर्थं श्रीगणपत्यादिपूजनम् आचार्यादिवरणञ्च करिष्ये।
तत्रादौ दीपशंखघण्टाद्यर्चनं च करिष्ये।
जलपात्र (कर्मपात्र) का पूजन-
इसके बाद कर्मपात्र में थोड़ा गंगाजल छोड़कर गन्धाक्षत, पुष्प से पूजा कर प्रार्थना करें।
ॐ गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि! सरस्वति!।
नर्म्मदे! सिन्धु कावेरि! जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु।।
अस्मिन् कलशे सर्वाणि तीर्थान्यावाहयामि नमस्करोमि।
कर्मपात्र का पूजन करके उसके जल से सभी पूजा वस्तुओं पर छिड़कें.
घृतदीप-(ज्योति) पूजन-
“वह्निदैवतायै दीपपात्राय नमः” से पात्र की पूजा कर ईशान दिशा में घी का दीपक जलाकर अक्षत के ऊपर रखकर
ॐ अग्निर्ज्ज्योतिज्ज्योतिरग्निः स्वाहा,
सूर्यो ज्ज्योतिज्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।
अग्निर्व्वर्च्चो ज्ज्योतिर्व्वर्च्चः स्वाहा,
सूर्योव्वर्चोज्ज्योतिर्व्वर्च्चः स्वाहा ।।
ज्ज्योतिः सूर्य्यः सूर्य्यो ज्ज्योतिः स्वाहा।
भो दीप देवरूपस्त्वं कर्मसाक्षी ह्यविघ्नकृत्।
यावत्पूजासमाप्तिः स्यात्तावदत्रा स्थिरो भव।।
ॐ भूर्भुवः स्वः दीपस्थदेवतायै नमः आवाहयामि सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि नमस्करोमि। “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”
शंखपूजन
शंख को चन्दन से लेपकर देवता के वायीं ओर पुष्प पर रखकर शंख मुद्रा करें।
ॐ शंखं चन्द्रार्कदैवत्यं वरुणं चाधिदैवतम्।
पृष्ठे प्रजापतिं विद्यादग्रे गङ्गासरस्वती।।
त्रौलोक्ये यानि तीर्थानि वासुदेवस्य चाज्ञया।
शंखे तिष्ठन्ति वै नित्यं तस्माच्छंखं प्रपूजयेत्।।
त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृतः करे।
नमितः सर्वदेवैश्च पाझ्जन्य! नमोऽस्तुते।।
पाञ्चजन्याय विद्महे पावमानाय धीमहि तन्नः शंखः प्रचोदयात्।
ॐ भूर्भवः स्वः शंखस्थदेवतायै नमः
शंखस्थदेवतामावाहयामि सर्वोपचारार्थे गन्धपुष्पाणि समर्पयामि नमस्करोमि। “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”
घण्टा पूजन-
ॐ सर्ववाद्यमयीघण्टायै नमः,
आगमार्थन्तु देवानां गमनार्थन्तु रक्षसाम्।
कुरु घण्टे वरं नादं देवतास्थानसन्निधौ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः घण्टास्थाय गरुडाय नमः गरुडमावाहयामि सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि।
गरुडमुद्रा दिखाकर घण्टा बजाएं। दीपक के दाहिनी ओर स्थापित कर दें।
धूपपात्र की पूजा-
ॐ गन्धर्वदैवत्याय धूपपात्राय नमः इस प्रकार धूपपात्र की पूजा कर स्थापना कर दें।
गणेश गौरी पूजन
हाथ में अक्षत लेकर-भगवान् गणेश का ध्यान-
गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम्।।
ज्यादा पूजा पाठ करने वाला व्यक्ति ही सबसे ज्यादा दुखी क्यों है। इसका उत्तर तो मैं नहीं जानता। लेकिन मेरा मानना है, कि ज्यादा पूजा पाठ करने वाला व्यक्ति अपने दुखों का कारण स्वयं होता है। क्योंकि बिना कर्म किए किए ही फल प्राप्ति की इच्छा रखने लगता है, जो कि कभी मिलने वाला नहीं है। क्योंकि बिना कर्म किए फल प्राप्त नहीं होता है। “दैनिक पूजा विधि मंत्र प्रार्थना सहित, Dainik Poojan vidhi mantra Sahit”
इसलिए वह व्यक्ति कर्म तो करता नहीं है लेकिन भगवान की भक्ति में लीन रहने की बात करता है और कहता है कि मैं भगवान कहां बहुत बड़ा भक्त हूं लेकिन असल में वह भक्त नहीं लोभी होता है जो भक्ति की आड़ में अपने स्वार्थ को पूरा करने की लालसा रखें हुए रहता है
इसलिए वह व्यक्ति कर्म करने से भागता है। और बिना कर्म किए हुए, फल प्राप्त हो जाए ऐसा हो नहीं सकता।
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श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित | Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
सामग्री मात्रा
रोली 20 ग्राम
पीला सिंदूर 20 ग्राम
पीला अष्टगंध चंदन 20 ग्राम
लाल चन्दन 10 ग्राम
सफेद चंदन 10 ग्राम
लाल सिंदूर 10 ग्राम
हल्दी (पिसी) 50 ग्राम
हल्दी (समूची) 50 ग्राम
सुपाड़ी (समूची बड़ी) 200 ग्राम
लौंग 20 ग्राम
इलायची 20 ग्राम
सर्वौषधि 1 डिब्बी
सप्तमृत्तिका 1 डिब्बी
सप्तधान्य 100 ग्राम
पीली सरसों 100 ग्राम
जनेऊ 21 पीस
इत्र बड़ी 1 शीशी
गरी का गोला (सूखा) 9 पीस
पानी वाला नारियल 1 पीस
अक्षत (चावल) 15 किलो
धूपबत्ती 2 पैकेट
रुई की बत्ती (गोल / लंबी) 2-2 पैकेट
देशी घी 2 किलो
सरसों का तेल 2 किलो
चमेली का तेल 100 ग्राम
कपूर 50 ग्राम
कलावा 10 पीस
चुनरी (लाल / पीली) 1/1 पीस
बताशा 500 ग्राम
लाल रंग 5 ग्राम
पीला रंग 5 ग्राम
काला रंग 5 ग्राम
नारंगी रंग 5 ग्राम
हरा रंग 5 ग्राम
बैंगनी रंग 5 ग्राम
अबीर गुलाल (लाल, पीला, हरा, गुलाबी) अलग-अलग 10-10 ग्राम
बुक्का (अभ्रक) 10 ग्राम
भस्म 100 ग्राम
गंगाजल 1 शीशी
गुलाब जल 1 शीशी
लाल वस्त्र 5 मीटर
पीला वस्त्र 8 मीटर
सफेद वस्त्र 5 मीटर
हरा वस्त्र 2 मीटर
नीला वस्त्र 2 मीटर
झंडा हनुमान जी का 1 पीस
चांदी का सिक्का 2 पीस
कुश (पवित्री) 4 पीस
लकड़ी की चौकी 7 पीस
पाटा 8 पीस
रुद्राक्ष की माला 1 पीस
तुलसी की माला 1 पीस
दोना (छोटा – बड़ा) 1-1 पीस
मिट्टी का कलश (बड़ा) 11 पीस
मिट्टी का प्याला 21 पीस
मिट्टी की दियाली 21 पीस
माचिस 2 पीस
हवन सामग्री 5 किलो
आम की लकड़ी (समिधा) 10 किलो
नवग्रह समिधा 1 पैकेट
तिल 500 ग्राम
जौ 500 ग्राम
गुड़ 500 ग्राम
कमलगट्टा 200 ग्राम
गुग्गुल 100 ग्राम
धूप लकड़ी 100 ग्राम
सुगंध बाला 50 ग्राम
सुगंध कोकिला 50 ग्राम
नागरमोथा 50 ग्राम
जटामांसी 50 ग्राम
अगर-तगर 100 ग्राम
इंद्र जौ 50 ग्राम
बेलगुदा 100 ग्राम
सतावर 50 ग्राम
गुर्च 50 ग्राम
जावित्री 25 ग्राम
भोजपत्र 1 पैकेट
कस्तूरी 1 डिब्बी
केसर 1 डिब्बी
काला उड़द 250 ग्राम
मूंग दाल का पापड़ 1 पैकेट
शहद 100 ग्राम
पंचमेवा 200 ग्राम
पंचरत्न व पंचधातु 1 डिब्बी
धोती (पीली /लाल) 2 पीस
अगोंछा (पीला /लाल) 2 पीस
सुहाग सामग्री – साड़ी, बिंदी, सिंदूर, चूड़ी, आलता, नाक की कील, पायल, इत्यादि
काली मटकी (नजर वाली हाँड़ी)
1 चाँदी की गाय बछड़ा समेत
मिष्ठान 1 किलो
पान के पत्ते (समूचे) 21 पीस
आम के पत्ते 2 डंठल
ऋतु फल 5 प्रकार के
दूब घास 100 ग्राम
शमी की पत्ती 10 ग्राम
कमल का फूल 11 पीस
फूल,हार लड़ी (गुलाब) की 5 मीटर
फूल, हार लड़ी (गेंदे) की 7 मीटर
गुलाब का खुला हुआ फूल 1 किलो
गेंदा का खुला हुआ फूल 1 किलो
तुलसी का पौधा 1 पीस
तुलसी की पत्ती 5 पीस
दूध 1 लीटर
दही 1 किलो
गणेश जी की मूर्ति 1 पीस
लक्ष्मी जी की मूर्ति 1 पीस
राम दरबार की प्रतिमा 1 पीस
कृष्ण दरबार की प्रतिमा 1 पीस
हनुमान जी महाराज की प्रतिमा 1 पीस
दुर्गा माता की प्रतिमा 1 पीस
शिव शंकर भगवान की प्रतिमा 1 पीस || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||
आटा 100 ग्राम
चीनी 500 ग्राम
अखंड दीपक (ढक्कन समेत) 1 पीस
तांबे/पीतल का कलश (ढक्कन समेत) 1 पीस
थाली 7 पीस
लोटे 4 पीस
गिलास 9 पीस
कटोरी 9 पीस
चम्मच 2 पीस
परात 4 पीस
कैंची /चाकू (लड़ी काटने हेतु ) 1 पीस
हनुमंत ध्वजा हेतु बांस (छोटा/ बड़ा) 1 पीस
जल के लिए बाल्टी 2 पीस
जल (पूजन हेतु)
गाय का गोबर
मिट्टी
बिछाने का आसन
चुनरी 1 पीस
अंगोछा 1 पीस
पूजा में रखने हेतु सिंदौरा 1 पीस
नित्य प्रसाद भिन्न-भिन्न
धोती
कुर्ता
अंगोछा
पंच पात्र
माला इत्यादि
वस्त्र की व्यवस्थता पृथक दिन के अनुसार व्यवस्था करें
दो पगड़ी अलग – अलग कलर में एक पगड़ी कृष्ण जन्म में दूसरी रुक्मणि विवाह के लिए
कृष्ण जन्म वाले दिन के लिए लड्डू गोपाल के लिए पोशाक एवं सम्पूर्ण परिधान मुकुट वंशी आदि अगर संभव बन पाये व्यास जी के लिए स्वर्ण मुद्रिका अवश्य लाये |
रुक्मणि के विवाह के लिए सुन्दर वस्त्र चढ़ाये , जैसे धोती- कुर्ता साडी तथा कोई आभूषण अवश्य लाये |
कृष्ण जन्म में दिव्य सजावट एवं भोग में माखन मिश्री तथा पञ्चामृत का निर्माण |
विभिन्न प्रकार के खिलोने , टॉफ़िया , बिस्कुट आदि |
रुक्मणि विवाह में पैर पूजने हेतु परिवार में सभी को शामिल होना चाहिये , वस्त्र -पात्र – आभूषण आदि श्रद्धानुसार अर्पित करे |
इसके अतिरिक्त पाँचवे दिन गोवर्धन पूजा में छप्पन भोग की तैयारी , खीर , हलवा ,पूरी , कढ़ी – चावल आदि घर में निर्माण करवाए ,व अन्य पकवान बाज़ार से मँगवा सकते है | विशेष :- विश्राम दिवस में पोथी पूजन होता है उस दिन विदाई निर्मित जो आपको विशेष दक्षिणा, विशेष वस्त्र, विशेष गिफ्ट, अर्थांत कुछ विशेष भेट करना होता है जो आप अपनी सामर्थ्य और श्रद्धानुसार पंडित जी समर्पण कर सकते हो | || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित || Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
ब्रह्म पूर्णपात्र व्यवस्था
“ब्रह्मपूर्णपात्र ” की व्यवस्था आपकी मनोकामना पूर्ण हेतु की जाती है अत इसलिए :-
“ब्रह्म पूर्णपात्र ” एक बड़ा पात्र दक्कन सहित जिसमे सात किलो चावल भर जाये |
सात किलो चावल जो चावल खंडित बिलकुल न हो ,संभव हो तो बासमती चावल की व्यवस्था करे | Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
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नोट :- अगर छेत्रपाल बलि निकालने की व्यवस्थता हो तो पंडित के निर्देशनुसार सामग्री की व्यवस्थता सुनश्चित करे |
श्रीमद् भागवत महापुराण का महत्व
श्रीमद् भागवत महापुराण हिन्दू धर्म के महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है और इसका महत्व अत्यंत महान् है। यह पुराण महाभारत के महाभागवत ध्यान पर आधारित है और श्रीकृष्ण के अवतार, उनकी लीलाएं, उपदेश और महिमा को संकलित करता है।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
ईश्वर के अवतार की महिमा
यह पुराण भगवान श्रीकृष्ण के अवतार की महिमा, बाललीला, किशोरलीला और महारासलीला आदि का वर्णन करता है। इसके माध्यम से लोग भगवान की महिमा का अनुभव करते हैं और उनके प्रति भक्ति एवं समर्पण विकसित होता है।
भक्ति का मार्ग
श्रीमद् भागवत महापुराण भक्ति और साधना का मार्ग प्रदर्शित करता है। इसके अनुसार, भगवान के नाम का जाप, कीर्तन, सत्संग, श्रवण, स्मरण, वंदन आदि भक्ति के आठ रसों में से अधिक महत्वपूर्ण हैं। || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित || Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
धर्म और नैतिकता
श्रीमद् भागवत महापुराण में जीवन के नैतिक मूल्यों का विस्तारपूर्वक वर्णन होता है। यह ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, त्याग, दया, सेवा, धर्म, अर्पण, सत्कर्म आदि को प्रमाणित करता है। समाज सेवा: इस पुराण में लोगों को समाज सेवा, दान-धर्म, गौसेवा, परमेश्वर की प्रतिमा के प्रति सम्मान आदि के महत्व के बारे में जागरूक किया जाता है।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
मोक्ष का साधना
श्रीमद् भागवत महापुराण में मोक्ष की प्राप्ति के लिए उपायों का वर्णन किया गया है। यह मोक्ष के साधन भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सेवा, समर्पण आदि की महिमा को बताता है और व्यक्ति को उच्चतर आदर्शों की ओर प्रेरित करता है। इस प्रकार, श्रीमद् भागवत महापुराण आपके जीवन में स्वर्ग के दरवाजे खोलने का काम करती है
श्रीमद् भागवत महापुराण का लाभ
श्रीमद् भागवत महापुराण भक्ति और प्रेम के विकास को प्रोत्साहित करता है। इसे पढ़ने और सुनने से मानसिक शांति, आनंद और संतुष्टि की अनुभूति होती है। यह मन को शुद्ध करके उच्च स्तर की आध्यात्मिक अनुभव के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है। || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित || Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
श्रीमद् भागवत महापुराण में विद्या, ज्ञान और दर्शन के महत्वपूर्ण सिद्धांत सम्मिलित होते हैं। इसे पढ़ने से आप अपने पाठकों को आध्यात्मिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ज्ञान का आदान कर सकते हैं। श्रीमद् भागवत महापुराण में धार्मिक तत्त्वों, मौलिक सिद्धांतों, नैतिक मूल्यों, कर्म के सिद्धांतों, धार्मिक नियमों और जीवन के उद्देश्य के बारे में व्यापक ज्ञान मिलता है। इसे अपने ब्लॉग में समाविष्ट करके आप अपने पाठकों को धार्मिकता के महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में समझ सकते हैं। श्रीकृष्ण के चरित्र और उनकी उपासना से इस पुराण में आदर्श व्यक्तित्व के मार्गदर्शन के उदाहरण मिलते हैं। आप अपने ब्लॉग के माध्यम से अपने पाठकों को सच्चे मानवीय गुणों, दया, करुणा, धैर्य, और साधारण जीवन के नियमों के प्रेरणास्रोत प्रदान कर सकते हैं।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
निष्कर्ष
MantraKavach.com से आप घर बैठे श्रीमद् भागवत महापुराण का आयोजन करवाने के लिए हमारी ऑनलाइन पंडित सेवा द्वारा अपना पंडित बुक करवा सकते हो, इसके अतिरिक्त आप रामकथा पाठ, सुन्दरकांड पाठ, ग्रहप्रवेश, आदि धार्मिक अनुष्ठान के आयोजन हेतु भी अपना पंडित ऑनलाइन बुक कर सकते है | MantraKavach.com द्वारा श्रीमद् भागवत महापुराण पूजन सामग्री हेतु दी गयी जानकारी आपके कथा – पूजन में उपयोगी साबित होगी, ऐसी हम कामना करते है | || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित || Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
Q.भगवान श्रीकृष्ण के जीवन के महत्वपूर्ण पहलू क्या हैं?
A.भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में कई महत्वपूर्ण पहलू हैं। वे योगेश्वर हैं, अर्जुन को भगवद् गीता का उपदेश देने के माध्यम से मानवता के लिए ज्ञान का संदेश देते हैं। उनकी बाललीलाएं और गोपियों के संग वास उनके भक्तों के लिए प्रेम और भक्ति का प्रतीक है। उनकी लीलाएं, मक्के की छोड़ी और वृंदावन में किए गए आनंदमय खेल उनके भक्तों को परम आनंद का अनुभव कराते हैं।
Q.श्रीमद् भागवत पुराण में कितने अध्याय हैं और उनका संक्षेपिक सारांश क्या है?
A.श्रीमद् भागवत पुराण में कुल 12 स्कंध (अध्याय) हैं। यहां उनका संक्षेपिक सारांश दिया जा रहा है:
प्रथम स्कंध: भगवान के अवतारों की कथाएं, सृष्टि का वर्णन
द्वितीय स्कंध: कृष्ण की बाललीलाएं, गोपियों का प्रेम
तृतीय स्कंध: ब्रह्माजी के प्रश्नों का उत्तर, उद्धव गीता
चतुर्थ स्कंध: पृथु राजा का उद्धव से संवाद
पांचवा स्कंध: प्रह्लाद कथा, हिरण्यकशिपु के वध का वर्णन
छठा स्कंध: गजेंद्र मोक्ष, भगवान के महिमा गान का वर्णन
सातवा स्कंध: प्रह्लाद और हिरण्यकशिपु के संवाद
आठवा स्कंध: गोपीयों का प्रेम, रासलीला का वर्णन
नवम स्कंध: कृष्ण के बचपन का वर्णन, वासुदेव और देवकी के जीवन की कथा
दशम स्कंध: कृष्ण और बालराम के युद्ध, भगवान के जीवन की कथा
एकादश स्कंध: कृष्ण के वृंदावन के विहार, गोपियों का प्रेम
द्वादश स्कंध: भगवान के वनवास, शुकदेव जी का प्रवचन
त्रयोदश स्कंध: भगवान का प्रयोग, प्रबुद्ध जीवों का उद्धार || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
Q.श्रीमद् भागवत पुराण में वर्णित भक्ति और धर्म के सिद्धांत क्या हैं?
A.श्रीमद् भागवत पुराण में भक्ति और धर्म के सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन है। इस पुराण में बताया जाता है कि श्रीकृष्ण भगवान को भक्ति और प्रेम की प्राथमिकता देनी चाहिए। धर्म के सिद्धांतों में नैतिकता, सच्चाई, अहिंसा, सेवा, ध्यान, स्वाध्याय, तपस्या, वैराग्य, समर्पण आदि को महत्व दिया जाता है। इसके अलावा, पुराण में ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, कर्म और मोक्ष के मार्ग पर विचार किया जाता है।
वक्ता प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व ही स्नानादि करके संक्षेप से सन्ध्या-वन्दनादि का नियम पूरा कर ले
और कथा में कोई विघ्न न आये, इसके लिये नित्यप्रति गणेशजी का पूजन कर लिया करें ।
सप्ताह के प्रथम दिन यजमान स्नान आदि से शुद्ध हो नित्यकर्म करके आभ्युदयिक श्राद्ध करे ।
आभ्युदयिक श्राद्ध और पहले भी किया जा सकता है ।
यज्ञ में इक्कीस दिन पहले भी आभ्युदयिक श्राद्ध करने का विधान है ।
उसके बाद गणेश, ब्रह्मा आदि देवताओं सहित नवग्रह, षोडश मातृका, सप्त चिरजीवी (अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य तथा परशुरामजी) Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
एवं कलश की स्थापना तथा पूजा करे । एक चौकी पर सर्वतोभद्र-मण्डल बनाकर उसके मध्यभाग में ताम्रकलश स्थापित करे । कलश के ऊपर भगवान् लक्ष्मी-नारायण की स्वर्णमयी प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||
कलश के ही बगल में भगवान् शालिग्राम का सिंहासन विराजमान कर देना चाहिये ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
सर्वतोभद्र-मण्डल में स्थित समस्त देवताओं का पूजन करने के पश्चात् भगवान् नरनारायण, गुरु, वायु, सरस्वती, शेष, सनकादि कुमार, सांख्यायन, पराशर, बृहस्पति, मैत्रेय तथा उद्धव का भी आवाहन, स्थापन एवं पूजन करना चाहिये ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
फिर त्रय्यारुणि आदि छः पौराणिक का भी स्थापन-पूजन करके एक अलग पीठ पर उसे सुन्दर वस्त्र से आवृत करके, श्रीनारदजी की स्थापना एवं अर्चना करनी चाहिये । तदनन्तर आधारपीठ, पुस्तक एवं व्यास (वक्ता आचार्य) का भी यथाप्राप्त उपचारों से पूजन करना चाहिये ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
कथा निर्विघ्न पूर्ण हो इसके लिये गणेश-मन्त्र, द्वादशाक्षर-मन्त्र तथा गायत्री मन्त्र का जप और विष्णुसहस्रनाम एवं गीता का पाठ करने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार सात, पाँच या तीन ब्राह्मणों का वरण करे ।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
श्रीमद्भागवत का भी एक पाठ अलग ब्राह्मण द्वारा कराये ।
कथामण्डप में चारों दिशाओं या कोणों में एक-एक कलश और मध्यभाग में एक कलश—इस प्रकार पाँच कलश स्थापित करने चाहिये ।
चारों ओर के चार कलशों में से पूर्व के कलश पर ऋग्वेद की, दक्षिण कलश पर यजुर्वेद की, पश्चिम कलश पर सामवेद की और उत्तर कलश पर अथर्ववेद की स्थापना एवं पूजा करनी चाहिये ।
कोई-कोई मध्य में सर्वतोभद्र-मण्डल के मध्यभाग में एक ही ताम्र-कलश स्थापित करके उसी के चारों दिशाओं में सर्वतोभद्र-मण्डल की चौकी के चारों ओर चारों वेदों को स्थापना का विधान करते हैं । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||
इसी कलश के ऊपर भगवान् लक्ष्मी-नारायण की सुवर्णमयी प्रतिमा स्थापित करे और षोडशोपचार-विधि से उसकी पूजा करे ।
देवपूजा का क्रम प्रारम्भ से इस प्रकार रखना चाहिये —
|| श्रीमद्भागवत पूजन विधि ||
पहले रक्षादीप प्रज्वलित करे । एक पात्र में घी भरकर रूई की फूलबत्ती जलाये और उसे सुरक्षित स्थान पर अक्षत के ऊपर स्थापित कर दे । वह वायु आदि के झोंके से बुझ न जाय, इसकी सावधानी के साथ व्यवस्था करे । पहले भगवत्सम्बन्धी स्तोत्रों एवं पदों के द्वारा मङ्गलाचरण और वन्दना करे। इसके बाद आचमन और प्राणायाम करें।
इत्यादि मन्त्रों से शान्तिपाठ करे। देवताओं की स्थापना और पूजा के पहले स्वस्तिवाचन पूर्वक हाथ में पवित्री, अक्षत, फूल, जल और द्रव्य लेकर एक महासङ्कल्प कर लेना चाहिये । सङ्कल्प इस प्रकार है —
सङ्कल्प के पश्चात् पूर्वोक्त देवताओं के चित्रपट में अथवा अक्षत-पुंज पर उनका आवाहन-स्थापन करके वैदिक-पूजा-पद्धति (सनातन)के अनुसार उन सबकी पूजा करनी चाहिये । सप्तचिरजीवि पुरुषों तथा सनत्कुमार आदि का पूजन नाम-मन्त्र द्वारा करना चाहिये । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||
उसके बाद एक पात्र में चावल भरकर उस पर मौली में लपेटी हुई एक हल्दी- सुपारी रख दे और उसमें गौरी-गणेशजी का आवाहन करे —
इस प्रकार आवाहन करके पूर्ववत् नाममन्त्र से पूजा करे —
१ ॐ अश्वत्थाम्ने नमः । २ ॐ बलये नमः । ३ ॐ व्यासाय नमः । ४ ॐ हनुमते नमः ।
५ ॐ विभीषणाय नमः । ६ ॐ कृपाय नमः । ७ ॐ परशुरामाय नमः ।
पूजा के पश्चात् हाथ में फूल लेकर निम्नाङ्कित रूप से प्रार्थना करे —
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषणः ।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ।।
यजमानगृहे नित्यं सुखदाः सिद्धिदाः सदा ।।
— ‘अनया पूजया अश्वत्थामादिसप्तचिरजीविनः प्रीयन्तां न मम ।’
यह कहकर फूल चढ़ा दे । इसके अनन्तर सर्वतोभद्र-मण्डलस्थ देवताओं का आवाहन-पूजन (देवपूजापद्धतियों के अनुसार) करके मध्य में ताम्र-कलश स्थापित करे । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||
फिर उस कलश के
पूर्व भाग में ‘ॐ अग्निमीळे०’ इत्यादि मन्त्र से ऋग्वेद का,
दक्षिण भाग में ‘ॐ इषे त्वोर्जत्वा०’ इत्यादि मन्त्र से यजुर्वेद का,
पश्चिम भाग में ‘ॐ अग्न आयाहि वीतये०‘ इत्यादि मन्त्र से सामवेद का
तथा ‘ॐ शन्नो देवी०’ इत्यादि मन्त्र से उत्तर भाग में अथर्ववेद का स्थापन करे ।
पाँच कलश हो तो पृथक्-पृथक् कलशों पर वेदों की स्थापना करनी चाहिये ।
इसके अनन्तर कलश में ‘ॐ गणानां त्वा०’ इत्यादि से गणेश का तथा ‘ॐ तत्त्वायामि०’ इत्यादि मन्त्र से वरुणदेवता का आवाहन करके इनका षोडशोपचार से पूजन करे । पूजन के पश्चात् ‘अनया पूजया वरुणाद्यावाहितदेवताः प्रीयन्ताम्’ कहकर फूल छोड़ दे । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||
तदनन्तर कलश के ऊपर सुवर्णमयी लक्ष्मीनारायणप्रतिमा का संस्कार करके स्थापित करे । पुरुषसूक्त के षोड्श मन्त्रों से षोडश-उपचार चढ़ाकर पूजन करे । साथ ही शालिग्रामजी की भी पूजा करे । पूजा के पश्चात् इस प्रकार भगवान् से प्रार्थना करे —
ब्रह्मसूत्रं करिष्यामि तवानुग्रहतो विभो ।
तन्निर्विघ्नं भवेद्देव रमानाथ क्षमस्व मे ।।
— ‘अनया पूजया लक्ष्मीसहितो भगवान्नारायणः प्रीयतां न मम ।’
यों कहकर पुष्पाञ्जलि चढ़ाये ।
ऐसा ही सर्वत्र करे इसके बाद
‘ॐ नरनारायणाभ्यां नमः’ इस मन्त्र से भगवान् नर-नारायण का आवाहन और पूजन करके इस प्रकार प्रार्थना करे —
यो मायया विरचितं निजमात्मनीदं खे रूपभेदमिव तत्प्रतिचक्षणाय ।
— इन मन्त्रों द्वारा धर्मादि की भावना एवं पूजा करे ।
फिर पीठों के मध्यभाग में
‘ॐ अनन्ताय नमः’ से अनन्त की और ‘ॐ महापद्माय नम:’ से महापद्म की पूजा करे ।
फिर यह चिन्तन करे —
उस महापद्म का कन्द (मूलभाग) आनन्दमय है । उसकी नाल संवित्स्वरूप है, उसके दल प्रकृतिमय हैं, उसके केसर विकृतिरूप हैं, उसके बीज पञ्चाशत् वर्णस्वरूप हैं और उन्हीं से उस महापद्म की कर्णिका (गद्दी) विभूषित है । उस कर्णिका मे अर्कमण्डल, सोममण्डल और वह्निमण्डल की स्थिति है । वहीं प्रबोधात्मक सत्व, रज एवं तम भी विराजमान हैं । ऐसी भावना के पश्चात् उन सबकी पञ्चोपचार पूजा करे । मन्त्र इस प्रकार हैं —
— यह मन्त्र पढ़कर श्रीमद्भागवत की सिंहासन या अन्य किसी आसन पर स्थापना करे । तत्पश्चात् पुरुषसूक्त के एक-एक मन्त्र द्वारा क्रमशः षोडश उपचार अर्पण करते हुए पूजन करे ।
श्रीमद्भागवत पूजन विधि
रक्षा बाँधने के अनन्तर यजमान उनके ललाट में कुङ्कम (रोली) और अक्षत से तिलक करे ।
इसी प्रकार जपकर्ता ब्राह्मणों के हाथों में भी रक्षा बाँधकर तिलक करे । तदनन्तर पीले अक्षत लेकर यजमान चारों दिशाओं में रक्षा के लिये बिखेरे । उस समय निम्नाङ्कित मन्त्रों का पाठ भी करे —
इस मन्त्र से उसके ललाट मे तिलक कर दे । फिर यजमान व्यासासन को चन्दन-पुष्य आदि से पूजा करे । पूजन का मन्त्र इस प्रकार है —
’ॐ व्यासासनाय नमः।’
तदनन्तर कथावाचक आचार्य ब्राह्मणों और वृद्ध पुरुषों की आज्ञा लेकर विप्रवर्ग को नमस्कार और गुरुचरणों का ध्यान करके व्यासासन पर बैठे । मन-ही-मन गणेश और नारदादि का स्मरण एवं पूजन करें ।
इसके बाद यजमान
‘ॐ नमः पुराणपुरुषोत्तमाय’ इस मन्त्र से पुनः पुस्तक की गन्ध, पुष्प, तुलसीदल एवं दक्षिणा आदि के द्वारा पूजा करे । फिर गन्ध, पुष्प आदि से वक्ता का पूजन करते हुए निम्नाङ्कित श्लोक का पाठ करे —
जयति पराशरसूनुः सत्यवतीहृदयनन्दनो व्यासः ।
यस्यास्यकमलगलितं वाङ्यममृतं जगत्पिबति ।।
तत्पश्चात् नीचे लिखे हुए श्लोकों को पढ़कर प्रार्थना करे —
इस प्रकार प्रार्थना करने के पश्चात् निम्नाङ्कित श्लोक पढ़कर श्रीमद्भागवत पर पुष्प, चन्दन और नारियल आदि चढ़ाये —
श्रीमद्भागवताख्योऽयं प्रत्यक्षः कृष्ण एव हि ।
स्वीकृतोऽसि मया नाथ मुक्त्यर्थं भवसागरे ।।
मनोरथो मदीयोऽयं सफलः सर्वथा त्वया ।
निर्विघ्नेनैव कर्तव्यो दासोऽहं तव केशव ।।
कथा-मण्डप में वायुरूपधारी आतिवाहिक शरीरवाले जीवविशेष के लिये एक सात गाँठ के बाँस को भी स्थापित कर देना चाहिये । तत्पश्चात् वक्ता भगवान् का स्मरण करके उस दिन श्रीमद्भागवतमाहात्म्य की कथा सब श्रोताओं को सुनाये ।
सन्ध्या को कथा की समाप्ति होनेपर भी नित्यप्रति पुस्तक तथा वक्ता की पूजा तथा आरती, प्रसाद एवं तुलसीदल का वितरण, भगवन्नामकीर्तन एवं शङ्खध्वनि करनी चाहिये । कथा के प्रारम्भ में और बीच-बीच में भी जब कथा का विराम हो तो समयानुसार भगवन्नामकीर्तन करना चाहिये । वक्ता को चाहिये कि प्रतिदिन पाठ प्रारम्भ करने से पूर्व एक सौ आठ बार ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादशाक्षर-मन्त्र का अथवा ‘ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा’ इस गोपाल-मन्त्र का जप करे । इसके बाद निम्नाङ्कित वाक्य पढ़कर विनियोग करें —
विनियोग- दाहिने हाथ की अनामिका में कुश की पवित्री पहन ले। फिर हाथ में जल लेकर नीचे लिखे वाक्य को पढ़कर भूमि पर गिरा दे-
न्यास-विनियोग में आये हुए ऋषि आदि का तथा प्रधान देवता के मन्त्राक्षरों का अपने शरीर के विभिन्न अङ्गों में जो स्थापन किया जाता है, उसे ‘न्यास’ कहते हैं। मन्त्र का एक-एक अक्षर चिन्मय होता है, उसे मूर्तिमान देवता के रूप में देखना चाहिये। इन अक्षरों के स्थापन से साधक स्वयं मन्त्रमय हो जाता है, उसके हृदय में दिव्य चेतना का प्रकाश फैलता है, मन्त्र के देवता उसके स्वरूप होकर उसकी सर्वथा रक्षा करते हैं। ऋषि आदि का न्यास सिर आदि कतिपय अङ्गों में होता है मन्त्र पदों अथवा अक्षरों का न्यास प्रायः हाथ की अँगुलियों और हृदयादि अङ्गों में होता है। || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||
इन्हें क्रमश: करन्यास’ और ‘अङ्गन्यास’ कहते हैं। किन्हीं-किन्हीं मन्त्रों का न्यास सर्वाङ्ग में होता है। न्यास से बाहर-भीतर की शुद्धि, दिव्य बल की प्राप्ति और साधना की निर्विघ्र पूर्ति होती है। यहाँ क्रमशः ऋष्यादिन्यास, करन्यास और अङ्गन्यास दिये जा रहे हैं-
करन्यास- इसमें ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादशाक्षर मन्त्र के एक-एक अक्षर प्रणव से सम्पुटित करके दोनों हाथों की अङ्गलियों में स्थापित करना है।Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
इस प्रकार ध्यान के पश्चात् कथा प्रारम्भ करनी चाहिये । सूर्योदय से आरम्भ करके प्रतिदिन साढ़े तीन प्रहर तक कथा बाँचनी चाहिये । मध्याह्न में दो घड़ी कथा बंद रखनी चाहिये । प्रातःकाल से मध्याह्न तक मूल का पाठ होना चाहिये और मध्याह्न से सन्ध्या तक उसका संक्षिप्त भावार्थ अपनी भाषा में कहना चाहिये । मध्याह्न में विश्राम के समय तथा रात्रि के समय भगवन्नाम-कीर्तन की व्यवस्था होनी चाहिये ।
कथा-समाप्ति के दूसरे दिन वहाँ स्थापित हुए सम्पूर्ण देवताओं का पूजन करके हवन की वेदी पर पञ्चभूसंस्कार, अग्निस्थापन एवं कुशकण्डिका करे । फिर विधिपूर्वक वृत ब्राह्मणों द्वारा हवन, तर्पण एवं मार्जन कराकर श्रीमद्भागवत की शोभायात्रा निकाले और ब्राह्मण-भोजन कराये । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||
मधुमिश्रित खीर और तिल आदि से भागवत के श्लोकों का दशांश (अर्थात् १८००) आहुति देनी चाहिये । खीर के अभाव में तिल, चावल, जौ, मेवा, शुद्ध घी और चीनी को मिलाकर हवनीय पदार्थ तैयार कर लेना चाहिये । इसमें सुगन्धित पदार्थ (कपूर-काचरी, नागरमोथा, छड़छड़ीला, अगर-तगर, चन्दनचूर्ण आदि) भी मिलाने चाहिये । || श्री मद भागवत सप्ताह विधि एवं पूजन सामग्री आरती सहित ||
पूर्वोक्त अठारह सौ आहुति गायत्री मन्त्र अथवा दशमस्कन्ध के प्रति श्लोक से देनी चाहिये । हवन के अन्त में दिक्पाल आदि के लिये बलि, क्षेत्रपाल-पूजन, छायापात्रदान, हवन का दशांश तर्पण एवं तर्पण का दशांश मार्जन करना चाहिये । फिर आरती के पश्चात् किसी नदी, सरोवर या कूपादि पर जाकर अवभृथस्नान (यज्ञान्त-स्नान) भी करना चाहिये ।
जो पूर्ण हवन करने में असमर्थ हो, वह यथाशक्ति हवनीय पदार्थ दान करें । अन्त में कम-से-कम बारह ब्राह्मणों को मधुयुक्त खीर का भोजन कराना चाहिये । व्रत की पूर्ति के लिये सुवर्ण-दान और गोदान करना चाहिये । सुवर्ण-सिंहासन पर विराजित सुन्दर अक्षरों में लिखित श्रीमद्भागवत की पूजा करके उसे दक्षिणासहित कथावाचक आचार्य को दान कर देना चाहिये । अन्त में सब प्रकार की त्रुटियों की पूर्ति के लिये विष्णुसहस्रनाम का पाठ कथावाचक आचार्य के द्वारा सुनना चाहिये । विरक्त श्रेताओं को ‘गीता’ सुननी चाहिये ।
|| श्रीमद्भागवतजी की आरती ||
॥ श्रीभागवत भगवान् की आरती ॥
श्री भागवत भगवान की है आरती,
पापियों को पाप से है तारती ।
ये अमर ग्रन्थ ये मुक्ति पन्थ,
ये पंचम वेद निराला,
नव ज्योति जलाने वाला ।
हरि नाम यही हरि धाम यही,
यही जग मंगल की आरती
पापियों को पाप से है तारती ॥
श्री भागवत भगवान की है आरती……
ये शान्ति गीत पावन पुनीत,
पापों को मिटाने वाला,
हरि दरश दिखाने वाला ।
यह सुख करनी, यह दुःख हरिनी,
श्री मधुसूदन की आरती,
पापियों को पाप से है तारती ॥
श्री भागवत भगवान की है आरती……
ये मधुर बोल, जग फन्द खोल,
सन्मार्ग दिखाने वाला,
बिगड़ी को बनानेवाला ।
श्री राम यही, घनश्याम यही,
यही प्रभु की महिमा की आरती
पापियों को पाप से है तारती ॥
श्री भागवत भगवान की है आरती…….
श्री भागवत भगवान की है आरती,
पापियों को पाप से है तारती ।
॥ श्रीमद्भागवत पुराण की आरती ॥Shrimad Bhagwat Saptah Vidhi
मिष्ठान 500 ग्राम
पान के पत्ते (समूचे) 21 पीस
केले के पत्ते 5 पीस
आम के पत्ते 2 डंठल
ऋतु फल 5 प्रकार के
दूब घास 50 ग्राम
फूल, हार (गुलाब) की 2 माला
फूल, हार (गेंदे) की 2 माला
गुलाब/गेंदा का खुला हुआ फूल 500 ग्राम
तुलसी का पौधा 1 पीस
तुलसी की पत्ती 5 पीस
दूध 1 लीटर
दही 1 किलो
राम दरबार की प्रतिमा 1 पीस
रामचरितमानस ग्रंथ 1 पीस
रेहल (ग्रन्थ को रखने हेतु) 1 पीस
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
हमारे मृत पूर्वजों की आत्माए नाराज होने से भी यह दोष कुंडली में पाया जाता है। संस्कृत में काल सर्प दोष द्वारा कई सारे निहितार्थ सुझाए गए है। यह अक्सर कहा जाता है कि अगर काल सर्प दोष निवारण पूजा नहीं की गयी तो, संबंधित व्यक्ति के कार्य को प्रभावित करेगा और सबसे कठिन बना देगा।
कालसर्प पूजा :
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है?Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
कालसर्प पूजा त्र्यंबकेश्वर में ताम्रपत्र धारक पंडितजी के घर पर की जाती है। त्र्यंबकेश्वर यह एक प्राचीन हिंदू मंदिर है जो नासिक जिले के महाराष्ट्र में स्थित है।
त्र्यंबकेश्वर महादेव मंदिर को सभी शक्तपीठो के रूप में से ही एक माना जाता है, और१२ ज्योतिर्लिंग में गिना जाता है। कालसर्प दोष मुख्यतः रूप से नकारात्मक ऊर्जाओं से संबंधित है, जो मनुष्य के शारीरिक, और मानसिक स्थिति को प्रभावित करता है। यह कालसर्प पूजा वैदिक शांति के अनुसार ही करनी चाहिए।
कालसर्प पूजा की विधी भगवान शिव (त्र्यंबकेश्वर) की पूजा के साथ शुरू होती है और फिर गोदावरी नदी में पवित्र स्नान करते है जिससे, आत्मा और मन की शुद्धि का संकेत माना जाता है, उसके बाद, मुख्य पूजा शुरूवात होती है।
उपासक को एक प्राथमिक संकल्प पदान करना होता है और फिर पूजा विधी की शुरुआत भगवान वरुण के पूजन के साथ होती है और इसके बाद भगवान गणेश पूजन होता है।
भगवान वरुण के पूजन में कलश पूजन होता है जिसमें पवित्र गोदावरी नदी के जल को देवता के रूप में पूजा जाता है। यह कहा जाता है कि सभी पवित्र जल, पवित्र शक्ति, और देवी, देवता की पूजा इस कलश के पूजा द्वारा की जाती है।
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
प्रथम श्री गणेश भगवान का पूजन होता है।
इसके पश्चात नागमंडल पूजा की जाती है, जिसमें १२ नागमूर्ति होती है।
इन १२ नागमूर्तियोंमें १० मुर्तिया चांदी से निर्मित तथा १ सोने से एवं एक नागमूर्ति ताम्बे की होना अनिवार्य है।
फिर हर नाग को नागमंडल में बिठाया जाता है जिसे लिंगतोभद्रमण्डल भी कहा जाता है।
लिंगतोभद्रमण्डल की विधिवत प्राणप्रतिष्ठा करके षोडशोपचार पूजन किया जाता है।
इसके पश्चात नाग मूर्ति का विसर्जन किया जाता है।
राहु-केतु, सर्पमंत्र, सर्पसूक्त, मनसा देवी मन्त्र एवं महामृत्युंजय मंत्र की माला से जाप करके मन्त्रोद्वारा हवनादि किया जाता है।
हवाना के बाद जिस प्रतिमा से कालसर्प का दोष दूर होता है उसपर अभिषेक किया जाता है, और उसे पवित्र जलाशय या नदीमे विसर्जित किया जाता है।
तीर्थ में स्नान करके, पूजा के दौरान धारण किए हुए वस्त्र वहीं छोड़ दिए जाते है तथा साथ में लाए हुए नए वस्त्र धारण किये जाते है।
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
इसके पश्चात ताम्रनिर्मित सर्प मूर्ति को ज्योतिर्लिंगको अर्पण करके, सुवर्ण नाग की प्रतिमा मुख्य गुरूजी एवं अन्य नागमूर्तियाँ उनके सहयोगी गुरूजी को दिए जाते है।
कालसर्प दोष की अधिक जानकारी:
किसी भी व्यक्ति के जीवन में काल सर्प योग की संभावना तभी दिखाइ देती है, जब ग्रहो (राहु और केतु ) की स्थिति बदल कर, वो बाकि सब ग्रहो के बिच में आ जाते है। दोनों ग्रह जैसे राहु और केतु को, “साँप” और “सांप की पूंछ” माना जाता है।
कुल १२ प्रकार के विभिन्न काल सर्प योग है, जैसे अनंत, कुलिका, वासुकि, शंखपाल, पद्म, महापद्म, तक्षक, कर्कोटक, शंखचूर, घटक, विषधर और शेष नाग योग। ऐसा कहा जाता है कि, जिस व्यक्ति के कुंडली में यह दोष रहता है उसे सांपों और साँप (सर्प) से काटने के सपने देखता है।
कालसर्प दोष कुंडली में होने के लक्षण:
यदि किसी व्यक्ति को पता नहीं की वे यह दोष से पीड़ित है या नहीं, या वो अनिश्चित है, तो निचे दिए गए कई लक्षण से कुंडली में स्थित काल सर्प योग के बारे में पता चल सकता है: कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है?Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
जब व्यक्ति के जन्म कुंडली में काल सर्प योग रहता है , तो वो अक्सर मृत परिवार के सदस्य या मृत पूर्वजो को सपने में देखता है। कुछ लोग यह भी देखते है कि कोई उन्हें गला घोट कर मार रहा है।
यह देखा गया है की, इस योग से प्रभावित व्यक्ति का स्वभाव सामाजिक होता हैं और उन्हें किसी चीज का लालच नहीं होता है।
जिन्हे सांपों से बहुत डर लगता है, उन्हें भी इस दोष से प्रभावित के रूप में जाना जाता है, यहां तक कि वे अक्सर सांप के काटने के सपने देखते हैं।
जो व्यक्ति इस दोष से पीड़ित है, उस व्यक्ति को अपने जीवन में बहुत संघर्ष करना पड़ता है और आवश्यकता के समय अकेलापन महसूस होता है।
व्यापार पर बुरा असर होना।
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
ब्लडप्रेशर जैसी रक्त से संबधित बीमारियां, गुप्त शत्रु से परेशानी होना।
सोते समय कोई गला दबा रहा हो ऐसा प्रतीत होना।
स्वप्न में खुदके घर पर परछाई दिखना।
नींद में शरीर पर साँप रेंगता होने का अहसास होना।
जीवनसाथी से विवाद होना।
रात में बार-बार नींद का खुलना।
स्वप्न में नदी या समुद्र दिखना।
पिता और पुत्र के बीच विवाद होना।
स्वप्न में हमेशा लड़ाई झगड़ा होते दिखना।
मानसिक परेशानी, सिरदर्द, त्वचारोग होना।
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
यह भी कहा जाता है कि, कुछ लोगों को एयरोफोबिया ( अँधेरे से डर) भी होता है। किसी की भी कुंडली में इस प्रकार के योग को ठीक करने के लिए, विशेषज्ञ या पंडितजी से काल सर्प योग शांति पूजा करना आवश्यक है।
कालसर्प योग प्रभाव:
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है?Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
काल सर्प योग के कुछ ऐसे कारण भी हैं, यदि कोई भी व्यक्ति सांपों को नुकसान पहुंचाता है, तो उसे अपने अगले जन्म में काल सर्प योग दोष से सामना करना पड़ता है।
वैदिक पुराण के अनुसार, जब ग्रहों की स्थिति बदल कर सभी सात ग्रह “राहु” और “केतु” नामक ग्रह में आते हैं, तब काल सर्प योग निर्माण होता है। यह दोष वैदिक पुराणों में सुझाए गए किसी भी अन्य प्रकार के दोष की तुलना में अधिक हानिकारक है।
कालसर्प योग दोष की अवधि:
हिंदू धर्म के अनुसार, यह कहा जाता है की परिणाम हमारे पिछले कार्य पर निर्भर होते है, मतलब जो हम कार्य करते है उसका फल हमें बाद में मिलता है।
यदि कोई व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में किसी जानवर या सांप की मृत्यु का कारण बना है, तो उसे अपने अगले जीवन में काल सर्प दोष समस्याओ से सामना करना होगा।
शास्त्रों के अनुसार, कालसर्प योग शांति पूजा निवारण करने तक यह योग दोष वह व्यक्ति के कुंडली में रहता हैं |
कालसर्प दोष के कई उपाय है जो इस दोष को पूरी तरह नहीं ख़त्म करते लेकिन उसका नकारात्मक प्रभाव कम करते है:
जैसे रोज “महामृत्युंजय मंत्र ” ( ” ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।, उर्वारुकमिव बन्धनान्मृ, त्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥”)
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
या ” रूद्र मंत्र” का १०८ बार जाप करना, एक प्रभावी तरिका है। कुछ लोग “पंचाक्षरी मंत्र” (ॐ नमः शिवाय) का भी जाप करते है जिससे इस मंत्र का बुरा असर काम होता है।
दूसरा उपाय यह है की, रोज अकीक की लकड़ी को एक हात में लेकर, बीज मंत्र का १०८ बार जाप करना।
हर सोमवार को भगवान शिवा को रूद्र अभिषेक समर्पित करना।
जो व्यक्ति इस दोष से पीड़ित है उसे रोज भगवान विष्णु की साधना करनी चाहिए, जिससे कालसर्प दोष के हानिकारक प्रभाव कम होते है।
हर शनिवार को पीपल के पेड़ को पानी डालना चाहिए जिससे काल सर्प दोष से निर्मित समस्याएं कम होती है।
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
कालसर्प दोष के प्रकार :
वैदिक ज्योतिष अनुसार, विभिन्न कालसर्प योग के अलग-अलग प्रकार हैं। उनके प्रकारों की तरह अलग अलग प्रभाव है। कुल 12 प्रकार के कालसर्प योग नीचे दिए गए हैं: कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है?Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
१.अनंत कालसर्प दोष:
जब ग्रह राहु और केतु कुंडली के प्रथम और सातवे स्थान में स्थित होते हैं, तो अनंत कालसर्प योग बनता है। इस योग से प्रभावित व्यक्ति को मानसिक के साथ-साथ शारीरिक समस्याएं का भी सामना करना पड़ता है, और उसे कानूनी मुद्दों और सरकार से संबंधित मुद्दों में भी शामिल होना पड़ सकता है।
अक्सर देखा गया है की, ऐसा व्यक्ति जो इस अनंत कालसर्प योग से पीड़ित है, वह व्यापक सोच वाला होता है।
२.कुलिक कालसर्प दोष:
जब ग्रह राहु और केतु कुंडली के दूसरे और आठवे स्थान में स्थित हों तो कुलिक काल सर्प योग बनता है। इस योग से प्रभावित व्यक्ति को वित्तीय समस्याओं से सामना करना पड़ता है, चीजों को हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। अक्सर देखा गया है की, उस व्यक्ति का समाज से अच्छा संबंध नहीं होता है।
३.वासुकि कालसर्प दोष:
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है?Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
जब ग्रह राहु और केतु जन्म कुंडली के तीसरे और नौवें स्थान पर स्थित होते हैं, तो वासुकी काल सर्प योग होता है। इस योग से प्रभावित व्यक्ति को अपने जीवन में संघर्ष करना पड़ता है।
४.शंखपाल कालसर्प दोष:
ग्रहों की स्थिति जहां राहु चौथे घर में और केतु कुंडली में दस वें घर में होती है, तो शंखपाल कालसर्प योग होता है। इस शंखपाल काल सर्प योग के प्रभाव के कारण, व्यक्ति को कुछ आर्थिक और मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
रिश्तेदारों के संबंधित मामलों में कठिनाइयों हो सकती है।
५.पद्म कालसर्प दोष
जब कुंडली के पांच वें और गयारह वें घर में राहु और केतु स्थित होते हैं, तो यह पद्म कालसर्प योग बनता है। पद्म कालसर्प योग के कारण, संबंधित व्यक्ति को समाज में अपमानित महसूस कर सकता है, और उसे बीमारियों के कारण पितृत्व संबंधी समस्याओं का सामना करना पद सकता है।
६.महा पद्म कालसर्प दोष
जब राहु और केतु को जन्म कुंडली में छटे और बारह वें स्थान पर होते है , तब महा पद्म कालसर्प योग का निर्माण होता है। इस योग से पीड़ित व्यक्ति को कुछ शारीरिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ सकता है।
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है?Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
७.तक्षक कालसर्प दोष
जब राहु और केतु जैसे ग्रहों की स्थिति, प्रथम और सातवे स्थान पर होते है, यह दोष की निर्मिति होती है, यह दोष अनंत कालसर्प दोष के ठीक विपरीत है।
इस योग से पीड़ित व्यक्ति अपने विवाहित जीवन में संघर्ष करना पड़ सकता है, और यह मानसिक तनाव का कारण बनता है।
८.शंखचूड़ कालसर्प दोष
इस प्रकार का योग तब बनता है जब राहु और केतु जन्म कुंडली में नौ वें और तीसरे स्थान पर होंते है। यह दोष से पीड़ित व्यक्ति को जीवन में कोई खुशी नहीं मिलती है।
९.पातक कालसर्प दोष
पातक काल सर्प योग तब होता है जब कुंडली में राहु और केतु जैसे ग्रहो का स्थान दस वें और चौथे स्थान पर होता है। इस योग के कारण, परिवार के बहस होती है।
१०.विषधर कालसर्प दोष:
जन्मकुंडली में पांच वें और ग्यारह वें घर में राहु और केतु की स्थिति होने से, विषधर कालसर्प योग का निर्माण होता है। विषधर कालसर्प योग के प्रभाव से शिक्षा से संबंधित, और स्वस्थ संबंधित समस्याएं होती है।
११.शेषनाग कालसर्प दोष:
इस योग में ग्रहों की स्थिति महा पद्म कालसर्प योग में ग्रहों की स्थिति के विपरीत होती है।
इस दोष के कारन कोई भी व्यक्ति अनावश्यक रूप से किसी कानूनी परेशानी में फंस सकता है और परिणामी उसका मानसिक तनाव बढ़ सकता है। इसलिए, यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में यह दोष दिखाइ दे, तो तत्काल उसके लिए कालसर्प शांति पूजा प्रदान करनी चाहिए, और उसे चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है क्योकि यदि किसी की जन्म कुंडली में अन्य ग्रहों की व्यवस्था शुभ है, तो चीजें उसके लिए अच्छी होंगी।
१२.कर्कोटक कालसर्प योग
“कर्कोटक कालसर्प योग” तब बनता है जब कोई किसी की कुंडली/कुंडली में आठवें स्थान पर होता है और केतु दूसरे स्थान में होता है और अन्य ग्रह इन दोनों ग्रहों के बीच होते हैं।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कुंडली में आठवां स्थान अचानक लाभ का संकेत देता है।
यदि यह योग यहाँ है तो जातक को पुश्तैनी धन प्राप्त करना कठिन हो सकता है। पेंशन, भत्ता या बीमा राशि प्राप्त करने में लंबा समय लगने की संभावना है। ऐसी जाति को मित्रों द्वारा धोखा दिया जा सकता है।
कई जगहों पर कर्ज का निपटारा हो सकता है। अचानक आर्थिक संकट उत्पन्न हो सकता है। जातक की आकस्मिक मृत्यु की भी संभावना है।
कालसर्प पूजा मूल्य:
काल सर्प योग के हानिकारक प्रभावों से मुक्ति पाने के लिए, एकमात्र उपाय कालसर्प पूजा है, जिसे बाकी सब ग्रहो को शांत करने और उन्हें अपने स्थानों पर वापस लाने के लिए किया जाता है।
काल सर्प पूजा का मूल्य पूरी तरह पूजा, ब्राह्मण , रुद्र अभिषेक, राहु-केतु जाप और पूजा को आवश्यक अन्य चीजों पर निर्भर है। सामूहिक (समूह) पूजन के लिए पुरोहितों द्वारा सुझाए गए समाग्री के अनुसार काल पूजा मूल्य भी बदल जाता है।
कालसर्प योग दोष पूजा फायदे
नौकरीमे शोहरत और ऊँचे पदका लाभ होना।
व्यापार में लाभ होना।
पति पत्नी में मतभेद मिट जाना।
मित्रों से लाभ होना।
आरोग्य में लाभ होना।
परिवार में शान्ति आना।
उत्तम संतान की प्राप्ति होना।
सामजिक छवि में सुधार होना।
कालसर्प योग दोष पूजा दक्षिणा
कालसर्प दोष कितने समय तक रहता है? 12 Kaal sarp dosh/ कालसर्प दोष को हमेशा के लिए दूर कैसे करें?
पूजा में उपयोग आनेवाली सामग्री पर दक्षिणा आधारित होती है।
कालसर्प योग दोष पूजा नियम
यह पूजा करने से एक दिन पहले त्र्यंबकेश्वर में आना जरुरी है।
यह पूजा अकेला व्यक्ति भी कर सकता है, किन्तु गर्भवती महिला इसे अकेले नहीं कर सकती।
इस योग से ग्रसित व्यक्ति बालक होने पर उसके माता-पिता इस पूजा को एक साथ कर सकते है।
पवित्र कुशावर्त तीर्थ पर जाकर स्नान करके पूजा करने के लिए नए वस्त्र धारण करना आवश्यक है।
इस पूजा को करने के लिए पुरुष धोती, कुडता एवं महिला सफेद साडी पहनती है।
माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?
माँ वैष्णो देवी का मंदिर प्रमुख और पवित्र हिंदू मंदिरों में से एक है जो भगवान शिव की दिव्य पत्नी पार्वती या देवी शक्ति को समर्पित है। यह खूबसूरत मंदिर भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य में वैष्णो देवी की सुरम्य पहाड़ियों के बीच स्थित है। हिंदू वैष्णो देवी की पूजा करते हैं, जिन्हें आमतौर पर माता रानी और वैष्णवी भी कहा जाता है, जो देवी मां शक्ति की अभिव्यक्ति हैं।
वैष्णो देवी मंदिर का सटीक स्थान
वैष्णो देवी मणिर रियासी जिले में कटरा शहर के करीब स्थित है। यह भारत में सबसे प्रतिष्ठित पूजा स्थलों में से एक है। यह मंदिर समुद्र तल से 5300 फीट की ऊंचाई पर स्थित है और कटरा से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
यह दर्ज किया गया है कि हर साल दुनिया के हर हिस्से से लगभग 8 मिलियन यात्री (तीर्थयात्री) मंदिर में आते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह तिरुमाला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद भारत में दूसरा सबसे अधिक देखा जाने वाला धार्मिक मंदिर है।
मंदिर परिसर का रखरखाव श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड द्वारा किया जाता है। तीर्थयात्री उधमपुर से कटरा होते हुए रेल मार्ग से मंदिर तक पहुंच सकते हैं। फ्लाइट से यात्रा करने वालों के लिए जम्मू हवाई अड्डा मंदिर तक पहुंचने का सबसे अच्छा तरीका है।
माता वैष्णो देवी का जन्म और बचपन
पौराणिक कथा के अनुसार, माता वैष्णो देवी का जन्म भारत के दक्षिणी भाग में रत्नाकर सागर के यहाँ हुआ था। उसके माता-पिता कई वर्षों से निःसंतान थे और एक बच्चे को जन्म देने के लिए उत्सुक थे। दिव्य बालक के जन्म से ठीक एक रात पहले, रत्नाकर ने वादा किया था कि उनका बच्चा जीवन में आगे चलकर जो भी करना चाहेगा, उसमें वह कभी हस्तक्षेप नहीं करेंगे। अगले दिन माता वैष्णो देवी का जन्म हुआ और उनका नाम त्रिकुटा रखा गया। बाद में उन्हें वैष्णवी कहा गया क्योंकि उन्होंने भगवान विष्णु के वंश में जन्म लिया था।
जब वह 9 वर्ष की थी, तब त्रिकुटा ने अपने पिता से समुद्र तट पर तपस्या करने की अनुमति मांगी। त्रिकुटा वहीं बैठ गईं और भगवान विष्णु के अवतार भगवान राम से प्रार्थना करने लगीं। उसी समय, भगवान राम देवी सीता की तलाश में समुद्र के किनारे से गुजरे, जिनका राक्षस राजा रावण ने अपहरण कर लिया था। राम अपनी पूरी वानर सेना (बंदरों की सेना) के साथ उपस्थित थे।माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?
दिव्य चमक वाली सुंदर लड़की को प्रार्थना और ध्यान में डूबा हुआ देखकर, वह उसके पास आए और उसे आशीर्वाद दिया। त्रिकुटा ने राम से कहा कि वह पहले ही उन्हें अपने पति के रूप में स्वीकार कर चुकी है। राम ने, एक पत्नी व्रत (एक ही जीवनसाथी रखने का वचन लिया था) होने के नाते, फैसला किया था कि वह केवल सीता से विवाह करेंगे और उनके प्रति वफादार रहेंगे। हालाँकि, अपने प्रति लड़की की भक्ति से प्रभावित होकर, भगवान ने उसे वैष्णवी नाम दिया और उससे वादा किया कि कलियुग के दौरान, वह कल्कि का अवतार लेंगे और फिर उससे शादी करेंगे।
इस बीच, राम ने त्रिकुटा को उत्तरी भारत में स्थित माणिक पर्वत की त्रिकुटा श्रृंखला में पाई जाने वाली एक विशेष गुफा में ध्यान करने का भी निर्देश दिया। वह उसे धनुष और तीर, बंदरों की एक छोटी सेना और उसकी सुरक्षा के लिए एक शेर भी देने के लिए आगे बढ़ा। तब देवी मां ने रावण के खिलाफ भगवान राम की जीत के लिए प्रार्थना करने के लिए ‘नवरात्र’ मनाने का फैसला किया।माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?
माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?
आज भी भक्तजन नवरात्रि उत्सव के 9 दिनों के दौरान रामायण का पाठ करते हैं। राम ने उनसे यह भी वादा किया कि पूरी दुनिया उनकी प्रशंसा करेगी और उन्हें माता वैष्णो देवी के रूप में सम्मान देगी। यह राम के आशीर्वाद के कारण है कि माता वैष्णो देवी को अमरता प्राप्त हुई और अब हर साल लाखों तीर्थयात्री इस मंदिर में आते हैं।माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?
माता वैष्णो देवी की पौराणिक कथाएँ
पौराणिक कथा के अनुसार, उस समय जब देवी दुनिया में अराजकता पैदा करने वाले असुरों या राक्षसों के खिलाफ भयानक युद्ध छेड़ने और उन्हें नष्ट करने में लगी हुई थीं, उनकी तीन मुख्य अभिव्यक्तियाँ, अर्थात्, महा काली, महा लक्ष्मी और महा सरस्वती एक ही शक्ति में एकजुट हो गईं। , उनकी सामूहिक आध्यात्मिक शक्ति को एकत्रित करना। इस एकीकरण ने एक उज्ज्वल तेजस या आभा का निर्माण किया और इस तेजस से एक सुंदर युवा लड़की का उदय हुआ। लड़की ने देवी माँ से अपने लक्ष्य को आगे बढ़ाने के लिए निर्देश मांगे। देवियों ने उसे बताया कि उसका लक्ष्य पृथ्वी पर प्रकट होना और धर्म या धार्मिकता को कायम रखते हुए अपने भक्तों का कल्याण करना।
उन्होंने दिव्य लड़की से रत्नाकर के घर में मानव जन्म लेने और फिर पवित्रता और तपस्या का जीवन जीने के लिए कहा, ताकि अपनी चेतना को भगवान के स्तर तक बढ़ाया जा सके। उन्होंने उससे यह भी कहा कि एक बार जब वह चेतना के उस स्तर को प्राप्त कर लेगी, तो वह स्वचालित रूप से भगवान विष्णु में विलीन हो जाएगी और एकाकार हो जाएगी।
तदनुसार, लड़की ने एक सुंदर छोटी बच्ची के रूप में जन्म लिया। उनमें ज्ञान के प्रति एक अतृप्त प्यास थी और उन्होंने आध्यात्मिकता के प्रति गहरा झुकाव और आंतरिक आत्म के ज्ञान की खोज प्रदर्शित की। वह गहरे ध्यान में चली जाती थी और घंटों तक उसी अवस्था में रहती थी। फिर उसने सभी सांसारिक सुखों को त्यागने और गंभीर तपस्या करने के लिए जंगल में जाने का फैसला किया। यहीं पर उनकी मुलाकात भगवान राम से हुई और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया।
वह राम के साथ एकाकार होना चाहती थी, जैसा कि उसका लक्ष्य था। हालाँकि, राम ने यह जानते हुए कि यह उचित समय नहीं है, उनसे वादा किया कि वह अपने वनवास की समाप्ति के बाद उनसे दोबारा मिलेंगे। उसने उससे कहा कि अगर वह उसे उस समय पहचान लेगी तो वह उसकी इच्छा पूरी कर देगा।
राम ने अपना वचन निभाया और रावण के खिलाफ युद्ध जीतने के बाद उनसे मिलने गए। वह एक बूढ़े व्यक्ति के भेष में उसके पास आया, जिसे वैष्णवी पहचान नहीं सकी। जब राम ने अपना असली रूप प्रकट किया तो वह पूरी तरह से व्याकुल हो गयी। रमा ने हँसते हुए उससे कहा कि अभी उनके एक-दूसरे के साथ रहने का समय नहीं आया है। उन्होंने उसे यह भी आश्वासन दिया कि वे कलियुग के दौरान एकजुट होंगे, और उसे त्रिकुटा पहाड़ियों की तलहटी में अपना आश्रम स्थापित करने और गरीबों और निराश्रितों के उत्थान के लिए काम करने के लिए कहा।माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?
माँ वैष्णवी का आश्रम
राम के आशीर्वाद से लोगों को वैष्णवी की महिमा का पता चला और उनके आश्रम की बात दूर-दूर तक फैल गई। जल्द ही, भक्त और अनुयायी उनके दर्शन पाने के लिए उनके आश्रम में आने लगे।
वैष्णो देवी के एक भक्त श्रीधर ने एक भंडारे (सामुदायिक भोजन) का आयोजन किया जिसमें वैष्णो देवी की इच्छा के अनुसार पूरे गांव और महायोगी गुरु गोरक्षनाथजी को उनके सभी अनुयायियों के साथ आमंत्रित किया गया था। गुरु गोरक्षनाथ, भैरवनाथ सहित 300 से अधिक शिष्यों के साथ इस भंडारे में आये। दिव्य माँ की शक्ति देखकर भैरवनाथ आश्चर्यचकित हो गया। वह उसकी शक्तियों का परीक्षण करना चाहता था। इसके लिए उन्होंने गुरु गोरक्षनाथजी से अनुमति मांगी। गुरु गोरक्षनाथ ने भैरवनाथ से कहा कि उन्होंने इसकी अनुशंसा नहीं की है लेकिन यदि वह अभी भी वैष्णो देवी की शक्तियों का परीक्षण करना चाहते हैं, तो वे आगे बढ़ सकते हैं।
इसके बाद भैरवनाथ ने वैष्णो देवी को पकड़ने का प्रयास किया लेकिन उन्होंने उसका मुकाबला किया और फिर वहां से भागने का फैसला किया। वह अपनी तपस्या फिर से शुरू करने के लिए पहाड़ों में भाग गई। हालाँकि, भैरों नाथ ने वहाँ भी उसका पीछा करना जारी रखा।
पहाड़ों के रास्ते में, वैष्णवी ने बाणगंगा, चरण पादुका और अर्ध्क्वारी में कई पड़ाव लिए। अंततः वह उस गुफा तक पहुँची जहाँ उसने अपनी तपस्या जारी रखने का इरादा किया था। उसकी नाराजगी के कारण, भैरों नाथ भी उसके पीछे-पीछे वहां पहुंच गया। अंत में, सारा धैर्य खोकर, उसने अपने उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए उसे मारने का फैसला किया।
गुफा के मुहाने पर आकर माँ वैष्णो ने उसका सिर काट दिया। भैरो नाथ माँ वैष्णो के चरणों में मृत पड़ा था, उसका कटा हुआ सिर जोर से उड़कर दूर पहाड़ी की चोटी पर गिर रहा था। उनकी मृत्यु के बाद उनकी आत्मा को अपनी मूर्खता का एहसास हुआ, वह देवी के पास पहुंची और उनसे अपने दुष्कर्मों के लिए क्षमा करने की प्रार्थना की। दयालु देवी को तुरंत उस पर दया आ गई और उसने उसे वरदान दिया कि उसके मंदिर में आने वाले प्रत्येक भक्त को अपनी तीर्थयात्रा पूरी करने के लिए भैरों के दर्शन भी करने होंगे।
तब देवी ने अपने ध्यान को निर्बाध रूप से जारी रखने के लिए अपने मानव रूप को त्यागने और एक चट्टान का रूप लेने का फैसला किया। इसलिए, वैष्णवी अपने भक्तों को साढ़े पांच फीट ऊंची चट्टान के रूप में दर्शन देती हैं, जिसके शीर्ष पर तीन पिंडियां या सिर हैं। वह गुफा जहां उन्होंने स्वयं को रूपांतरित किया था, अब श्री माता वैष्णो देवी का पवित्र मंदिर है और पिंडियां गर्भगृह का निर्माण करती हैं।
पंडित श्रीधर की कथा
वैष्णो देवी से जुड़ी और भी कई किंवदंतियाँ हैं। उनमें से एक का संबंध है कि पांडवों ने पवित्र गुफा का दौरा किया और वहां एक मंदिर बनाया। उसके बाद, भयानक राक्षस राजा हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद ने मंदिर की यात्रा की। हालाँकि, सबसे प्रसिद्ध किंवदंती एक ब्राह्मण श्रीधर की है, जो त्रिकुटा पर्वत की तलहटी में स्थित हंसाली नामक गाँव में रहते थे। यह गांव वर्तमान कटरा शहर के निकट स्थित है।
श्रीधर देवी शक्ति के कट्टर भक्त थे। वह बहुत गरीब था और मुश्किल से एक वक्त का भोजन जुटा पाता था। हालाँकि, वह खुश और संतुष्ट था, यह जानकर कि देवी उसे किसी भी नुकसान से बचाने के लिए हमेशा मौजूद थी। एक रात देवी वैष्णवी एक युवा लड़की या कन्या का रूप लेकर उनके सपने में प्रकट हुईं।
इस दर्शन से अभिभूत और अपने इष्ट देवता के प्रति अत्यंत आभारी श्रीधर ने गांव में एक भव्य भंडारा समारोह आयोजित करने का फैसला किया, साथ ही आसपास के सभी गांवों में रहने वाले लोगों को भी इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। उस दिन से, उन्होंने ग्रामीणों के घरों का दौरा करना शुरू कर दिया, और उनसे चावल, सब्जियां और अन्य प्रावधान दान करने का अनुरोध किया जो इस भंडारे के संचालन के लिए आवश्यक होंगे। जहाँ कुछ लोगों ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया, वहीं अधिकांश ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। कुछ लोगों ने उन्हें भंडारा आयोजित करने की योजना बनाने के लिए ताना भी मारा, जबकि वह खुद को खाना भी नहीं खिला पा रहे थे। जैसे-जैसे नियोजित भंडारे का दिन नजदीक आता गया, श्रीधर को चिंता होने लगी कि वह इतने सारे मेहमानों को कैसे खाना खिलाएगा।
माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?
भंडारे की पूर्वसंध्या पर श्रीधर को पलक तक नींद नहीं आयी। वह अगले दिन अपने मेहमानों को खिलाने के लिए अधिक भोजन और प्रावधान इकट्ठा करने के तरीकों और साधनों के बारे में सोचता रहा, लेकिन किसी भी समाधान पर नहीं पहुंच सका। अंत में, उसने देवी की इच्छा के सामने आत्मसमर्पण करने का निर्णय लिया और अगले दिन का सामना करने का फैसला किया जब भी यह उसके सामने आया।
अगली सुबह, श्रीधर ने अपनी झोपड़ी के बाहर पूजा (प्रार्थना सत्र) की तैयारी की। उनके मेहमानों का मध्य सुबह से ही आना शुरू हो गया। उसे इतने ध्यान से प्रार्थना करते हुए देखकर, उन्होंने उसे परेशान न करने का फैसला किया और जहां भी उन्हें बैठने की जगह मिली, आराम से बैठ गए। आश्चर्यजनक रूप से, उन्होंने पाया कि वे सभी श्रीधर की छोटी सी झोपड़ी के अंदर आराम से बैठ सकते थे। झोपड़ी वास्तव में छोटी थी और भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। फिर भी, ऐसा लग रहा था कि झोपड़ी के अंदर बहुत सारे लोगों को समायोजित करने के लिए पर्याप्त जगह थी।
अपनी पूजा समाप्त करने के बाद, श्रीधर ने अपनी आँखें खोलीं और भंडारे के लिए आए मेहमानों की चौंका देने वाली संख्या को देखा। वह अभी यह सोचना शुरू ही कर रहा था कि वह अपने मेहमानों को कैसे बताएगा कि वह उन्हें खाना नहीं खिला पाएगा, तभी उसने देवी वैष्णवी को अपनी छोटी सी झोपड़ी से बाहर निकलते देखा। देवी ने यह सुनिश्चित किया था कि सभी को उनकी पसंद का भोजन मिले और भोजन के अंत तक वे सभी खुश हों। भंडारा बहुत सफल रहा और उसके मेहमान पूरी तरह संतुष्ट होकर वहां से चले गए।
वैष्णो देवी तीर्थ की स्थापना
जब सभी ने अपना भोजन समाप्त कर लिया और भंडारा स्थल से चले गए, तो श्रीधर ने उस दिन की रहस्यमय घटनाओं का स्पष्टीकरण खोजने की कोशिश की। वह उस रहस्य को भी उजागर करना चाहता था जो वैष्णवी थी। उन्होंने देवी से स्वयं को प्रकट करने के लिए प्रार्थना की, लेकिन उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने बार-बार उसका नाम पुकारने की कोशिश की, लेकिन वह उसे दर्शन देने के लिए कभी नहीं आई। परेशान होकर और अंदर से खालीपन महसूस करते हुए, उसने उसे ढूंढने के अपने प्रयास छोड़ दिए।
एक रात, वैष्णवी उसके सपने में आई और उसे बताया कि वह वैष्णो देवी है, और उसे अपनी गुफा का स्थान भी दिखाया। प्रसन्न श्रीधर गुफा की खोज में निकल पड़े। हर बार जब वह अपना रास्ता भूल जाता था, तो सपने की दृष्टि उसके पास वापस आ जाती थी, और उसे उसी दिशा की सटीक दिशा बताती थी। अंततः उसे अपनी मंजिल मिल गई और वह अपने सामने अपने पसंदीदा देवता को देखकर अभिभूत हो गया। कहानी का एक संस्करण बताता है कि तीनों महादेवियाँ उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें तीन पिंडियों से भी परिचित कराया।माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?
माता वैष्णों किसकी पुत्री थी?Mata Vaishno Devi Katra/ माता वैष्णो देवी की चढ़ाई कितनी है?
देवता ने उसे अपनी मूर्ति की पूजा करने का अधिकार दिया, साथ ही उससे अपने मंदिर की महिमा फैलाने के लिए भी कहा। इसके अलावा, उसने उसे वरदान दिया कि उसके चार बेटे होंगे। पंडित श्रीधर ने तब पूरी तरह से उनकी इच्छा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और अपना शेष जीवन देवी की पूजा में बिताने का फैसला किया। इस घटना की खबर चारों ओर फैल गई और जल्द ही, भक्त शक्तिशाली देवी, वैष्णो देवी की पूजा करने के लिए इस पवित्र गुफा में आने लगे।
दिव्य माँ की पुकार
माता वैष्णो देवी के अनुयायियों का मानना है कि कोई भी उनके मंदिर में तब तक नहीं जा सकता जब तक कि वह उन्हें “बुलावा” जारी नहीं करती, यानी जब तक वह उन्हें अपने मंदिर में आने के लिए नहीं बुलाती। जाति, पंथ और सामाजिक स्थिति के बावजूद, यह कहा जाता है कि वैष्णो देवी के पवित्र मंदिर की यात्रा तभी सफल हो सकती है जब वह चाहे और भक्त को अपने दर्शन से आशीर्वाद दे। वास्तव में, ऐसा कहा जाता है कि कई भक्तों को इसका प्रत्यक्ष अनुभव होता है। यह विपरीत भी सत्य कहा गया है। यदि देवता का बुलावा आता है, तो जिन लोगों ने यात्रा की योजना नहीं बनाई थी, वे भी माता के मंदिर में उनके दर्शन करने अवश्य जाते हैं।
इसलिए, जो लोग उनके मंदिर में जाने के इच्छुक हैं, वे अपने दिल में एक उत्कट कामना करते हैं और उनसे अपनी कृपा बरसाने और उन्हें दर्शन देने की प्रार्थना करते हैं। फिर, वे उसकी इच्छा के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं और यह निर्णय उस पर छोड़ देते हैं कि उसके पवित्र निवास की यात्रा के लिए जाने का सही समय कब होगा।
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Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
नवग्रह हिंदू खगोल विज्ञान के अंतर्गत आते हैं और हिंदू खगोलीय क्षेत्र में एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं। हिंदू खगोल विज्ञान, जिसकी उत्पत्ति वेदों के समय से हुई है, नौ ग्रहों की स्थिति और दुनिया और एक व्यक्ति पर उनके प्रभाव से संबंधित है। हिंदू ज्योतिष के अनुसार, किसी व्यक्ति के जन्म के समय ग्रहों की स्थिति उसके जीवन की संभावनाओं को निर्धारित करती है।
नौ ग्रहों को सामूहिक रूप से नवग्रह कहा जाता है। किसी भी बाधा, बाधा या दुर्भाग्य को दूर करने के लिए हिंदुओं द्वारा इन 9 ग्रहों की पूजा की जाती है। वे अधिकतर सभी मंदिरों में पाए जाते हैं और आस्थावान विश्वासी किसी अन्य देवता से प्रार्थना करने से पहले नवग्रहों की प्रार्थना करते हैं।
उन नौ ग्रहों में से सात का नाम सौर मंडल के ग्रहों के नाम पर रखा गया है और अन्य दो वास्तव में राक्षस हैं जो चाल से इस समूह में अपना रास्ता बनाने में कामयाब रहे – राहु और केतु। ग्रह मंडल में उनके स्थान के आधार पर, उन्हें शुभ या अशुभ माना जाता है। जबकि नवग्रह हर मंदिर में पाए जाते हैं, कुछ मंदिर ऐसे भी हैं जो पूरी तरह से उन्हें समर्पित हैं। ऐसा ही एक मंदिर है उज्जैन के बाहरी इलाके में स्थित नवग्रह मंदिर।
नवग्रहों का प्रभाव -हिन्दू ज्योतिष के अनुसार सकारात्मक या नकारात्मक।
हिंदू ज्योतिष में नवग्रह व्यक्ति की खुशी, सफलता और सर्वांगीण समृद्धि को प्रभावित करते हैं। इन नौ ग्रहों में से प्रत्येक का अच्छा और बुरा, सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव जन्म कुंडली पर ग्रहों की विशिष्ट स्थिति आदि जैसे कारकों का परिणाम है। सत्व स्वभाव वाले ग्रह बृहस्पति, सूर्य और चंद्रमा हैं। रजस प्रकृति वाले ग्रह शुक्र और बुध हैं जबकि तमस प्रकृति वाले ग्रह मंगल, शनि, राहु और केतु हैं।
वैदिक ज्योतिष में इन नौ ग्रहों को विशिष्ट शक्तियों, प्रकृति और विशिष्ट गुणों वाले देवताओं के रूप में माना जाता है, जो इस पर निर्भर करता है कि इनमें से प्रत्येक ग्रह लोगों को क्या प्रदान करता है – सकारात्मक या नकारात्मक।
Navagrah Shanti upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
सूर्य
(सूर्य): अन्य ग्रहों के समूह में, उसे आम तौर पर पूर्व की ओर मुख करके, केंद्र में खड़ा हुआ दिखाया जाता है। उसके चारों ओर बाकी सभी ग्रह अलग-अलग दिशाओं में हैं, लेकिन एक-दूसरे की ओर नहीं। वह एक पहिये वाले रथ पर सवार होते हैं जिसे सात घोड़े खींचते हैं जो सफेद रोशनी के सात रंगों और सप्ताह के सात दिनों का प्रतीक है। उन्हें रवि के नाम से भी जाना जाता है।
चंद्रमा
(चंद्र): छवियों में, उन्हें कभी भी पूर्ण व्यक्ति के रूप में चित्रित नहीं किया गया है। केवल उनके शरीर का ऊपरी हिस्सा दिखाया गया है, जिसके दोनों हाथों में कमल है और वह 10 घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर सवार हैं। इन्हें सोम के नाम से भी जाना जाता है।
मंगल
(मंगला): मंगला एक क्रूर देवता है जिसके दो हथियार हैं और दो मुद्राएं हैं। उसका परिवहन एक राम है.
बुध
(बुद्ध): बुध के चार हाथ हैं और वह रथ या सिंह पर सवार होते हैं। जिसमें से उनके तीन हाथों में तलवार, ढाल और गदा है और चौथा हाथ मुद्रा में है।
बृहस्पति (बृहस्पति): वह देवताओं के शिक्षक हैं और ऋग्वेद में उनकी प्रशंसा की गई है। उन्हें 8 घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर बैठे हुए दिखाया गया है, जिनमें से प्रत्येक ज्ञान की एक शाखा दिखा रहा है।
शुक्र (शुक्र): शुक्र राक्षसों के गुरु हैं। उनके चार हाथ हैं और वे 8 घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर चलते हैं। उनके तीन हाथों में एक छड़ी, एक माला, एक सोने का बर्तन है जबकि चौथा हाथ मुद्रा में है।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
शनि
(शनि): शनि एक देवता हैं जो अपनी ग्रह स्थिति से भाग्य बनाते या बिगाड़ते हैं जिसके लिए लोग उनसे डरते हैं। उन्हें चार हाथों से रथ, भैंस या गिद्ध पर सवार दिखाया गया है। उनके तीन हाथ हैं जिनमें वह एक तीर, एक धनुष और एक भाला रखते हैं जबकि उनका दूसरा हाथ मुद्रा में है।
राहु:
वह कुछ हद तक बुद्ध (बुध) जैसा दिखता है लेकिन दोनों देवताओं के मूल स्वभाव में भिन्नता है। जिस तरह बुद्ध सफेद शेर की सवारी करते हैं, उसी तरह उन्हें काले शेर की सवारी करते हुए दिखाया गया है। लेकिन बुद्ध की तरह, वह सभी समान हथियार रखता है।
केतु
: संस्कृत में केतु का अर्थ धूमकेतु होता है। कहा जाता है कि उनके शरीर में एक सांप की पूंछ है और उनका स्वभाव धूमकेतु से काफी मेल खाता है। तस्वीरों में उन्हें गिद्ध की सवारी करते हुए और गदा पकड़े हुए दिखाया गया है।
सभी नवग्रहों में राशि चक्र में स्थिर तारों की पृष्ठभूमि के संबंध में सापेक्ष गति होती है। इसमें ग्रह शामिल हैं: मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि, सूर्य, चंद्रमा, साथ ही आकाश में स्थिति, राहु (उत्तर या आरोही चंद्र नोड) और केतु (दक्षिण या अवरोही चंद्र नोड)।
कुछ के अनुसार, ग्रह “प्रभाव के चिह्नक” हैं जो जीवित प्राणियों के व्यवहार पर कर्म प्रभाव को इंगित करते हैं। वे स्वयं प्रेरक तत्व नहीं हैं[2] लेकिन उनकी तुलना यातायात संकेतों से की जा सकती है।
ज्योतिषीय ग्रंथ प्रश्न मार्ग के अनुसार,
कई अन्य आध्यात्मिक संस्थाएं हैं जिन्हें ग्रह या आत्माएं कहा जाता है। कहा जाता है कि सभी (नवग्रहों को छोड़कर) भगवान शिव या रुद्र के क्रोध से पैदा हुए हैं। अधिकांश ग्रह आमतौर पर प्रकृति में हानिकारक होते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो अच्छे हो सकते हैं।[3] द पुराणिक इनसाइक्लोपीडिया नामक पुस्तक में ‘ग्रह पिंड’ शीर्षक के तहत ऐसे ग्रहों (आत्माओं या आध्यात्मिक संस्थाओं आदि) की एक सूची दी गई है, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे बच्चों को पीड़ित करते हैं, आदि। इसके अलावा एक ही पुस्तक में विभिन्न स्थानों पर नाम भी दिए गए हैं। आत्माओं (ग्रहों) की जानकारी दी गई है, जैसे ‘स्खंड ग्रह’ जिसके बारे में कहा जाता है कि यह गर्भपात का कारण बनता है।
Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
अंतर्वस्तु
ज्योतिष
ज्योतिषियों का दावा है कि ग्रह पृथ्वी से जुड़े प्राणियों के आभामंडल (ऊर्जा निकाय) और दिमाग को प्रभावित करते हैं। प्रत्येक ग्रह में एक विशिष्ट ऊर्जा गुणवत्ता होती है, जिसका वर्णन उसके शास्त्रीय और ज्योतिषीय संदर्भों के माध्यम से रूपक रूप में किया जाता है। जब मनुष्य किसी जन्म में अपनी पहली सांस लेते हैं तो ग्रह की ऊर्जाएं एक विशिष्ट तरीके से मनुष्यों की व्यक्तिगत आभा से जुड़ जाती हैं। ये ऊर्जा संबंध पृथ्वी के मूल निवासियों के साथ तब तक बने रहते हैं जब तक उनका वर्तमान शरीर जीवित रहता है।[5] “नौ ग्रह सार्वभौमिक, आदर्श ऊर्जा के ट्रांसमीटर हैं। प्रत्येक ग्रह के गुण स्थूल ब्रह्मांड और सूक्ष्म ब्रह्मांड दोनों में ध्रुवों के समग्र संतुलन को बनाए रखने में मदद करते हैं – जैसा कि ऊपर, इसलिए नीचे…”[6]
मनुष्य संयम के माध्यम से उस ग्रह या उसके इष्टदेव के साथ किसी विशिष्ट ग्रह की चुनी हुई ऊर्जा के साथ खुद को जोड़ने में भी सक्षम है। विशिष्ट देवताओं की पूजा के प्रभाव किसी उपासक के जन्म के समय उनकी सापेक्ष ऊर्जाओं के लेआउट के अनुसार प्रकट होते हैं, विशेष रूप से संबंधित ग्रह द्वारा ग्रहण किए गए भावों पर निर्भर करता है। “हमें हमेशा प्राप्त होने वाली ब्रह्मांडीय ऊर्जा में विभिन्न खगोलीय पिंडों से आने वाली विभिन्न ऊर्जाएँ शामिल होती हैं।” “जब हम बार-बार किसी मंत्र का उच्चारण करते हैं तो हम एक विशेष आवृत्ति पर ध्यान केंद्रित कर रहे होते हैं और यह आवृत्ति ब्रह्मांडीय ऊर्जा के साथ संपर्क स्थापित करती है और इसे हमारे शरीर और परिवेश में खींच लेती है।”
ग्रहों, तारों और अन्य खगोलीय पिंडों के जीवित ऊर्जा निकाय होने का विचार जो ब्रह्मांड के अन्य प्राणियों को प्रभावित करते हैं, कई प्राचीन संस्कृतियों में क्रॉस-रेफरेंस हैं और कई आधुनिक काल्पनिक कार्यों की पृष्ठभूमि बन गए हैं
सूर्य
मुख्य लेख: सूर्या
सूर्य (देवनागरी: सूर्य, सूर्य) प्रमुख, सौर देवता, आदित्यों में से एक, कश्यप के पुत्र और उनकी पत्नियों में से एक अदिति, [8] इंद्र के, या द्यौस पितर (संस्करणों के आधार पर) हैं। उसके बाल और भुजाएँ सोने की हैं। उनके रथ को सात घोड़े खींचते हैं, जो सात चक्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह “रवि-वर” या रविवार के स्थान पर “रवि” की अध्यक्षता करते हैं।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
हिंदू धार्मिक साहित्य में, सूर्य को विशेष रूप से भगवान के दृश्य रूप के रूप में वर्णित किया गया है जिसे कोई भी हर दिन देख सकता है। इसके अलावा, शैव और वैष्णव अक्सर सूर्य को क्रमशः शिव और विष्णु का एक पहलू मानते हैं। उदाहरण के लिए, वैष्णवों द्वारा सूर्य को सूर्य नारायण कहा जाता है। शैव धर्मशास्त्र में, सूर्य को शिव के आठ रूपों में से एक कहा जाता है, जिन्हें अष्टमूर्ति कहा जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि वह सत्त्वगुण का है और आत्मा, राजा, उच्च पदस्थ व्यक्तियों या पिता का प्रतिनिधित्व करता है।
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, सूर्य की अधिक प्रसिद्ध संतानों में शनि (शनि), यम (मृत्यु के देवता) और कर्ण (महाभारत) प्रसिद्ध हैं।
गायत्री मंत्र या आदित्य हृदय मंत्र (आदित्यहृदयम्) का आह्वान सूर्य देव को प्रसन्न करने के लिए जाना जाता है।
सूर्य से संबंधित अनाज साबुत गेहूं है और सूर्य से संबंधित संख्या 1 है।
चंद्रा
मुख्य लेख: चंद्रा
चंद्र (देवनागरी: चंद्र) एक चंद्र देवता हैं। चंद्र (चंद्रमा) को सोम के नाम से भी जाना जाता है और इसकी पहचान वैदिक चंद्र देवता सोम से की जाती है। उन्हें युवा, सुंदर, गोरा बताया गया है; वह दो भुजाओं वाला था और उसके हाथों में गदा और कमल था।[9] वह हर रात अपने रथ (चंद्रमा) पर दस सफेद घोड़ों या एक मृग द्वारा खींचकर आकाश में भ्रमण करता है। वह ओस से जुड़ा हुआ है, और इस तरह, उर्वरता के देवताओं में से एक है। उन्हें निशादिपति (निशा=रात; आदिपति=भगवान) और क्षुपरक (रात को प्रकाशित करने वाला) भी कहा जाता है।[10] वह सोम के रूप में, सोमवार या सोमवार की अध्यक्षता करते हैं। वह सत्त्वगुण का है और मन, रानी या माँ का प्रतिनिधित्व करता है।
मंगला
मुख्य लेख: मंगला मंगला (देवनागरी: मंगल) लाल ग्रह मंगल के देवता हैं। मंगल को संस्कृत में अंगारक (‘वह जिसका रंग लाल हो’) या भौम (‘भूमि का पुत्र’) भी कहा जाता है। वह युद्ध के देवता हैं और ब्रह्मचारी हैं। उन्हें पृथ्वी देवी, पृथ्वी या भूमि का पुत्र माना जाता है। वह मेष और वृश्चिक राशियों के स्वामी और गुप्त विज्ञान (रुचक महापुरुष योग) के शिक्षक हैं। वह स्वभाव से तमस गुण का है और ऊर्जावान कार्रवाई, आत्मविश्वास और अहंकार का प्रतिनिधित्व करता है। वह लाल या ज्वाला रंग में चित्रित, चार भुजाओं वाला, त्रिशूल, गदा, कमल और भाला लिए हुए है। उनका वाहन (पर्वत) एक मेढ़ा है। वह ‘मंगल-वार’ या मंगलवार की अध्यक्षता करते हैं।
एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान मंगलनाथ (उज्जैन, मध्य प्रदेश, भारत में) है। जो लोग अपनी कुंडली में मंगल ग्रह से संबंधित परेशानियों से पीड़ित होते हैं वे मंगलवार के दिन वहां जाते हैं। मंगल ग्रह की पूजा और संतुष्टि करने से भक्तों को मंगल देवता का आशीर्वाद और दया प्राप्त होती है। भारत में मंगल देवता के केवल दो मंदिर हैं जिनमें से एक अमलनेर (महाराष्ट्र) में है।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
बुद्ध
मुख्य- लेख: बुद्ध
बुद्ध (देवनागरी: बुध) बुध ग्रह के देवता हैं और तारा (तारक) के साथ चंद्र के पुत्र हैं। वह व्यापार के देवता और व्यापारियों के रक्षक भी हैं। वह राजस गुण का है और संचार का प्रतिनिधित्व करता है।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
उन्हें सौम्य, वाक्पटु और हरे रंग के रूप में दर्शाया गया है। रामघुर मंदिर में उन्हें एक पंख वाले शेर की सवारी करते हुए, एक कैंची, एक गदा और एक ढाल पकड़े हुए दर्शाया गया है। अन्य उदाहरणों में, वह राजदंड और कमल धारण करता है और कालीन या चील या शेरों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर सवार होता है।
बुद्ध ‘बुध-वार’ या बुधवार की अध्यक्षता करते हैं। आधुनिक हिंदी, तेलुगु, बंगाली, मराठी, कन्नड़ और गुजराती में बुधवार को बुधवार कहा जाता है; तमिल और मलयालम में इसे बुधन कहा जाता है।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
बृहस्पति
मुख्य लेख: बृहस्पति
बृहस्पति (देवनागरी: बृहस्पति) देवताओं के गुरु हैं, धर्मपरायणता और धर्म के प्रतीक हैं, प्रार्थनाओं और बलिदानों के मुख्य प्रदाता हैं, जिन्हें देवताओं के पुरोहित के रूप में दर्शाया जाता है जिनके साथ वह मनुष्यों के लिए प्रार्थना करते हैं। वह बृहस्पति ग्रह के स्वामी हैं। वह सत्त्वगुण का है और ज्ञान और शिक्षण का प्रतिनिधित्व करता है। उन्हें अक्सर “गुरु” के रूप में जाना जाता है।
हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, वह देवताओं के गुरु और दानवों के गुरु शुक्राचार्य के कट्टर शत्रु हैं। उन्हें ज्ञान और वाक्पटुता के देवता, गुरु के रूप में भी जाना जाता है, जिनके लिए विभिन्न कार्यों का श्रेय दिया जाता है, जैसे कि “नास्तिक” बार्हस्पत्य सूत्र।
उनका तत्व या तत्व आकाश या ईथर है, और उनकी दिशा उत्तर-पूर्व है। उनका वर्णन पीले या सुनहरे रंग का है और उनके हाथ में एक छड़ी, एक कमल और उनकी माला है। वह ‘गुरु-वर’, बृहस्पतिवर या गुरुवार की अध्यक्षता करते हैं। [11]
शुक्र
मुख्य लेख: शुक्र
शुक्र ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है.
शुक्र, संस्कृत में “स्पष्ट, शुद्ध” या “चमक, स्पष्टता” के लिए, भृगु और उशना के पुत्र और दैत्यों के गुरु और असुरों के गुरु का नाम है, जो शुक्र ग्रह से पहचाना जाता है (सम्मानजनक, शुक्राचार के साथ) – य शुक्राचार्य). वह ‘शुक्र-वार’ या शुक्रवार की अध्यक्षता करते हैं। वह स्वभाव से राजस है और धन, आनंद और प्रजनन का प्रतिनिधित्व करता है।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
वह श्वेत वर्ण, मध्यम आयु और प्रसन्न चेहरे वाला है। उन्हें ऊँट, घोड़े या मगरमच्छ पर सवार विभिन्न प्रकार से वर्णित किया गया है। उनके पास एक छड़ी, माला और एक कमल और कभी-कभी एक धनुष और तीर होता है। [12]
ज्योतिष में, एक दशा या ग्रह काल होता है जिसे शुक्र दशा के नाम से जाना जाता है जो किसी व्यक्ति की कुंडली में 20 वर्षों तक सक्रिय रहता है। माना जाता है कि यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में शुक्र अच्छी स्थिति में है और साथ ही उसकी कुंडली में शुक्र एक महत्वपूर्ण लाभकारी ग्रह है तो यह दशा व्यक्ति को अधिक धन, भाग्य और विलासिता प्रदान करती है।Navagrah Shanti Upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
राहु
मुख्य लेख: राहु
राहु (देवनागरी: राहु) आरोही/उत्तर चंद्र नोड का देवता है। हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, राहु राक्षसी सांप का सिर है जो सूर्य या चंद्रमा को निगल जाता है, जिससे ग्रहण होता है। कला में उन्हें आठ काले घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर सवार बिना शरीर वाले ड्रैगन के रूप में चित्रित किया गया है। वह एक तमस असुर है जो अपने नियंत्रण वाले किसी भी व्यक्ति के जीवन के किसी भी क्षेत्र को अराजकता में डुबाने की पूरी कोशिश करता है। राहु काल को अशुभ माना जाता है।
पौराणिक कथा के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान, असुर राहु ने कुछ दिव्य अमृत पी लिया था। लेकिन इससे पहले कि अमृत उसके गले से गुजर पाता, मोहिनी (विष्णु का महिला अवतार) ने उसका सिर काट दिया। हालाँकि, सिर अमर रहा और राहु कहलाया, जबकि शेष शरीर केतु बन गया। ऐसा माना जाता है कि यह अमर सिर कभी-कभी सूर्य या चंद्रमा को निगल जाता है, जिससे ग्रहण होते हैं। फिर, सूर्य या चंद्रमा गर्दन के छिद्र से होकर गुजरता है, जिससे ग्रहण समाप्त हो जाता है।Navagrah Shanti upay Mantra Sahit/नवग्रह को शांत करने के लिए क्या करें? नवग्रह पीड़ा निवारण विधि?
केतु
मुख्य लेख: केतु (पौराणिक कथा)
केतु (देवनागरी: केतु) अवरोही/दक्षिण चंद्र नोड का स्वामी है। केतु को आम तौर पर “छाया” ग्रह कहा जाता है। उन्हें राक्षस साँप की पूँछ माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसका मानव जीवन और पूरी सृष्टि पर जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में यह किसी को प्रसिद्धि की चरम सीमा तक पहुंचाने में मदद करता है। वह स्वभाव से तमस है और अलौकिक प्रभावों का प्रतिनिधित्व करता है।
खगोलीय दृष्टि से, केतु और राहु आकाशीय गोले पर चलते समय सूर्य और चंद्रमा के पथों के प्रतिच्छेदन बिंदुओं को दर्शाते हैं। इसलिए, राहु और केतु को क्रमशः उत्तर और दक्षिण चंद्र नोड कहा जाता है। यह तथ्य कि ग्रहण तब घटित होता है जब सूर्य और चंद्रमा इनमें से किसी एक बिंदु पर होते हैं, सूर्य और चंद्रमा के निगलने की कहानी को जन्म देता है|
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ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे :- इस मूल मन्त्र से हाथ धोकर करन्यास करें।
करन्यास:
ॐ ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः । (दोनों हाथों की तर्जनी अँगुलियों से अंगूठे के उद्गम स्थल को स्पर्श करें )
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । ( दोनों अंगूठों से तर्जनी अँगुलियों का स्पर्श करें )
ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नमः । ( दोनों अंगूठों से मध्यमा अँगुलियों का स्पर्श करें )
ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नमः । ( दोनों अंगूठों से अनामिका अँगुलियों का स्पर्श करें )
ॐ विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ( दोनों अंगूठों से कनिष्ट/ कानी / छोटी अँगुलियों का स्पर्श करें )
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । ( हथेलियों और उनके पृष्ठ भाग का स्पर्श )
३. हृदयादिन्यास :
ॐ ऐं हृदयाय नमः । (दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों से ह्रदय का स्पर्श )
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा । (शिर का स्पर्श )
ॐ क्लीं शिखायै वषट् । (शिखा का स्पर्श)
ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम् । ( दाहिने हाथ की अँगुलियों से बाएं कंधे एवं बाएं हाथ की अँगुलियों से दायें कंधे का स्पर्श)
ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् । ( दाहिने हाथ की उँगलियों के अग्रभाग से दोनों नेत्रों और मस्तक में भौंहों के मध्यभाग का स्पर्श)
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट । ( यह मन्त्र पढ़कर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से बायीं ओर से पीछे ले जाकर दाहिनी ओर से आगे लाकर तर्जनी और मध्यमा अँगुलियों से बाएं हाथ की हथेली
पर ताली बजाएं।
वर्णन्यास :
**इस न्यास को करने से साधक सभी प्रकार के रोगों से मुक्त हो जाता है**
संपूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ एवं विधि /Durga Saptshati Paath/दुर्गा सप्तशती महात्म्य
अन्य न्यास :- यदि साधक चाहे तो इतने ही न्यास करके नवार्ण मन्त्र का जप आरम्भ करे किन्तु यदि उसे और भी न्यास करने हों तो वह भी करके ही मूल मन्त्र जप आरम्भ करे।
यथा :-
सारस्वतन्यास :
**इस न्यास को करने से साधक की जड़ता समाप्त हो जाती है**
८. षड्देविन्यास
**इस न्यास को करने से वृद्धावस्था एवं मृत्यु भय से मुक्ति मिलती है**
कमलाकुशमण्डिता नंदजा पूर्वांग मे पातु ।
खडगपात्रकरा रक्तदन्तिका दक्षिणाङ्ग मे पातु ।
पुष्पपल्लवसंयुता शाकम्भरी प्रष्ठांग मे पातु ।
धनुर्वाणकरा दुर्गा वामांग मे पातु ।
शिरःपात्रकराभीमा मस्तकादि चरणान्तं मे पातु ।
चित्रकान्तिभूत भ्रामरी पादादि मस्तकान्तम् मे पातु ।
ब्रह्मादिन्यास
**इस न्यास को करने से साधक के सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं**
ॐ सनातनः ब्रह्मा पाददीनाभिपर्यन्त मा पातु ।
ॐ जनार्दनः नाभिर्विशुद्धिपर्यन्तं मा पातु ।
ॐ रुद्रस्त्रिलोचनः विशुद्धेर्ब्रह्मरन्ध्रांतं मा पातु ।
ॐ हंसः पदद्वयं मा पातु ।
ॐ वैनतेयः करद्वयं मा पातु ।
ॐ वृषभः चक्षुषी मा पातु ।
ॐ गजाननः सर्वाङ्गानि मा पातु ।
ॐ आनंदमयो हरिः परापरौ देहभागौ मा पातु ।
महालक्ष्मयादिन्यास :
**इस न्यास को करने से धन-धान्य के साथ-साथ सद्गति की प्राप्ति होती है **
ॐ अष्टादशभुजान्विता महालक्ष्मी मध्यं मे पातु ।
ॐ अष्टभुजोर्विता सरस्वती उर्ध्वे मे पातु ।
ॐ दशभुजसमन्विता महाकाली अधः मे पातु ।
ॐ सिंहो हस्त द्वयं मे पातु ।
ॐ परंहंसो अक्षियुग्मं मे पातु ।
ॐ दिव्यं महिषमारूढो यमः पादयुग्मं मे पातु ।
ॐ चण्डिकायुक्तो महेशः सर्वाङ्गानी मे पातु ।
बीजमन्त्रन्यास :
ॐ ऐं हृदयाय नमः । (दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों से ह्रदय का स्पर्श )
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ।(शिर का स्पर्श )
ॐ क्लीं शिखायै वषट् । (शिखा का स्पर्श)
ॐ चामुण्डायै कवचाय हुम् । ( दाहिने हाथ की अँगुलियों से बाएं कंधे एवं बाएं हाथ की अँगुलियों से दायें कंधे का स्पर्श)
ॐ विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् । ( दाहिने हाथ की उँगलियों के अग्रभाग से दोनों नेत्रों और मस्तक में भौंहों के मध्यभाग का स्पर्श)
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट । ( यह मन्त्र पढ़कर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से बायीं ओर से पीछे ले जाकर दाहिनी ओर से आगे लाकर तर्जनी और मध्यमा अँगुलियों से बाएं हाथ की हथेली पर ताली बजाएं।
इसके पश्चात मूल मन्त्र के १०८ अथवा अधिक अपनी सुविधानुसार जप संपन्न करें।
*****”ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे”*****
।। अथ नवार्ण-मन्त्र जप विधानम् ।। “मन्त्र-महोदधि” व “श्रीदुर्गाकल्पतरु” में मन्त्र का उद्धार इस प्रकार है – ‘अथ नवाक्षरं मन्त्रं वक्ष्ये चण्डी-प्रवृत्तये । वाङ्-माया मदनो दीर्घा लक्ष्मीस्तन्द्री श्रुतीन्दु-युक्। डायै सदृग्-जलं कूर्म-द्वयं झिण्टीश-संयुतं – “ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” ।’ “मन्त्र-महार्णव” में उद्धार में प्रणव का उल्लेख नहीं है, किन्तु स्पष्ट मन्त्र को “ॐ” सहित दिया गया है, जिससे वह नवाक्षर न होकर दशाक्षर हो जाता है । तन्त्र क्रिया व कामना भेद से नवार्ण मन्त्र १२-१३ तरह के होते हैं । सप्तशती में जो मूल मन्त्र है वह नवाक्षर है (ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे) । “ॐ” लगाने से यह दशाक्षरी हो जाता है। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों का मत है कि किसी मन्त्र में प्रारम्भ में प्रणव (ॐ) या नमः लगाने से मन्त्र में नपुंसक प्रभाव आ जाता है, बीजाक्षर प्रधान है । तांत्रिक प्रणव “ह्रीं” है । अतः माला के जप में प्रारम्भ में “ॐ” लगावे तथा जब माला पूरी हो जाये तो माला के अंत में “ॐ” लगाये, यही मंत्र जाग्रति है । दक्षिण भारत में कहीं-कहीं ॐ सहित दशाक्षर मन्त्र महाकाली हेतु दस पाद, दस हस्तादि संबोधन मानकर जप करते हैं । नवार्ण मंत्र षडाम्नाय युक्त है, षडाम्नाय मंत्र होने से सभी चतुर्विध कार्यों में ग्राह्य है । अगर मंत्र सिद्ध नहीं हो रहा हैं, तो “ऐं”, “ह्रीं”, “क्लीं” तथा “चामुण्डायै विच्चे” के पृथक्-पृथक् सवा लाख जप करें फिर नवार्ण का पुरश्चरण करें । विनियोगः- ॐ अस्य श्रीनवार्ण मंत्रस्य ब्रह्म-विष्णु-रुद्रा ऋषयः, गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छन्दांसि, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतयो देवताः, रक्त-दन्तिका-दुर्गा भ्रामर्यो बीजानि, नन्दा शाकम्भरी भीमाः शक्त्यः, अग्नि-वायुसूर्यास्तत्त्वानि, ऋग्-यजुः-सामानि स्वरुपाणि, ऐं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकं, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती स्वरुपा त्रिगुणात्मिका श्री महादुर्गा देव्या प्रीत्यर्थे (यदि श्रीदुर्गा का पाठ कर रहे हो तो आगे लिखा हुआ भी उच्चारित करें) श्री दुर्गासप्तशती पाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्म-विष्णु-रुद्रा ऋषिभ्यो नमः शिरसि, गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छन्देभ्यो नमः मुखे, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वतयो
देवताभ्यो नमः हृदिः, ऐं बीज सहिताया रक्त-दन्तिका-दुर्गायै भ्रामरी देवताभ्यो नमः लिङ्गे (मनसा), ह्रीं शक्ति सहितायै नन्दा-शाकम्भरी-भीमा देवताभ्यो नमः नाभौ, क्लीं कीलक सहितायै अग्नि-वायु-सूर्य तत्त्वेभ्यो नमः गुह्ये, ऋग्-यजुः-साम स्वरुपिणी श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती देवताभ्यो नमः पादौ, श्री महादुर्गा प्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे । “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” – नवार्ण मन्त्र पढ़कर शुद्धि करें । षडङ्ग-न्यास – कर-न्यास – अंग-न्यास – ॐ ऐं अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा ॐ क्लीं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट् ॐ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां हुम् कवचाय हुम् ॐ विच्चे” कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् नेत्र-त्रयाय वौषट् ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतल-कर-पृष्ठाभ्यां फट् अस्त्राय फट् अक्षर-न्यासः- ॐ ऐं नमः शिखायां, ॐ ह्रीं नमः दक्षिण-नेत्रे, ॐ क्लीं नमः वाम-नेत्रे, ॐ चां नमः दक्षिण-कर्णे, ॐ मुं नमः वाम-कर्णे, ॐ डां नमः दक्षिण-नासा-पुटे, ॐ यैं नमः वाम-नासा-पुटे, ॐ विं नमः मुखे, ॐ च्चें नमः गुह्ये । व्यापक-न्यासः- मूल मंत्र से चार बार सम्मुख दो-दो बार दोनों कुक्षि की ओर कुल आठ बार (दोनों हाथों से सिर से पैर
दुर्गा सप्तशती जिसे देवी महात्म्य और चंडी पाठ के नाम से भी जाना जाता है, एक हिंदू धार्मिक ग्रंथ है जिसमें राक्षस महिषासुर पर देवी दुर्गा की जीत का वर्णन है। यह ऋषि मार्कण्डेय द्वारा लिखित मार्कण्डेय पुराण का हिस्सा है।
इस पाठ में सप्तशत यानी 700 श्लोक हैं और इस वजह से पूरी रचना को दुर्गा सप्तशती के नाम से जाना जाता है। सात सौ श्लोकों को 13 अध्यायों में व्यवस्थित किया गया है। धार्मिक पाठन के प्रयोजनों के लिए 700 छंदों के पहले और बाद में कई सहायक पाठ जोड़े गए हैं। दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठानिक पाठ देवी दुर्गा के सम्मान में नवरात्रि (अप्रैल और अक्टूबर के महीनों में नौ दिन की पूजा) समारोह का हिस्सा है। यह शाक्त परम्परा का आधार एवं मूल है।
देवी महात्म्य वर्णन करते हैं कि कैसे देवी अपने द्वारा किए जाने वाले कार्यों के अनुसार कई रूप धारण करती हैं, कभी-कभी मधुर और कोमल, और कभी-कभी भयानक और निगलने वाली। देवी वह भ्रामक शक्ति है जो मनुष्य को संसार के निरंतर गतिशील चक्र से बांधती है; वह सबसे बुद्धिमान पुरुषों को भी धोखा देती है। फिर भी वह अपने प्रसन्न होने वाले भक्त को मुक्ति प्रदान करने वाली होती है। अपने दिव्य खेल की निरंतरता के लिए, उन्होंने अविद्या-माया के रूप में, हमसे सत्य को छिपा दिया है और हमें संसार में बांध दिया है। जब उसे सच्ची भक्ति और आत्म-समर्पण के अभ्यास के माध्यम से प्रसन्न किया जाता है, तो वह विद्या-माया के रूप में, पर्दा हटा देती है और हमें सत्य का अनुभव करने में सक्षम बनाती है। सप्तशती में उन्हें महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहा, महादेवी और माहेश्वरी के रूप में संदर्भित किया गया है। वह परब्रह्म-महिषी है, समस्त अस्तित्व की रानी और संप्रभु है। उनकी करुणा साधक में अभीप्सा, साधक में साधना, सिद्ध में सिद्धि का रूप ले लेती है। वह विचार, इच्छा, भावना, समझ, क्रिया, नाम और रूप के पीछे का सत्य है। यह कहता है
अर्थ: ‘माँ, सभी कलाएँ और विज्ञान, ज्ञान की सभी शाखाएँ, आपके संशोधन हैं, दुनिया की सभी महिलाएं आपकी अभिव्यक्तियाँ हैं। आप अकेले ही संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त हैं।’
माँ के रूप में अनंत की कल्पना निरर्थक नहीं है। ऋग्वेद इस तथ्य का प्रमाण है कि प्राचीन काल में भी यह विश्वास था कि सर्वोच्च शासक सर्व दयालु माता है। देवी, दुर्गा या श्री के रूप में देवत्व की अवधारणा, केवल एक सिद्धांत नहीं बल्कि जीवन का एक व्यावहारिक तरीका है। माँ वह व्यक्तित्व है जो मानव हृदय को सबसे अधिक आकर्षित करती है, जबकि पिता को एक कठिन कार्यकर्ता के रूप में माना जाता है। यहां तक कि एक सूक्ष्म दार्शनिक भी शक्ति की अवधारणा से दूर नहीं रह सकता, क्योंकि वह मूलतः शक्ति का अवतार है और उसे शक्ति से प्रेम है। उच्चतम बुद्धि और सबसे काल्पनिक तत्वमीमांसा केवल ज्ञान शक्ति की अभिव्यक्ति है और शक्तिवाद की सीमा से बाहर नहीं है।
चंडी होम करने के लिए दुर्गा सप्तशती एक महत्वपूर्ण रचना है जो स्वास्थ्य प्राप्त करने और दुश्मनों पर विजय पाने के लिए किए जाने वाले सबसे महत्वपूर्ण होमों में से एक है। दुर्गा सप्तशती के श्लोकों का उच्चारण करते हुए चंडी होम किया जाता है। चंडी होम के दौरान पवित्र अग्नि के माध्यम से देवी दुर्गा को कुल 700 आहुतियां दी जाती हैं।
दुर्गा सप्तशती पाठ विधि
सुबह स्नान करने और अपनी दैनिक पूजा या अन्य अनुष्ठानों को पूरा करने के बाद, व्यक्ति को उत्तर या पूर्व की ओर मुख करके एक आसन पर बैठना चाहिए और एकाग्रता और भक्ति की स्थिति पैदा करने का प्रयास करना चाहिए।
पाठ (पढ़ना) तब सबसे प्रभावी होता है जब इसे दृढ़ विश्वास, भक्ति और सही उच्चारण के साथ किया जाता है। पढ़ते समय व्यक्ति को बात करने, सोने, छींकने, जम्हाई लेने या थूकने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, बल्कि देवी के उस रूप पर पूरी एकाग्रता के साथ पढ़ना चाहिए जो उसे आकर्षित करता है। किसी भी अध्याय को बीच में नहीं रोकना चाहिए। पुस्तक को स्टैंड पर रखना अच्छा है, विशेषकर तांबे की प्लेट पर।
प्रत्येक अध्याय के आरंभ और अंत में घंटियाँ बजाई जा सकती हैं।
पाठ शुरू करने से पहले उस उद्देश्य की पुष्टि करें जिसके लिए आप इसे कर रहे हैं – संकल्प करें, संकल्प करें और देवी की पूजा करें।
दुर्गा सप्तशती के पाठ के लिए नवरात्रि एक आदर्श अवधि है; हालाँकि, अन्य महीनों में, मंगलवार, शुक्रवार और शनिवार को पढ़ना शुरू करने के लिए सप्ताह के शुभ दिन माने जाते हैं। चंद्र कैलेंडर के आदर्श दिन अष्टमी (चंद्रमा का आठवां दिन), नवमी (चंद्रमा का नौवां दिन) और चतुर्दशी (चंद्रमा का चौदहवां दिन) हैं।
सप्तशती को प्रतिदिन पढ़ा जा सकता है और अध्यायों के विभाजन के अनुसार सात दिनों में पूरा किया जा सकता है।
पहला दिन: पहला अध्याय.
दूसरा दिन: दूसरा और तीसरा।
तीसरा दिन: चौथा.
चौथा दिन: पांचवां, छठा, सातवां और आठवां। पाँचवाँ दिन: नौवाँ और दसवाँ।
छठा दिन: ग्यारहवां.
सातवाँ दिन: बारहवाँ और तेरहवाँ।
यह पारंपरिक नियम है. ऐसा माना जाता है कि सप्तशती का पाठ जिस भी संकल्प के साथ किया जाएगा, वह अवश्य पूरा होगा। चूँकि शक्ति सभी इच्छा (इच्छा), ज्ञान (ज्ञान) और क्रिया (क्रिया) का आधार है, कोई भी शक्ति के दायरे से बाहर नहीं रह सकता है। एक व्यक्ति केवल शक्ति है, और इसलिए शक्ति की पूजा के माध्यम से व्यक्ति सब कुछ पा सकता है। पढ़ना निम्नलिखित क्रम में होना चाहिए:
देवी सूक्तम्
देवी कवचम्
अर्गला स्तोत्रम
कीलकम
रात्रि सूक्तम्
देवी महात्म्य
क्षमा प्रार्थना
देवी सूक्तम्
देवी सूक्तम के आठ छंद महर्षि अम्बारिन की बेटी वाक द्वारा रचित थे, और ऋग्वेद (10वें मंडल, 10वें अनुवाक, 125वें सूक्त) से हैं। ये श्लोक वाक द्वारा महसूस किए गए सत्य को व्यक्त करते हैं, जो खुद को ब्रह्म शक्ति के रूप में पहचानती है, और खुद को ग्यारह रुद्र, आठ वसु, बारह आदित्य और सभी देवों के रूप में व्यक्त करती है जो उसके द्वारा कायम हैं और वह पूरी दुनिया का स्रोत, आधार और समर्थन है।
देवी कवचम्
61 श्लोकों से युक्त, देवी कवचम मार्कंडेय पुराण में है। यह कवच पाठक की शरीर के सभी अंगों, सभी स्थानों और सभी कठिनाइयों में रक्षा करता है। शरीर के प्रत्येक अंग का उल्लेख किया गया है और विभिन्न रूपों में देवी की पूजा की जा रही है।
अर्गला स्तोत्रम
यहां, ऋषि मार्कंडेय अपने शिष्यों को सत्ताईस प्रेरक दोहों में देवी की महानता के बारे में बताते हैं। उनका सभी पहलुओं और नामों से वर्णन किया गया है और प्रत्येक श्लोक के अंत में देवी से भौतिक समृद्धि, शारीरिक स्वस्थता, प्रसिद्धि और विजय के लिए प्रार्थना की जाती है।
कीलकम
यहां भी, ऋषि मार्कंडेय अपने शिष्यों को सोलह श्लोकों में देवी महात्म्य का पाठ करते समय भक्तों के सामने आने वाली बाधाओं को दूर करने के तरीके और उपाय बताते हैं। कीलकम के पाठ से देवी का आशीर्वाद, आध्यात्मिक सद्भाव, मन की शांति और सभी कार्यों में सफलता मिलती है।
रात्रि सूक्तम्
यहां के आठ श्लोक ऋग्वेद (10वां मंडल, 10वां अनुवाक, 127वां सूक्त) से लिए गए हैं। देवी को ओमकारा में प्रकट होने वाले ब्रह्मांड के सर्वव्यापी सर्वोच्च भगवान के रूप में वर्णित किया गया है। रात्रि का अर्थ है ‘वह जो हमारी प्रार्थनाओं को पूरा करती है’।
देवी महात्म्य
पाठ को तीन भागों में विभाजित किया गया है:
प्रथमा (प्रथम)
मध्यमा (मध्यम)
उत्तरा (अंतिम)
पहला अध्याय महा काली की महिमा का वर्णन करता है, दूसरा, तीसरा और चौथा अध्याय महा लक्ष्मी की महिमा करता है, और पांचवें से तेरहवें तक अंतिम नौ अध्याय महा सरस्वती की महिमा करते हैं।
क्षमा प्रार्थना
यह देवी से पाठ के दौरान या अन्यथा हुई किसी भी त्रुटि के लिए क्षमा मांगने वाली अंतिम प्रार्थना है।
दुर्गा सप्तशती एक हिंदू धार्मिक ग्रंथ है जिसमें राक्षस महिषासुर पर देवी दुर्गा की जीत का वर्णन किया गया है। दुर्गा सप्तशती को देवी महात्म्यम, चंडी पाठ (चंडीपाठः) के नाम से भी जाना जाता है और इसमें 700 श्लोक हैं, जो 13 अध्यायों में व्यवस्थित हैं।
दुर्गा सप्तशती का पहला अध्याय “मधु और कैटभ के वध” पर आधारित है।
मधु और कैटभ का वध
महाकाली का ध्यान: मैं महाकाली का सहारा लेता हूं, जिनके दस चेहरे, दस पैर हैं और जिनके हाथों में तलवार, चक्र, गदा, बाण, धनुष, गदा, भाला, मिसाइल, मानव सिर और शंख हैं, जो तीन आंखों वाली हैं, जो अपने सभी अंगों पर आभूषणों से सुशोभित हैं, और नीले रत्न की तरह चमकदार हैं, और जब विष्णु (रहस्यवादी) नींद में थे, तब मधु और कैटभ को नष्ट करने के लिए ब्रह्मा ने जिनकी स्तुति की थी।
मार्कण्डेय ने (अपने शिष्य क्रासुस्तुकी भागुरि से) कहा:
॥श्रीदुर्गासप्तशती – प्रथमोऽध्यायः॥
मेधा ऋषि का राजा सुरथ और समाधि को भगवती की महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वध का प्रसंग सुनाना
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जन्म कुंडली क्या है?
जन्म कुंडली को अंग्रेजी में बर्थ चार्ट कहा जाता है। यह जन्म के समय देखा गया आकाश का मानचित्र है। यह ज्योतिष शास्त्र में भविष्य बताने का आधार है।
क्या ज्योतिष भविष्य की सटीक भविष्यवाणी कर सकता है?
ज्योतिष वेदांग है और वेदों का नेत्र माना जाता है। आयुर्वेद और योग, ज्योतिष और इसकी शाखाओं जैसे होरा, मुहूर्त और संहिता की तरह, यह वेदों की रीढ़ है।
नवांश कुंडली क्या है?
यह एक प्रभाग या वर्ग है. जब किसी राशि को एक विशेष क्रम में नौ भागों में विभाजित किया जाता है, तो उसे नवांश कहा जाता है। इसे कभी-कभी रासी जितना ही महत्वपूर्ण माना जाता है।
लग्न कुंडली क्या है?
लग्न चार्ट, जिसे राशि चार्ट भी कहा जाता है, वैदिक ज्योतिष में सबसे महत्वपूर्ण चार्ट है। यह विभिन्न राशियों में लग्न और ग्रह की स्थिति को दर्शाता है। विंशोत्तरी दास और गोचर जैसी अन्य गणनाओं के साथ इस चार्ट का उपयोग भविष्य की भविष्यवाणी करने के लिए किया जाता है।
विवाह के लिए राशि अनुकूलता आपके कितने गुण मिलते हैं? संगतता राशि के माध्यम से कम से कम अंक अठारह (18) माना जाता है।
कुंडली मिलान या गुण मिलान वैदिक ज्योतिष में विवाह के लिए कुंडलियों का मिलान है | हिन्दू धर्म और खासकर हिंदुस्तान में विवाह बुजुर्गो और माता पिता के आशीर्वाद से संपन होते है , इसलिए विवाह के लिए कुंडली मिलान का काफी उच्च महत्व है और कुंडली मिलान के बाद ही विवाह निश्चित किये जाते है |
कुंडली मिलान के माध्यम से ये पता चलता है की किस स्तर तक ग्रह वर और वधु को आशीर्वाद दे रहे है और कौन से ज्योतिष परिहार करने से विवाह में खुशियां आ सकती है |
गुण मिलान की व्याख्या किस तरह करे ?
कुंडली मिलाते हुए गुण मिलान में नाड़ी कूट को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है | अगर नाड़ी कूट प्रतिकूल है तो २८ गुणों का मिलान भी अशुभ माना जायेगा |
गुण मिलान में अधिकतम ३६ गुण होते है | अगर भकूट और नाड़ी कूट अनुकूल है तो ३१ से ३६ गुणों का संयोजन सर्वश्रेष्ट माना जायेगा , २१ से ३० गुण बहुत अच्छे , १७ से २० मध्यम और ०-१६ गुण अशुभ होंगे |
अगर भकूट कूट प्रतिकूल है तो संयोजन कभी भी अच्छा नहीं होगा | २६-२९ गुण काफी अच्छे , २१-२५ गुण मध्यम और ०-२० गुण अशुभ माने जाएंगे |
एक नाड़ी होने पर क्या होता है?
एक नाड़ी होने पर इसको नाड़ी दोष कहा जाता है। नाड़ी मिलान को कुंडली मिलान में सबसे अधिक 8 अंक दिए गए हैं। ज्योतिष के अनुसार, एक ही नाड़ी के लोगों को वैवाहिक जीवन में गंभीर समस्याएं हो सकती है। लेकिन नाड़ी दोष को रद्द किया जा सकता है।
कुंडली मिलान कैसे करें?
कुंडली मिलान का सर्वश्रेस्थ तरीका जन्म कुंडली द्वारा मिलान अर्थात जन्म तिथि, समय और स्थान के आधार पर कुंडली मिलान तथा नाम से भी कुंडली मिलान किया जाता है। कुंडली मिलान कराएं, Kundali Milaan
कुंडली मिलान कैसे करें ? आप शादी से पहले किसी ज्योतिष की मदद से कुंडली मिलान करवा सकते हैं। इसके लिए आपको वर-वधु का नाम, उनकी जन्म की तिथि, जन्मस्थान और जन्म का समय ज्योतिष को बताना होगा। ज्योतिष शास्त्र के अंतर्गत आपकी जन्म से जुड़ी हुई जानकरी जैसे तिथि, समय और स्थान की मदद से कुंडली बनते हैं।
शादी के लिए कुंडली मिलान कैसे चेक करें?
वस्तुतः कुंडली में प्रस्तुत गुणों का मिलान किया जाता है, इसलिए इसे ‘गुण मिलान’ कहा जाता है। कुंडली में मिलान किए गए पहलुओं/गुणों की कुल संख्या 36 है । यदि 36 में से 18 संपत्तियों का विलय हो जाता है यानी कम से कम 50% संपत्तियों का विलय हो जाता है तो ज्योतिषियों द्वारा विवाह की अनुमति दी जाती है।
योनि का मेल नहीं होने पर क्या होता है?
विपरीत योनि: इसे विवाह के लिए अशुभ माना जाता है । शत्रु योनि: यह दर्शाता है कि यह रिश्ता वैवाहिक जीवन में समस्याएं पैदा कर सकता है।
कुंडली से जीवनसाथी का नाम कैसे जाने?
ज्योतिष के सबसे आकर्षक पहलुओं में से एक व्यक्ति के भावी जीवनसाथी के नाम की भविष्यवाणी है। ज्योतिष में, इसे निर्धारित करने के लिए भावों का प्रभाव आवश्यक है। सबसे पहले, कुंडली का पंचम भाव किसी व्यक्ति के भावी जीवनसाथी के नाम का निर्धारण करने में महत्वपूर्ण होता है। यह घर प्रेम संबंधों, रोमांस और विवाह से जुड़ा हुआ है। For bhajans – SUR SARITA BHAJAN
कुंडली में पत्नी का घर कौन सा होता है?
कुंडली (Kundli) से आपके दांपत्य जीवन का भी पता चलता है. कुंडली का सप्तम भाव जीवनसाथी का माना गया है.
Bhartiya Jyotish By Shravan Acharya/भारतीय ज्योतिष विधा
भारतीय ज्योतिष का इतिहास बहुत पुराना है और यह वास्तव में ज्योतिष के अन्य रूपों जैसे चीनी ज्योतिष और पश्चिमी ज्योतिष के बीच ज्योतिष का सबसे पुराना रूप है। भारतीय प्राचीन ज्योतिष का विकास 5000 ईसा पूर्व हुआ था। वे वेदों जितने ही पुराने हैं जिनमें छह पूरक हैं और ज्योतिष वेदांग छह वेदांगों में से एक है। इसे वैदिक खगोल विज्ञान के रूप में भी जाना जाता है और ज्योतिष जिस पर भारतीय प्राचीन ज्योतिष आधारित है, इन्हीं में से एक है। वशिष्ठ, भृगु और गर्ग जैसे प्राचीन ऋषियों ने कई भविष्यवाणियाँ कीं जो सच हुईं। कलियुग की शुरुआत में पराशर ने बृहद पराशर होरा शास्त्र नामक ज्योतिष ग्रंथ लिखा। उन्होंने यह ज्ञान मैत्रेय को दिया और तब से इसने एक लंबी दूरी तय की है।Bhartiya Jyotish By Shravan Acharya/भारतीय ज्योतिष विधा
भारतीय ज्योतिष शास्त्र अत्यधिक प्रामाणिक माना जाता है और इसकी भविष्यवाणियाँ सबसे सटीक मानी जाती हैं। चूंकि यह तारों के वास्तविक नक्षत्रों पर आधारित है, इसलिए यह दुनिया भर में ज्योतिष की सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली प्रणाली है। भारतीय ज्योतिष में सूर्य को जीवन का आधार माना गया है। यह ऊर्जा और आध्यात्मिकता का स्रोत है। भारतीय ज्योतिष बुरे कर्मों के कारण होने वाले कई प्रकार के दोषों को दूर करने में मदद करता है। वैदिक भारतीय ज्योतिष वास्तव में आत्मा को उसके अंतिम गंतव्य अर्थात ईश्वर से मिलाने में मदद करता है।
यत्र-तत्र ऐसे प्रमाण भी मौजूद हैं जो बताते हैं कि ज्योतिष अत्यंत पुराना विषय है। हालाँकि, विवाद इस सवाल पर है कि क्या वे वास्तव में उस समय दर्ज किए गए थे या केवल भावी पीढ़ियों द्वारा प्राचीन शासकों के लिए बताए गए थे। ज्योतिष का प्रलेखित इतिहास इंडो-ग्रीक काल में भारतीय और हेलेनिस्टिक संस्कृतियों की बातचीत से जुड़ा हुआ है, यवनजातक या बृहत्-संहिता सबसे पुराने जीवित ग्रंथ हैं। वस्तुतः भारतीय खगोल विज्ञान और ज्योतिष शास्त्र एक साथ विकसित हुए। आर्यभट्ट और वराहमिहिर एक ही समय में वैज्ञानिक और ज्योतिषी थे। आर्यभटीय में आर्यभट्ट के सिद्धांतों के अतिरिक्त वराहमिहिर की पंचसिद्धांतिका भी लोकप्रिय है|Bhartiya Jyotish By Shravan Acharya/भारतीय ज्योतिष विधा
अन्य युगों में ज्योतिष का विकास
पराशर ने ज्योतिष के विकास में बड़ा योगदान दिया और वैदिक ज्योतिष का एक बड़ा हिस्सा काफी हद तक पराशर ज्योतिष पर आधारित है। वह पराशर काल 3000 ईसा पूर्व से 57 ईसा पूर्व तक माना जाता है। ऋषि पराशर द्वारा लिखित महान महाकाव्य “बृहत् पराशर होरा” सभी समय के ज्योतिषियों के बीच सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है। इस पुस्तक में ज्योतिष के 100 अध्याय हैं जिनमें मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं पर ग्रहों के शुभ और अशुभ प्रभाव का विस्तृत वर्णन किया गया है।
पराशर शास्त्र के अलावा “आर्यभट्टिय” उसी काल में लिखी गई प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक है। सूर्य और सभी नक्षत्र स्थिर हैं। इसमें कहा गया है कि दिन और रात पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने से बनते हैं। इसी काल में आर्यभट्ट नामक एक और ज्योतिषी थे। आर्यभट्ट ने “महाभट्टिय” नामक पुस्तक लिखी जो गणितीय ज्योतिष का एक रूप है। पुस्तक में सौर मंडल में ग्रहों की निरंतर गति का विस्तार से वर्णन किया गया है।
ज्योतिष या वैदिक ज्योतिष एक प्राचीन गुप्त विज्ञान है जो हजारों वर्षों से प्रचलन में है, केवल किसी के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित अत्यधिक लाभकारी भविष्य की अंतर्दृष्टि प्रदान करने में इसकी प्रभावकारिता के कारण। व्यक्तित्व लक्षणों की भविष्यवाणी करने से लेकर संभावित कैरियर पथों को उजागर करने तक, ज्योतिष ब्रह्मांड और मानव अस्तित्व पर इसके प्रभाव की व्यापक समझ प्रदान करता है। लोग यह जानने के लिए ज्योतिषियों से बात करते हैं कि उनके जीवन के विभिन्न पहलू कैसे सामने आएंगे और एक सहज और सफल जीवन सुनिश्चित करने के लिए वे कौन से उपाय अपना सकते हैं।
एक ऐसा क्षेत्र जहां ज्योतिष विशेष रूप से दिलचस्प हो सकता है, वह वित्तीय अप्रत्याशित लाभ या निवेश की सफलता जैसे सट्टा लाभ की भविष्यवाणी करना है। इस लेख में, हम ज्योतिष में उन घरों और ग्रहों का पता लगाएंगे जो सट्टा लाभ का संकेत देते हैं, जो आपको इस मनोरम विषय में बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करेंगे।
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